सबसे बाद में आने वाले और बसने वाले रुहेले पठान तो उत्तराखण्ड वालों के लिए आतंकवादी साबित हुए थे। यह प्रारम्भ में लोदी वंश शासन काल में अंगरक्षक, महलरक्षक आदि पदों पर भी रहे थे। स्वयं एक अफगानिस्तान वासी वजीर ने बहलोल को मरते समय समझाया था कि "कभी किसी न्याजी/नियाजी (अफगान) का भरोसा न करना, क्योंकि वह नमक का भी ख्याल नही करते।" बताना है कि बहलोल, सूरपठान था।
काबुल कन्धार के दक्षिणी भाग वाले यह अफगान, लौह खनिज क्षेत्र के थे। जब वहां इस्लाम आया तो संस्कृत का लौह, रोह हो गया जिससे रोह क्षेत्रवाले रोहिले (पठान) शब्द बना।
इनकी बोली में गढ़ को गट, गिरी को गर और डेरा को घर कहते थे। पहाड़ी दुर्ग को यह संगर और घुड़सवार को आलौक कहते थे। जब इन्हें लड़ाकू व लुटेरा प्रवृति वाला होने से हिन्दू रजवाड़ो, सरदारों के खिलाफ प्रयोग किया जाने लगा तो पद व समृद्धि भी मिलन लगी। तब इन्होने तुर्की व फारसी के प्रचलित सम्मानजनक शब्दों का भी अपने रहन सहन व संगठन में प्रयोग करना शुरू किया। फलतः तुर्की का बआतुर बहादुर बना, पड़ाव को कुरियान, दलनेता को खान, खान निवास को भी खान कहते थे।
कुमाऊँ में सोर - पिथौरागढ़ प्रसिद्ध सीमान्त क्षेत्र है जहां कराजल विजय में तुगलकी फौज काली नदी के आर पार रास्तों से आगे बढ़ी थी। तिब्बत की दिशा से भी कुछ मंगोल आये थे। बहरहाल एक बात अफगानों के प्रसंग में बतानी है कि- "अफगानी में मां को मोर, भाई को रोर, गांव को शोर, सेना को तोर, और शिश्न को नोर कहते हैं।" अब एक पते की बात या सौफिनी संक्षेप में बतानी है कि "जैसे बैल घूप की तरफ और भैंस छांव की तरफ भागती है" उसी प्रकार मघ्य कालीन रूहेले जहां धन प्राप्ति की आशा हो, उधर ही लूटने चलते थे।
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लेखक -डॉ. शिवप्रसाद नैथानी
संदर्भ - पुरवासी - 2009, श्री लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब), अल्मोड़ा, अंक : 30
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