यहां पर कुछ उदाहरण, कुमाऊँ के चातक, प्रयाग जोशी की पुस्तकों से दिये जा रहे हैं। कुमूं के चन्द राजा गुरू ज्ञानचन्द के समय तराई में भाकुली पठान आतंक का पर्याय था। वह तराई से कुमूं के दक्षिणी भाग पर हमले करता था। वह चौड़ा पाजामा और लम्बा कुर्ता पहनता था।
एक झांकरी पठान भी तराई में बाद के युग में हुआ था। उसके साथी शेख, सैयद, पठान थे। उन्होने सम्मिलित प्रयास के भड़ "सौवारावत" को पकड़कर मार डाला था।
कुमूं के राजा त्रिमलचन्द (1625-38 ई.) के समय में शेख, सैयद और मुगल लोग माल तलहटी में आए और छाए थे। उन्होने आगे बढ़ कर कुछ भागों पर कब्जा कर व्यापार रास्तों के द्वारा नाकों पर कब्जा कर दिया था। इससे कुमूं में नमक गुड़ का भारी अभाव हो गया था। और माल क्षेत्र से व्यापार और आवागमन न होने से प्रजा को भारी कष्ट होने लगा था।
देखिए - "सैत, सयल आयो तलहटी माल,
माल भर दास आयो तलहटी माल।
नून, गुड़ौ बाटो रूकयो, रूकयो, कुमियां भायौ।। (कुमाउं की लोकगाथायें)
इतिहास पृष्ठों में कुमाऊँ द्वारा माल तलहटी पर कब्जा बनाए रखने के प्रयास- आगे चलकर कुछ पंक्तियां में हम चन्द राज्यकाल की घटनाओं को अवश्य देंगे पर सबसे पहले यहां पर उन ग्रामवासियों की वीरता को रेखांकित करना उचित समझते हैं जो प्राचीन परम्परा में बरसात खत्म होते होते अपने पहाड़ी गांवो की रवी की जुताई बुआई समाप्त कर अपने ढोर डंगरों, तवा, परात, बंठो, लोटों, पतीलों को लेकर तराई क्षेत्र के अपने बसने के निश्चित स्थानों पर घमतपी करने उतर जाते थे और भैंस पालन से घी, दूध व्यापार और रवी तराई खेती से पर्याप्त गेहूं, जौ, लाई, उत्पन्न कर गर्मी का मौसम आते आते, पर्याप्त कमाकर गांव की रवी फसल काटने लौट आते थे।
तब कहावत प्रचलित थी - सोल, सराध, दस दसैं, बिसिबग्वाल,
फुलि भंग्वाल, चल कुमैयां, अपणि माल।।
इन्ही ग्राम वासियों की हाड़ तोड़ मेहनत से द्वाराकोट- ठाकुरद्वारा, प्यूंलीभावर पीलीभीत तक लम्बा क्षेत्र चौरासीमाल और नौ लाख माल नाम से प्रसिद्ध हो गया था। माल शब्द राजस्थान में भी भूमि रूप में प्रयुक्त होता था परन्तु मूल फारसी 'महाल' माना जाता है।
तो जब रुहेलों ने इनकी शीतकालीन बसासतों पर कब्जा करना और इनका आवागमन रोकना शुरू किया तो यहीं ग्राम वासी अपने हक हकूक के लिये लड़, कट मरे थे। अब चाहे इसे चन्दराजा की सेना का नाम दिया जावे पर हम तो पांडे जी (बद्रीदत्त) के इस विवरण से अधिक प्रभावित हैं-
"जब रुहेलों सरदार ने अपने फौजदारों से कुमांऊं सेना से हार जाने का कारण पूछा तो उत्तर मिला कि हुजूर! कुमाऊँनी होते तो तीन हाथ के हैं पर चार हाथ की तलवार लेकर सामने वाले को काट डालते हैं।"
अतः रूद्रपुर, काशीपुर, जसपुर, जैसे नगर बसाने वालों में इनके संस्थापकों के नाम के साथ ऐसे योद्धाओं का भी सदैव स्मरण किया जाना चाहिए जो अनाम रहकर कुर्बान हो गए थे।
इन योद्धाओं के प्रतीक रूप में हमें गाथा साहित्य 'रणजीत-दलजीत' दो भाइयों के नाम मिलते हैं। गाथा के अनुसार इन्होने गरखेत के युद्ध में दिल्ली से भेजे गए पठानों और मुगलों के सर काट डाले थे।
अतः सार रूप में यहां हम माल तराई पर कब्जा बनाए रखने के प्रयास को राजस्थानी प्र्रतिज्ञा के रूप में पाते हैं- "इला न देणी आपणी, रण खेतां भिड़ जाय"। राजस्थानी में इला का अर्थ भूमि होता है।
यहां पर हमें रेखांकित करना है कि गढ़वाल राज्य ने तो रुहेलों के डर से तराई उतरना ही छोड़ दिया था और पापी डांडा के वार ही रहने लगे थे। चौकीघाटा, सिद्धवलीद्वार को भी सैय्यदलीद्वार को भी सैय्यदों को ठेके पर दे दिया था और इस प्रकार आठ लाख की माल से हाथ धो बैठे थे। फल यह हुआ कि जब तब लुटेरे अब दूण पर हमला करने लगे थे।
अधिक जानकारी के लिए लिंक देखे।
1. माल तराई याने कटेहर का संक्षिप्त इतिहास
2. रुहेलों का विशेष परिचय
3. रुहेलों के कुमाऊँ अभियान में आए ऐतिहासिक स्थान नाम
4. कुमाऊँ के खान नामान्त स्थान रुहेला आधिपत्य के प्रतीक हैं
लेखक -डॉ. शिवप्रसाद नैथानी
संदर्भ - पुरवासी - 2009, श्री लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब), अल्मोड़ा, अंक : 30
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