पाताल भुवनेश्वर (गंगोलीहाट) प्रकृति की अनुपम छटाओं के बीच उत्तराखण्ड का अलौकिक सांस्कृतिक स्थल पाताल भुवनेश्वर है, जहां देवताओं का वास माना जाता है। इसकी चारों सीमाओं का रोचक दृश्य, शैल दारूका वन पश्चिम और पूर्व में भृगतुंग की पहाड़ी, उत्तर में स्वच्छ हिमालय और दक्षिण में मां काली का दरबार। ऐसा महसूस किया जाता है कि यह स्थान प्रकृति की अनुपम साधना स्थली है।
इस स्थान की खोज राजा रितुपर्ण सूर्यवंशी नरेश के द्वारा की गयी बताते हैं, जिसकी दन्त कहानी है। कि रितुपर्ण राजा हिमालय की पहाड़ियों पर शिकार खेलने हेतु अपनी राजधानी से निकले घूमते-घूमते शैल दारूका वन पहुंचे। यहां उन्होंने एक सुन्दर हिरन को देखा। राजा के साथ आये हुए शिकारियों ने राजा से शर्त रखी कि हिरन को घेर लिया जाय, जिस की तरफ से हिरन निकलेगा उसको सजा दी जायेगी। एकाएक हिरन राजा की तरफ से भाग निकला। इस प्रकार राजा शर्मिन्दा होते हुए हिरन का पीछा करते हुए घने जंगलों के बीच होकर वर्तमान पाताल भुवनेश्वर स्थली पहुँचे। यहां पर कोई आबादी नहीं थी। घोर कंटीली झाड़ियों के बीच इस घिरे हुए स्थान पर उन्हें कुछ नहीं दिखाई दिया। राजा ने अपने साथियों से प्रण किया कि जब तक हिरन बाहर नहीं निकलेगा तब तक यहां से नहीं जायेंगे। रात को सब लोगों के सो जाने के बाद राजा स्वप्न आया कि मेरा पीछा मत करो मैं हिरन नहीं हूं। मेरा रूप जानना तुम्हारे बस की बात नहीं है। परन्तु राजा ने प्रत्युत्तर में यह उत्तर दिया कि हे आतिथ्ये! आप जो भी हैं, मैं आपके दर्शन करना चाहता हैं, उसी आवाज में पुन: कहा गया कि हे राजन! इस स्थान के रक्षक क्षेत्रपाल जी हैं। जिसकी छ: महीने की तपस्या करने के बाद क्षेत्रपाल ने खुश होकर कहा हे राजन! इस स्थान में एक अद्वितीय गुफा है, जहाँ भगवान शंकर निवास करते हैं। गुफा के अन्दर वहाँ के रक्षक शेषनाग जी हैं जिसकी आपको छ:महीने तपस्या करनी पड़ेगी। राजा ने विनम्र होकर कहा हे साथियो ! मेरी छ: महीने की तपस्या में तुम मेरा इंतजार करो क्योंकि मैं पाताल लोक जा रहा हूँ। क्षेत्रपाल जी राजा को शेषनाग के पास ले गये। राजा ने छ: महीने की तपस्या की जिससे शेषनाग जी खुश होकर प्रकट हुए और राजा को फन में बैठाकर तैतीस (33) करोड़ देवताओं के दर्शन करवाये। दिव्य दर्शन के बाद राजा को मन वांछित वर प्राप्त हुए और बहुत से हीरे, जवाहरात, मणियाँ राजा को प्राप्त हुई। विदाई के बाद शेष नाग जी ने राजा से कहा कि हे राजन! इस रहस्य को मरण काल तक किसी को नहीं बताना। जिस समय इस रहस्य को बताओगे उसी समय तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी। जब राजा बहुत दिनों के बाद अपनी राजधानी पहुंचा तथा साथ में हीरे, जवाहरात, मणियाँ भी लाये, जिन्हें देखकर रानी बहुत खुश हुई। जब राजा ने गणों की विदाई की तो रानी ने इतने लम्बे समय का रहस्य व गणों के विषय में राजा से पूछा कि ये कहाँ के हैं और आप इतनी दौलत मणि जवाहरात कहाँ से प्राप्त करके लाये हैं, मुझे भी बताइये। राजा ने कहा इतनी जल्दी क्या है, धीरे-धीरे सब मालूम हो जायेगा। इस प्रकार रानी प्रतिदिन उसी प्रश्न को लेकर राजा को परेशान करने लगी। लगभग एक माह बाद राजा रानी को बताने को मजबूर हो गये कि हे रानी! इस रहस्य को जानना तुम्हारे हित में नहीं है। अगर में इस विषय में तुम्हें जानकारी दें तो मेरी मौत हो जायेगी। रानी ने हठ पूर्वक कहा राजन! भले ही कुछ भी हो जाय मुझे इस रहस्य को बता ही दीजिए। राजा विवश हो बोले। तो सुनो उत्तराखण्ड में शैल दारूक वन तथा भगतंग के बीच समकक्ष हिमालय कैलाश धाम के मध्य स्थल पाताल भुवनेश्वर नाम की एक विशाल गुफा है, जिसके चारों ओर वन देवदार का जगल ऐरे की झाड़ियों के बीच बसा हुआ है। इस गुफा के अन्दर भगवान शंकर 33 करोड़ देवताओं के साथ बसे हुए हैं। मैं शिकार खेलने वहाँ गया था वहीं मुझे उनके दर्शन हुए। इतना कहते ही राजा की मौत हो गयी। रानी ने अन्तेष्टि क्रिया करने के बाद इस स्थान की खोज के लिए अपने लड़के के साथ प्रस्थान किया। बहुत दिनों बाद वह इस स्थान पर पहुँचे। यहाँ कई दिनों बाद उन्हें गुफा का प्रवेश द्वार मिला जिसके अन्दर जाना असम्भव था। उन्होंने लम्बे समय तक वहाँ रूककर गुफा के अन्दर जाने के लिए सीढ़ियाँ लगवा दीं। अन्दर जाने के बाद उनको खाली प्रतिमूर्तियाँ दिखाई दी। रानी ने यहाँ से लौटने के बाद इस का उल्लेख ग्रन्थों में किया जिसका मानसखण्ड तथा मनुस्मृति में उल्लेख है।
चौलवंश के बाद कत्यूरी व द्वितीय चन्द राजाओं ने स्थानीय शासन काल में इसकी पुन: खोज की और इस स्थान पर वृत भुवनेश्वर के शिवजी तथा चण्डीका का एक मंदिर बनाया जिसमें कई पत्थरों की मूर्तियाँ दिव्यमान की गयीं। राजाओं ने यहाँ की व्यवस्था हेतु काशी बनारस के भण्डारी बसाये जिनके निम्न सहायक व्यक्ति रखे गये -
1. रावल - इनका काम मंदिर की चौकीदारी व देखभाल करना था।
2. दँशौनी - इनका काम आने वाले यात्रियों को मार्गदर्शन करवाना था।
3. गुरो - इनका काम प्रकाश व व्यवस्था करना था।
4. देयोया - इनका काम मंदिर की सफाई और चौका बर्तन ठीक करना था।
5. भूल - इनका काम मंदिर में भोग लगाते वक्त नौमती लगाना तथा भोग के लिए लकड़ी देना होता था।
सर्वप्रथम इस स्थान पर पहुँचने पर देवदार के के वक्षों निचले भाग में गांव के बीच में दो मंदिर हिमालय के मुकुट की तरह हैं जो वृत भुवनेश्वर के नाम से विख्या है। मंदिर भगवान शंकर का दूसर पहला मंदिर चण्डिका देवी का है। बीच में हनुमान जी की मूर्ति है। यहाँ से गुफा एक फलाँग दूरी पर स्थित है। गुफा में जाने की व्यवस्था पुजारियों द्वारा की जाती है। दिखाने के लिए प्रकाश की व्यवस्था की जाती है। गुफा के प्रवेश द्वार में क्षेत्रपाल की मूर्ति स्थित है। द्वार से निकलकर मैदान तक सीढ़ियां लगी हैं, इन सीढ़ियों के बीच भगवान नरसिंह का पुटलिंग है। यहाँ पर से पाताल जाने का आदेश माँगा जाता है। सीढ़ियों से उतरने के बाद चौडे मैदान की शुरूआत होती है। सीढ़ी के बांयी तरफ शेषनाग का फन बना हुआ है, जो बहुत ही रोचक है। सीढ़ी के ठीक दांयी ओर ऐरावत हाथी के सूंड तथा पाँव, उसी के दायी ओर गुरु गोरखनाथ की धूनी जो सफेद रंग में बनी है। यहाँ से बांई ओर आगे बढ़कर नाग दीवार में लटकी आकृति में विद्यमान हैं। उसी की ठीक सिधाई में जमीन में यज्ञ कुण्ड बना हुआ है, जिसकी दन्त कहावत है। कि जब राजा लोग सोने-चाँदी से इसे भरकर, साधारण लोग चावल से भरकर दान करते हैं तो उनकी मनोवांछित कामना पूरी होती है। इसके आगे बढ़ने से मैदान में शेषनाग के सामने से होते हुए गणेश जी का पुटलिंग ऊपर से कमल का फूल जिससे बारी-बारी से पानी टपकता है। गणेश के दांयी तरफ बद्रीनाथ, केदारनाथ, अमरनाथ के पुटलिंग हैं और ऊपर से जटायें बनी हैं। उसी के आगे बहुत बड़े चिकने पत्थर के ऊपर काल भैरव की जीभ है। मुंह के रास्ते से ब्रह्म काण्डी के लिए रास्ता है। जो मनुष्य इस द्वार से प्रवेश करें उसे पुनर्जन्म की प्राप्ति होगी। उसी के बगल में गुरु गोरखनाथ की शैली तथा कम्बल रखा हुआ है। यहाँ से गुफा के दो खण्ड हो जाते हैं। निचले वाले रास्ते से दक्षिण तरफ दीवार में पाताल चण्डी स्थित है। इसके आगे चार द्वार हैं जो इस प्रकार से हैं।
1. रण द्वार, 2. पास द्वार, 3. धर्म द्वार, 4. मोक्ष द्वार।
ऊपर वाले रास्ते से एक बहुत बड़े मंच के ऊपर चार पुटलिंग हैं जिनके नाम इस प्रकार से हैं।
1. सत्ययुग, 2. द्वापर, 3. त्रेता, 4. कलयुग।
कलयुग का लिंग अन्य लिंगों से काफी बड़ा है। कहावत है कि जब कलयुग का अन्तिम चरण होगा तो यह लिंग अपनी ऊपर वाली नोक से मिल जायेगा और प्रलय हो जायेगा।
यहाँ से सेतुबन्धु रामेश्वर के लिए मार्ग बतलाया गया है। इसके ठीक ऊपर से ऐरावत हाथी का अम्बर तथा पंच वाटिका स्थित है। साथ ही जटायु की चोंच बनी है। यहाँ से आगे चौड़ा मैदान फैला है। बांई तरफ ठीक ऊपर पहाड़ी पर भीमसेन जी की गदा दिव्यमान है। जब शिवजी तपस्या कर रहे थे तो भीमसेन जी ने पाताल से गदा मार दी, तो शिवजी ने उसे अपने स्तम्भ से पाताल में ही रोक लिया। यहाँ पर से बांई तरफ की ओर कदली वन के लिए कपाट स्थित हैं। ठीक उसी के ऊपर स्थित कामधेनु गाय के दांयी ओर आगे बढ़कर ब्रह्मकमल स्थित है। यहाँ पर बहुत ऊंचाई से कामधेनु गाय के थनों से दूध की धारा ब्रह्मकमल में गिरती है। आगे चलकर दांयी ओर जाते हुए, दीवार पर उदक कुण्ड तथा पहरेदार गरूड़ की विशाल प्राकृतिक मूर्ति बनी है। इस कुण्ड पर पानी बिना आज्ञा के नहीं पिया जाता। कहा जाता है कि इस कुण्ड में अक्सर सांप पानी पिया करते थे जिनके लिये गरूड़ पहरेदार रखा गया। एक बार गरूड़ खुद पानी पीने लगा तो शिवजी ने उसके मुंह में थप्पड़ मार कर उसे उल्टा रखा। इसके आगे बढ़कर विशाल शंकर की जटायें और उनसे बहती श्वेत गंगा। नीचे से 33 करोड़ देवी देवता तथा साथ में विश्वकर्मा द्वारा निर्मित नौला है। यादगार के रूप में विश्वकर्मा जी का हाथ बना हुआ है। नौले पर पानी 24 घण्टे हर समय भरा रहता है। यहां पर नये वस्त्र से स्नान किया जाता है। यह सब देखकर मानव क्षण मात्र के लिए ईश्वराधीन होकर मुग्ध हो जाता है। जटाओं के बगल में द्वारमण्डल स्थित है। यहाँ से आगे बढ़कर शिवशंकर की बाहर से रखी मूर्ति है। उसके ठीक आगे शिवसावृत है, जिसके पुटलिंग त्रिमुखी हैं जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु व शंकर के नाम से जाना जाता है। ठीक ऊपर से तीन जटायें बनी हैं जिनसे ब्रह्मा, विष्णु, शंकर पर बारीबारी से पानी टपकता है। यहाँ पर विधिवत् पूजा की जाती है। शक्ति के पास गणेश तथा द्वार पालों की मूर्तियॉं रखी गयी हैं तथा अन्तिम छोर पर पाण्डवों के प्रतीक रूप बने हैं।
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