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श्री देव सुमन | |
जन्म: | मई 25, 1916 |
जन्म स्थान: | जौल गांव, टिहरी |
पिता: | श्री हरिराम बड़ोनी |
माता: | श्रीमती तारा देवी |
पत्नी: | श्रीमती विनय लक्ष्मी सकलानी |
बच्चे: | - |
व्यवसाय: | स्वतंत्रता सेनानी |
शिक्षा: | - |
मृत्यु: | जुलाई 25, 1944 |
84 दिन लंबी भूख हड़ताल के शहीद श्री देव सुमन का टिहरी रियासत के बमुण्ड पट्टी के जौल गांव में 25 मई 1916 को हरिराम समाज सेवी के घर में जन्म हुआ। 1919 की हैजा महामारी में पिता चल बसे। टिहरी से मिडिल पास किया। 1932 में देहरादून में अध्यापक बने। 1936 में हिंदी साहित्य सम्मेलन से 'विशारद' किया।
1930 में गांधी जी के नमक सत्याग्रह में कूद पड़े। 'सुमन सौरव' एक राष्ट्रीय कविता संग्रह प्रकाशित किया। साप्ताहिक 'हिन्दू' समाचार पत्र का संपादन शुरू किया। 1937 में शिमला हिंदी साहित्य सम्मेलन के कार्यकारी अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 1938 में जवाहर लाल नेहरू पौड़ी आए। उनकी सभा में सुमन जी ने दोनों टिहरी गढ़वाल और पौड़ी गढ़वाल की अखण्डता पर जोर दिया। 1939 में टिहरी रियासत में प्रजामंडल (रियासतों में कांग्रेस, प्रजा मंडल के नाम से सक्रिय थी) की स्थापना के बाद सक्रिय सदस्य बने। 1938 में लैंसडौन से साप्ताहिक 'कर्मभूमि' का प्रकाशन शुरू हुआ। वे संपादक मंडल में थे। 1939 में हिमालय क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं का प्रांतीय सम्मेलन हुआ। जन समस्याओं पर प्रकाश डाला। 'गढ़ सेवा संघ' का नाम हिमालय सेवा संघ रखा। 1940 में दो बार टिहरी गए। जन सभाओं पर लगे प्रतिबंध को हटाने में प्रयासरत रहे। उनका प्रभाव विद्यार्थियों पर था। 1942 में सुमन जी को टिहरी में गिरफ्तार कर राज्य से निष्कासन का आदेश दिया। टिहरी प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया। 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो नारा बुलन्द करते हुए टिहरी को कूच किया। देव प्रयाग में गिरफ्तार कर देहरादून जेल में ठूंस दिया। वहाँ से आगरा जेल भेजा। नवम्बर में रिहा हुए। टिहरी राज्य के अत्याचारों के खिलाफ बोल उठे "मेरा कार्यक्षेत्र टिहरी है। वहीं कार्य करना तथा जनता के अधिकारों के लिए सामन्ती शासन के विरूद्ध लड़ना व मरना मेरा पुनीत कर्तव्य है। मैं जीवित रहते हुए जनता पर सामन्ती अत्याचार नहीं देख सकता।"
15 दिसम्बर 1943 को सुमन जी ने टिहरी रियासत के जनरल मिनिस्टर को पत्र लिखा। साक्षात्कार चाहा। 18 दिसम्बर को पुलिस अधिकारी ने टिहरी जाने की इजाजत दी। परन्तु नरेन्द्र नगर में एक पुलिस कर्मी ने बदतमीजी की। 27 दिसम्बर 1943 को जब टिहरी जा रहे थे, उन्हें रोका, टिहरी जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। उनके पत्र व्यवहार का कोई जवाब नहीं मिला।
30 दिसम्बर 1943 को टिहरी जेल में बंद कर दिया। उन पर अमानवीय जुल्म ढाए। पाँवों में 35 सेर की बेड़ियां डाल दीं। 21 फरवरी 1944 में सुमन जी पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। उन्हें टिहरी के बाहर से वकील बुलाने की इजाजत नहीं दी। सुमन जी ने स्वयं अपना केस लड़ा। उन्हें दो साल की सजा और 200 रुपया आर्थिक दंड दिया गया।
29 फरवरी 1945 को जेल कर्मचारियों के दुर्व्यहार के कारण अनशन शुरू किया। राज्य की ओर अच्छे व्यवहार के आश्वासन के बाद अनशन समाप्त किया। कुत्ते की दुम टेड़ी रही। कोई सुधार नहीं हुआ। सुमन जी पूरी तरह गांधीवादी थे। उन्हें टिहरी राजा की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला। मजबूर होकर 3 मई 1945 से ऐतिहासिक आमरण अनशन शुरू किया। उन पर जोर डाला गया। दूध पिलाने का प्रयास किया गया। झूठी प्रेस विज्ञप्ति जारी की गयी। 25 जुलाई 1944 को 84 दिन की लम्बी भूख हड़ताल के बाद सुमन जी की इह लीला समाप्त हो गई। 2000 रुपये के आर्थिक दंड वसूली के लिए जायजाद कुर्क करने का प्रयास किया गया। एक ‘सुमन जांच समिति' बिठायी गयी। उसने लीपा-पोती की। सुमन जी ने अमानवीय भयावह अत्याचारों के खिलाफ जबरदस्त जंग लड़ी। सुमन जी जैसे साहसी सत्याग्रहियों के बलिदानों से देश स्वतंत्र हुआ।
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