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जागेश्वर | |
स्थापना: | 7 वीं से 18 वीं शताब्दी |
विकाशखंड: | भनोली, धौलादेवी |
जिला: | अल्मोड़ा |
स्थापित: | कत्यूरिओं द्वार |
समुद्र तल ऊंचाई: | 1870 मीटर |
प्राथमिक देवता: | शिव |
उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र में बसा अल्मोड़ा शहर से 35 किमी. पूरब में स्थित जागेश्वर धाम शिव की भूमि के रूप में विख्यात है। समुद्र तल से 1870 मी० की ऊँचाई पर स्थित देवदारों के घने जंगलों से घिरे जागेश्वर धाम बेहद निर्मल वातावरण और अधिक ठण्ड वाला क्षेत्र है। जटागंगा नदी के तट पर स्थित जागेश्वर धाम कुल 124 छोटे बड़े मंदिरों का समूह है। नागर शैली से बने जागेश्वर धाम का निर्माण 7वीं से 18वीं शदी के मध्य बना माना जाता है
पृथ्वी लोक पर सर्वप्रथम जागेश्वर के पवित्र पावन स्थान पर शिव के पतित होने के कारण इसे प्रथम ज्योतिर्लिंग कहा जाता है
अर्थात :- बर्फ से ढके पहाड़ियो के उत्तर में, देवदारों के घने जंगलो से घिरा ये स्थान शिव की पवित्र भूमि है। जहां उन्हें हर जगह पूजा जाता है
पौराणिक मान्यता
शिव के 12 ज्योर्तिलिंगों में से 8 वां ज्योर्तिलिंग जागेश्वर को माना गया है। यह भी माना गया है कि शिवलिंग की पूजा की शुरूआत यहीं से हुई और इसके पश्चात ही सारे संसार में शिवलिंग को पूजा जाने लगा। स्कन्द पुराण मानस खण्ड के अनुसार दक्ष प्रजापति ने अपने गृह में एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया और अपने समस्त परिवारजनों व परिचतों को निमंत्रण भेजा। इस यज्ञ में दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री सती व दामाद शिव को नहीं बुलाया। बिना बुलाए सती अपने पितगृह पहुँच गयी। वहाँ अपने पिता व सगे सम्बन्धी के तिरस्कार से क्षुब्ध हो सती ने यज्ञ का विध्वंश कर उसी यज्ञकुण्ड में आत्मदाह कर लिया। सती के आत्मदाह से दुःखी शिव ने सती की भस्म को अपने सम्पूर्ण शरीर पर मलकर वैराग्य में यहाँ वहाँ भटकना शुरू कर दिया। सती की मृत्यु के अत्यधिक व्यथित शिव वर्षों तक समाधि में लीन रहते तो कभी दिगम्बन अवस्था में नृत्य करने लगते।
भूलोक के अनेक भागों का भम्रण करते हुए शिव दारूकावन (जागेश्वर) क्षेत्र में पहुँचे और वही तपस्या करने लगे। यहीं के वन में सप्त ऋषि (कश्यप ऋषि, वशिष्ठ ऋषि, विश्वामित्र ऋषि, अत्रि ऋषि, गौतम ऋषि, भारद्वाज ऋषि, जमदग्नि ऋषि) भी रहा करते थें। एक बार जब ऋषियों की पत्नियां वन में कंदमूल, जल और लकड़िया लेने आई तो उन्होने एक स्थान में शिव को तप करते देखा। शिव की छवि को देखकर वे सभी स्त्रियां मोहित हो गई और शिव के तेज में वे सभी वहीं बेहोश हो गई। रात भर जब ऋषियों की पत्नियां घर नहीं लौटी तो ऋषि उन्हे ढूंढने वन की तरफ गयें। वहां उन्होने देखा कि सभी स्त्रियां शिव के सामने बेहोश पड़ी है, ऋषियों ने बिना कुछ सोचे समझे शिव को श्राप दे दिया कि तुमने हमारी स्त्रियों के साथ व्यभिचार किया है अतः तुम्हारा लिंग तुम्हारे शरीर से विभक्त हो पृथ्वी पर गिर जाये।
सप्त ऋषियों के श्राप से लिंग पृथ्वी पर गिरते ही अग्नि प्रज्वलित हो गई और पृथ्वी माता ने भगवान विष्णु से लिंग का भार धारण करने में असमर्थता व्यक्त की। सभी ओर त्रहिमाम-त्रहिमाम की पुकार मच गई। ऐसे में ब्रहमा के कहने पर सभी ऋषियों ने पार्वती का आहवान कर उस लिंग को धारण करने का आग्रह किया। माँ पार्वती ने प्रार्थना स्वीकार की और योनि के रूप में शिव लिंग को धारण किया। तभी से सनातन धर्म में लिंग योनि की पूजा का विधान प्रारम्भ हुआ और माँ पार्वती जगत जननी कहलाई और भगवान शिव के तेज रूप के कारण ज्योति रूपी लिंग को ज्योतिलिंग कहा जाने लगा।
भगवान श्री हरि विष्णु ने महादेव की आज्ञा पाकर लिंग को अपने चक्र से विभक्त कर दिया जिसके 12 टुकड़े पथ्वी पर अलग-अलग स्थानों पर गिरे। यही लिंग स्वयं भू लिंग के रूप में जाने जाते हैं
पुरातात्विक स्रोत
कम्यूरी चंदवंशी नरेशों ने पूर्वी उत्तर काल में जागेश्वर मन्दिर में पाठ की व्यवस्था के लिए लगभग 125 गाँव मन्दिर की व्यवस्था के लिए भोजन सामग्री, धुप, दीप आदि के चढ़ाये। जागेश्वर मन्दिर में दीप चंद, पवन चंद, त्रिपन चंद राजाओं की अष्ठ धातु की मूर्तियाँ थी। वर्तमान समय में केवल दीपचंद और पवन चंद की मूर्तियाँ है राजा दीपचंद हाथों में दीपक लेकर खड़े हैं व उनके बगल में राजा पवन चंद है जो हाथ में पूजा के लिए चम्मच लिए हुए है। जागेश्वर मन्दिर के मुख्य द्वार पर भगवान जागेश्वर के दो द्वारपाल नन्दी व स्कंदी अपने अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित खड़े हैं। प्रवेश करने पर गणेश जी की प्रतिमा है जो प्रथम पूजित है।
जागेश्वर ज्योतिर्लिग की स्वयं भू लिंग के साथ एक विशेषता यह भी है कि एक लिंग दो भागों में विभक्त है बड़ा भाग देवादि देव शिव और छोटा वाम भाग आदि शक्ति माँ पार्वती का है। यह लिंग अर्द्धनारीश्वर रूप में है। यहाँ शिव बाल रूप में विराजमान है इसलिए कुमाँऊ में जागेश्वर को बाल जागेश्वर भी कहा जाता है।
आठवीं शताब्दी में आदि गुरू शंकराचार्य जागेश्वर आये तब उनके साथ एक दक्षिण भारतीय भट्ट ब्राह्मण कुमार स्वामी भी आए थे। इन्हें दक्षिण में नम्बूदरी ब्राह्मण कहा जाता है। शंकराचार्य ने जागेश्वर की पूजा पाठ की जिम्मेदारी इसी विद्वान युवा ब्राह्मण को सौंपी, जो उनका शिष्य था। इस ब्राह्मण ने जागेश्वर की स्थानीय बालिका से विवाह किया। इनकी ही संताने आज पीढ़ी दर पीढ़ी करीब आज भी पूजा पाठ का कार्य संभाल रही है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार मृत्युंजय मन्दिर आठवीं शदी के उत्तरार्द्ध में बना यह मन्दिर नागर शैली के रेखा शिखर युक्त है। उस समय रेखा शिखर युक्त देवालयों का बहुत कम प्रचलन था। कुमाँऊ क्षेत्र में रेखा शिखर के आधा दर्जन ही देवालय प्राप्त हुए है।
मन्दिर समूह
यहां सुबह और शाम दो बार महाआरती होती है। मंदिर परिसर में कई साल पुराने देवदार के दो पेड़ आपस में शाखाओं से जुड़े हुए हैं। इसे भगवान शिव व देवी पार्वती का अर्ध नारीश्वर रूप माना जाता है। सावन माह में यहां मेले का आयोजन भी होता है। जिसमें पार्थिव पूजा करने श्रद्धालु भारी संख्या में आते हैं। जगेश्वर मन्दिन में सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग मन्दिर में सम्पूर्ण विधि विधान से पूजा की जाती है। तत्पश्चात श्री हनुमान जी, नीलकंठ, पुष्टि माता, श्री मुत्युंजय पूजा उपरान्त लकुलीश, केदारनाथ, नव दुर्गा का पूजन कर पुनः ज्योतिर्लिंग महादेव को प्रणाम कर बटुक भैरव मन्दिर को जाते हैं। यहीं से कुछ दूरी पर एरावत गुफा है, कहा जाता है कि स्वर्ग से एरावत हाथी यहीं पर उतरा था।
महात्युंजय मन्दिर
पुराण के अनुसार यहाँ मारकण्डेय भगवान ने मृत्युंजय का जाप किया था। यहां मांगी गई अच्छी या बुरी सभी मन्नतें पूरी हो जाती थीं । लेकिन आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंज शिवलिंग को मंत्रों से कीलित कर के इस के दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। तभी से यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएं पूरी नहीं होती। मृत्युंजय मन्दिर के द्वार पर भगवान के वाहन वलीवर्द की पत्थर की प्रतिमायें है। मन्दिर के अन्दर मनभावन विशाल व सौन्दर्य से पूर्ण मृत्युंजय का लिंग शोभायमान है।
केदार नाथ मन्दिर
जागेश्वर मन्दिर के पीछे केदारनाथ मन्दिर है। यह शिव का दक्षिणमुखी मन्दिर है। केदारनाथ को पशुपतिनाथ (नेपाल) का अंश कहा जाता है।
पुष्टि माता मन्दिर
जागेश्वर स्थित पुष्टि माता का मंदिर को आदि शक्ति के 52 शक्ति पीठों में एक माना जाता है। यहाँ आदि शक्ति की ऊँगली गिरी है। पुराणों के अनुसार पुष्टि माता दिन में तीन बार अपना विग्रह रूप बदलती हैं। इस मन्दिर में एक प्राचीन चामुण्डा यंत्र, गज लक्ष्मी व सिद्ध विनायक गणेश की दुर्लभ मूर्ति है। पुष्टि माता की मुर्ति बहुत ही मनोहारी है।
हनुमान मन्दिर
यहाँ स्थित हनुमान मंदिर में हनुमान जी का मुख दक्षिण को है दक्षिणमुखी मूर्ति बहुत कम होती है।
नवग्रह मन्दिर
यहाँ नौ ग्रहों की पूजा की जाती है। लेकिन इन नव ग्रहों की मूर्ति पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में है।
सूर्य मन्दिर
मन्दिर में सूर्य देवता की मूर्ति नहीं है। सात अश्वों पर आसीन सूर्य देवता की मूर्ति जागेश्वर संग्रहालय में है।
अन्नपूर्णा मन्दिर
अन्नपूर्णा की कृपा से ही अन्न भोजन प्राप्त होता है। मन्दिर में अन्नपूर्णा देवी की मूर्ति नहीं है।
नीलकण्ठ
समुद्र मंथन के समय निकले विष का पान करने के कारण शिव नीलकण्ठ कहलाये।
रेतपुरी
रेतपुरी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि तमिलनाडु से एक महान संत यहा आए थे और तपस्या करी। उनकी तपस्या से प्रसन्न देव जागेश्वर ने उन्हें दर्शन दिये। रेतपुरी बाबा ने कई वर्षों जागेश्वर मन्दिर में धूनी रमाकर तपस्या की। रेतपूरी बाबा अचानक कहीं चले गये लेकिन कुछ लोगों का मत है कि उन्होंने जल समाधि ले ली। रेतपूरी बाबा जागेश्वर की प्रसादी लेने हेतु धाया रूप में आते थे इसलिए जागेश्वर के पुजारियों ने रेतपुरी बाबा का जागेश्वर परिसर में एक स्थान बना दिया और अन्य मन्दिरों के साथ ही बाबा को भोग लगने का नियम आज भी कायम है।
वृद्ध जागेश्वर
जागेश्वर से 5 किमी0 ऊपर पहाड़ी पर वृद्ध जागेश्वर स्थित है। घने जंगलों के बीच बसा वृद्ध जागेश्वर प्राकृतिक नजारों व जीव जंतुओं से घिरा बेहद निर्मल वातावरण वाला स्थान है। यहां से हिमालय की विशाल श्रृंखला का नजारा काफी खूबसूरत दिखता है । गढ़वाल हिमालय से लेकर नेपाल क्षेत्र तक के हिमालय दृश्य की खूबसूरती देखते ही बनती है। जाड़ो मे यहां अधिक मात्रा में हिमपात भी होता है।
पौराणिक मान्यता कहा जाता है कि जागेश्वर से पहले भगवान शिव का निवास स्थान यही था। एक किंवदंती के अनुसार एक बार लड़ाई को जाते वक्त चन्द राजा ने देखा कि गाय के दूध की धार एक पत्थर पर गिर रही थी गौर से देखने पर पता चला कि वह शिवलिंग था। राजा ने उसी वक्त उस शिवलिंग की पूजा की और युद्ध जीतने पर यहां मंदिर बनाने की घोषणा की।
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