बद्री दत्त पाण्डे का जन्म कनखल, हरिद्वार में हुआ था। वह मूल रूप से अल्मोड़ा के सम्बन्ध रखते थे। एक महान क्रानितकारी, स्वाधीनता संग्राम के वीर योद्धा, सुलझे हुए उच्चकोटि के पत्रकार, निर्भीक सांसद, समाज सुधारक, निश्छल और निष्कपट व्यक्ति। उच्च आदर्शों के कारण 'कुर्मांचल केसरी' सम्मान से विभूषित।
करियर
पाण्डे जी की शिक्षा दीक्षा अल्मोड़ा से सम्पन्न हुई। सात साल की आयु में ही उनके माता पिता का निधन हो गया था और वह अल्मोड़ा में ही आकर रहने लगे और यहीं से उन्होंने स्कूली शिक्षा ग्रहण करी। बड़े भाई की मित्यु हो जाने के कारण बीच में ही इन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी। 1902 में सरगूजा राज्य (छोटा नागपुर) के महाराज के अस्थाई व्यक्तिगत सचिव नियुक्त हुए। स्वास्थ्य खराब होने के करण अल्मोड़ा लौट आए। 1903 में नैनीताल में अध्यापक हो गए। इसी वर्ष प्रणय सूत्र में बंधे। 1905 में देहरादून के मिलेट्री वर्कशाप में नौकरी लगने पर चकराता नियुक्त हुए। 1908 में नौकरी छोड़कर पत्रकारिता के क्षेत्र में उतरे।
1908 में पाण्डे जी इलाहाबाद से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक 'लीडर' के सहायक व्यवस्थापक और सहायक सम्पादक बने। 1910 में देहरादून चले आए और वहाँ से प्रकाशित होने वाले 'कास्मोपोलिटन' अखबार में काम करने लगे। 1913 में वे अल्मोड़ा लौट आए और 'अल्मोड़ा अखबार' के संपादक बने। इस अखबार से वह स्वंतंत्रता आंदोलन में जन भावना की आवाज बुलंद करते थे और इसी से नाराज होकर ब्रिटिश प्रसाशन उनके अखबार के प्रकाशन पर रोक लगा दी थी। 1918 में यह अखगार बन्द हो गया। इसी वर्ष विजयदशमी के दिन अल्मोड़ा से ही 'शक्ति' साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। अल्मोड़ा अखबार को उन्होंने साप्तहिक अख़बार शक्ति में परिवर्तित कर दिया जो आज भी प्रकाशित होता है। पाण्डे जी की लेखनी बड़ी पैनी होती थी जो अंग्रेजी राज की छाती पर कील की माफिक चुभती थी।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
1916 में कुमाऊँ परिषद की स्थापना हुई। परिषद का उद्देश्य कुमाऊँ में व्याप्त सामाजिक अभिशाप कुली उतार, कुली बेगार, कूली बर्दायश को समाप्त करना था। पाण्डे जी ने इस सामाजिक कलंक को समाप्त करने में सर्वाधिक कार्य किया। इन कुप्रथाओं के उन्मूलन में सफल नेतृत्व के लिए पाण्डे जी को कुर्मांचल केसरी की उपाधि से विभूषित और दो स्वर्ण पदकों से पुरस्कृत किया गया। इन्होने 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के समय उक्त स्वर्णपदक राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दान कर दिये थे।
1921 से 1932 के बीच वह डेढ़ साल जेल की सजा तीन मौको पर खा चुके थे और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्होंने देश के लिए जेल जाना स्वीकार किया परन्तु ब्रिटिश दमनकारो के सामने कभी घुटने नहीं टेके। जेल प्रवास में ही पाण्डेजी ने ‘कुमाऊँ का इतिहास’ लिखा।
राजनीतिक जीवन
आज़ादी के उपरान्त भी उन्होंने सामाजिक कार्यो में सक्रियता बनाई रखी। 1957 में लोकसभा उपचुनाव में उन्हें कांग्रेस पार्टी ने टिकट दिया और वह भारी मतों से विजयी रहे। वह बेहत बेबाक और यथार्थवादी शख्ससियत के राजनेता थे। उन्होंने कभी भी कोई स्वंतंत्रता सेनानी पेंशन नहीं ली। कहा जाता है, पण्डित गोविन्द बल्लभ प्न्त पाण्डे जा को अपना राजनैतिक गुरू मानते थे। र्स्वगीय श्री भक्त दर्शन जी के शब्दों में "बद्रीदत्त पाण्डे जी वास्तविक अर्थों में समस्त कुमाऊँ प्रदेश के नर-केसरी थे"। इनके उग्र राष्ट्रीय विचारों के देखकर अंग्रेज इन्हें ‘राजनैतिक जानवर’ कहते थे।
मृत्यु
13 फरवरी 1965 में लम्बी बीमारी के बाद पंडित बद्री दत्त पाण्डेय का स्वर्गवास हो गया।
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