यहां पर विस्तार से संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है- तारीखे मुबारक शाही के अनुसार इकवाल नामक विद्रोही सरदार ने कटेहर में राय हरसिंह को सर्मथन देकर उसकी शक्ति बढ़ाई। इसके बाद खिज्रखां ने हिन्दुस्तान विलायत के शक्तिशाली हुए इस काफिर सरदार को दंड देने फौजें भेजी जिन्होने गंगा पार कर विध्वंस करना शुरू किया। तब राय हरसिंह धबराकर कभी आंवला जा छुपता कभी समझौता करता और अन्त में 1418-19 ई. कुमाऊँ पर्वत की ओर चला गया। कुछ समय बाद रायते आला मुबारक शाह ने कोहपाया कुमाऊँ को फौंजें भेजी पर कठिनाइयों और रहब (रामगंगा पश्चिमी) किनारे मार्ग की गर्मी से घबराकर फौंजे लौट आई।
"कुर्गू" जो कुमांऊँ की ऊँची पहाड़ियों में छुपा था उस पर संभल से नजर रखने को दाउद नाम के अफगान सरदार को नियुक्त किया गया व आदेश था कि कुमांऊँ के व्यापार घाटों को बन्द करने के साथ कटेहर के जुन्नारदारों (जनेऊवालों) को लगातार बरबाद करते रहो।
डबराल लिखते हैं कि "खड़कू का पीछा करती हुई फीरोज तुगलक की सेना 1380 में पर्वतीय प्रदेश में महत्तर क्षेत्र में घुसी थी। इसे ऐटकिन्सन ने गजेटियर में मेवाती अधिकार क्षेत्र रानीबाग बमोरीघाटा, चोरगलिया, हल्द्वानी माना है।
इस तथ्य का सभी लेखकों ने जिक्र किया है कि 1742-44 ई. के मध्य चन्दराजा कल्याण चन्द के समय पीलीभीत के नवाब हाफिजरहमत खां ने 3 बड़े सरदारों के अधीन भारी फौज लेकर कुमाऊँ को लूटने को हमला कर कब्जा किया था। उनकी जगह-जगह छावनियां थी जहां से वे शीत काल को छोड़कर ऊँचे पहाड़ी इलाकों तक छापे मारकर विघ्वंस और मन्दिर मूर्ति भंजन करते थे। उसका एक सरदार रूद्रपुर में, एक भीमताल के पास छखाता के विजयपुर में, एक वक्शी सरदास खां बड़ा खेड़ी में और एक तथा वह स्वयं अल्मोड़ा में डटा रहा था। तब लखनपुर, द्वाराहाट, भीमताल, कटारमल, अल्मोड़ा, बागेश्वर आदि स्थानों की मूर्तियां तोड़ी गई थी। शिवदेव जोशी सेनापति ने कैड़ारौ- बौरारो में मुकाबला किया पर हार गया। तब वह भी भागे हुए कल्याण चन्द के पास गढ़वाल सीमा पर गैर माण्डा में चला आया।
गढ़वाल राजा को पड़ोस में रूहेलों के कब्जे और लूट पाट से बड़ी चिन्ता हुई। इस सम्बन्ध में पांडे जी एवं शिवप्रसाद डबराल के लिखे विवरण हैं। पांडे जी के अनुसार, षडयंत्र के भय से राजा कल्याण चन्द ने हिम्मत सिंह रौतेला कुंवर के विद्रोह को दबाने काशीपुर के सरदार की हुक्म दिया कि वह उसे पकड़ कर मार डाले। हिम्मत सिंह भाग कर रूहेला सरदार अलीमुहम्मद खां की शरण में जा पहुंचा और निशि्ंचत होकर बदायूं में रहने लगा। पर वहां उसे हेड़ियों के द्वारा कल्याण चन्द ने मरवा दिया। इससे याने रूहेला सरदार के शरणागत को मरवाये जाने की जुर्रत से क्रोधित होकर अलीमुहम्मद ने 1743 में हाफिज रहमत खां, पैदाखां और बक्शी सरदार खां के अधीन दस हजार सेना को कुमाऊँ कूच का हुक्म दिया। इस फौज ने शिवदेव जोशी को रूद्रपुर में हराकर वटोखरी (काठगोदाम) में शरण लेने को विवश किया और रहमत खां भागते कुमैयों का पीछा करते विजयपुर को जीतते हुए रामगाड़, प्यूड़ा होते सुआल नदी तट मार्ग से अल्मोड़ा पर कब्जा करने में सफल हो गया। राजा भागकर लोहवा के पास गैरमांडा में (गढ़वाल) शरण लेने गया। गढ़वाल व कुमूंकी फौज जब कैड़ारो-बौरारो में रूहेलों से हार गई तो सन्धि हुई। शर्त के अनुसार "कुमाऊँ" के राजा से तीन लाख रूपये नकद लिये गये जिन्हे गढ़वाल के राजा ने अपने खजाने से उधार दिया। उधर रहमात खां के जीवन चरित्र में लिखा है कि कुमाऊँ का राजा साठ हजार रूपया सालाना कर देगा और गढ़वाल राजा कुमाऊँ की कोई मदद नही करेगा और कल्याण चन्द को गद्दी छोड़नी होगी। तब एक फौज बड़ाखोरी में छोड़कर रूहेले लौटे थे।" (पृष्ठ 327-28)
1745 में रोहिलों की दूसरी चढ़ाई हुई क्योंकि रुहेला सरदार कुमाऊँ राज्य को अपने राज्य में मिलाना चाहता था ताकि दिल्ली के तख्त और अवध के नवाब से कभी संघर्ष में हारना पड़े तो यहां आकर शरण ले, बचे रहें। रोहिलों ने काली और कोसी नदी की राहों से सेना बढ़ाई। कोटा के रास्ते भी रोहिले चढ़ आए पर अब के टिक न सके। अब के नजीव खां सरदार हार गया। उसकी सैनिकों की कब्रें अब भी यत्र तत्र पाई जाती है। दिगोली में जो शूद्र हैं कहते हैं वे रुहेलों की सन्तान है.......दिल्ली वजीर कमरूद्दीन खां और अवध नवाब मंसूर अलीखां की शाही फौजों बनगड़ी के मोरचे में रुहेलों को हराकर सभी सरदारों को पकड़ लिया, फिर मुल्क से निकल जाने का बादशाही हुक्म हुआ। (पृ. 331) जहां लहरिया स्रोत के पानी से लश्कर का काम चला उसे "यार वफादार दल थम्मन साते" नाम दिया गया।
डबराल कुमाऊँ का इतिहास भाग 10 में लिखते हैं- "रोहिलों ने अल्मोड़ा के राजकोष से एक करोड़ रूपये, बहुमूल्य सामग्री तथा रत्न आभूषण लूटे थे। भारी संख्या में नर नारियों को बन्दी बनाया। टिहरी के अभिलेखागार रजिस्टर 4 के अनुसार बत्तीस हजार रूहेला सेना ने कुमाऊँ जीत कर "वासुलीसेरा" में मुख्य छावनी स्थापित की थी। 17000 कुमाऊँनी नरनारी बन्दी बने थे जो रुहेलखण्ड पहुंचाये गए। इसी समय अनूपसिंह तड़ागी ने सैकड़ो कुमाऊँनियों को एकत्र कर राजा के पास गैरमांडा में सहायता को भेजा था। रोहिलों को रामगंगा स्रोत प्रदेश (राठ) में घिरमुंडी थापले में रोक लिया गया था। पर 1743 दिसम्बर में दोनों राजाओं की सम्मिलित (सेना डुंगरी पर्वत से चलकर मेहल चौंरी मार्ग से चौखुटिया-द्वाराहाट तक तो निर्विरोध बढ़ी पर दूनागिरी से आगे कैड़ारो - बौरारो में हार गई थी। (पृ. 163)
एंटकिन्सन का यह कथन सही है कि गढ़नरेश ने रुहेलों को धन राशि कल्याण चन्द की ओर से स्वयं दी थी। कल्याणचन्द की ओर से उधार नहीं..... श्रीवास्तव के अनुसार रुहेला सरदार अलीमुहम्मद खां ने काशीपुरा, रूद्रपुर और कुमूं राज्य के दो दक्षिणी परगनों को अपने राज्य में जोड़कर कुमूं को करद राज्य बना दिया था। गुलिस्तां, हादिक, अब्दुल करीम, शाकिर और आनन्द राय ने रुहेला आक्रमण वर्णन में गढ़राज्य व मुर्तियों के विध्वंस का कहीं कोई उल्लेख नहीं हैं, अतः गढ़राज्य की टूटी फूटी प्रतिमाओं से रुहेलों का सम्बन्ध जोड़ना कठिन है। (पृ. 165) रामायण प्रदीप के अनुसार कमठ गिरिपति कल्याण चन्द का म्लेच्छों द्वारा उच्छिन्न किए जाने पर गढ़नरेश प्रदीप शाह ने बैरियों से बचाकर पुनः उस के राज्य आक्रमण अभियान, पड़ाव और कुछ व्यापार केन्द्र खान नामान्त स्थानों का प्रमाण दे रहे हैं।
अधिक जानकारी के लिए लिंक देखे।
1. कुमाऊँ लोकगाथा साहित्य में रुहेले
2. माल तराई याने कटेहर का संक्षिप्त इतिहास
3. रुहेलों का विशेष परिचय
4. कुमाऊँ के खान नामान्त स्थान रुहेला आधिपत्य के प्रतीक हैं
लेखक -डॉ. शिवप्रसाद नैथानी
संदर्भ - पुरवासी - 2009, श्री लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब), अल्मोड़ा, अंक : 30
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