गौरीदत्त पाण्डे (गौर्दा) कुमाऊॅंनी के राष्ट्रवादी विचारधारा के संवाहक कवि थे। सुमित्रानन्दन पंत गौर्दा को पहाड़ी भाषा के संगीत तथा व्यंजना शक्ति का कुशल पारखी मानते हैं। उनके अनुसार पहाड़ी भाषा की स्व्र संगति उसके सरस प्रवाह, उसके मुहावरों तथा सूक्ष्म व्यंजनात्मक शब्द चयन पर जो सिद्धि गौर्दा को प्राप्त थी वह मुझे अन्यत्र देखने को नहीं मिली।
गौर्दा अल्मोड़ा जनपद के पटिया ग्राम के निवासी थे तथा वैद्यकी इनका पैतृक व्यवसाय था। बरेली तथा अल्मोड़ा से शिक्षा प्राप्त कर प्रारम्भ में जंगलात में नौकरी की फिर पैतृक व्यवसाय को अपना लिया। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। काव्य सृजन के अतिरिक्त गायन-वादन, रामलीला आयोजन कराना उन्हें प्रिय था।
गाॅंधी जी से प्रभावित होकर उन्होंने अपने काव्य सृजन को राष्ट्रवादी रंग में रंग लिया। गौर्दा सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वास, छूआ-छूत आदि से व्यथित थे व इनका विरोध करते थे। 1921 में कुमाऊॅं के सफल कुली बेगार आन्दोलन का समर्थन करने के कारण अंग्रेजी सरकार ने उन्हें बन्दी बना लिया। सन् 1934 में अल्मोड़ा की जनता ने उन्हें एक सोने का पदक प्रदान किया जिसमें उन्हें कुमाऊॅंनी भाषा का महान कवि लिखा गया था। गौरीदत्त पाण्डे की कविताओं का संग्रह गौरी गुटका के नाम से विख्यात है राष्ट्रीय चेतना की जागृति हेतु उन्होंने हमरो कुमाऊॅ, हम छौं कुमइयाॅं नामक जातीय गीत लिखा।
गांधी जी द्वारा असहयोग आन्दोलन चलाया गया तो गौरीदत्त पाण्डे (गौर्दा) ने अपने गीतों से कुमाऊॅं वासियों को ललकारा तथा जागृत किया कि बाहर से आये अंग्रजों ने हमारा सब कुछ छीन लिया है और तुम चैन से सोये हो।
"लोगन पकड़ी जेल पुजुनी डंडन को भरमार,
छातिन में पिस्तौल अडूनी गरदन में तलवार,
अन्यायी राज में न्याय नि मिलनो,
मारन नि दिया डाड़,
मुलुक हमारो ठगि खायो, ठगणा रूप हजार"।
स्वराज्य प्राप्ति के संकल्प में गौर्दा पूर्णतः स्वदेशी हो गये थे वे कफ़न, सुई, तागा, बटन, मशीन सभी स्वदेशी चाहते थे। राष्ट्रीय आन्दोलन में उन्होंने लोगों को तिरंगा फहराने के लिए प्रोत्साहित किया, चरखे का प्रयोग करने पर बल दिया क्योंकि वही भारत का रक्षक है।
कुमाऊॅंनी कवि गौर्दा ने कहीं जनता से गाॅंधी जी का अनुयायी बनने की तो कहीं-कहीं कुली उतार आन्दोलन के दौरान बेगार न देने की उनकी कविता में "कुली उतार न देना चाहे डन्डों की मार पड़े" यह बात कही गयी। सन् 1920-21 ई. में पूरा उत्तराखण्ड राष्ट्रीय असहयोग आन्दोलन के साथ उथल-पुथल की प्रतिध्वनियों से गुंजायमान हो रहा था। विद्यार्थी शिक्षण संस्थाओं का जिनमें अंग्रेजी भाषा में शिक्षा दी जाती थी बहिष्कार कर रहे थे। तथा कुछ देशभक्त सरकारी नौकरियों से इस्तीफा दे रहे थे। स्थान-स्थान पर हड़तालें हुईं, जूलूस हुए, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार हुआ। सर्वत्र वन्दे मातरम् की गूंज सुनायी दे रही थी। इस वातावरण में कुमाऊॅंनी कवि गौर्दा कवि का राष्ट्रीय धर्म निभाते हुए उत्साहित होकर लिखते है "छिनि न सकैनि कभै सरकार वन्देमातरम् हम गरीबन को छौ यो हार वन्देमातरम्", खद्दर की लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ने लगी, सूत तथा ऊन के कताई केन्द्र बढ़े, महिलाए इस कार्य में आगे आयी रौलेट एक्ट तथा जलियाॅंवाला बाग हत्याकांड के परवर्ती वर्ष उत्तराखण्ड में भी राजनैतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक उथल-पुथल के वर्ष थे। सभी ओर राष्ट्रवादी चेतना का प्रसार जनमानस को क्रियाशील होने के लिये आन्दोलित कर रही थी। आ गया है कर्म युग कुछ कर्म सीख लो, की ध्वनियाॅं यत्र-तत्र गूॅंज रही थी। कवि गौर्दा के गीत आन्दोलनों को गति देने का मूक कार्य कर रहे थे।
राष्ट्रीय एकता तथा विभिन्न आन्दोलनों में स्वदेशी के पुजारी गौर्दा संकुचित सोच रखने वाले ब्राह्मण नहीे थे। औपनिवेशक काल में उत्तराखण्ड जाति-पाति के आडम्बरों से मुक्त नहीं था। सामाजिक कुरीतियां समाज में गहरे घर बनाई हुई थी जिनसे बाहर निकलना कठिन था और जो निकलने का प्रयास करता उसे अपने ही समाज में संघर्ष करना पड़ता था। गौर्दा ने इन सब की परवाह नहीं की तथा बेधड़क अपनी कविताओं से समाज के बाह्य आडम्बरों पर चोट की तथा स्थानीय व राष्ट्रीय आन्दोलन जो उत्तराखण्ड में धीरे-धीरे पनप रहे थे में अपना पूर्ण सहयोग दिया।
औपनिवेशक पर्वतीय क्षेत्र में गाॅंधी जी के आन्दोलन से सुगबुगाहट तो थी जो हिंसा की ओर भी प्रेरित हो सकते थे गौर्दा ने गाॅंधी जी के द्वारा निर्देशित शान्तिपूर्ण उपायों से औपनिवेशक शासन के प्रति रोष जागृत किया, ग्रामीण जीवन में सुधार लाने का प्रयास किया। स्वदेशी वस्त्रों को अपनाने, स्वदेशी उद्योग जैसे, सूत कातना, खादी वस्त्र बनाना आदि की प्रेरणा अपने गीतों के माध्यम से गौर्दा ने कुमाऊॅं वासियों को दी। कुमाऊॅं वासियों को उनका सुनहरा अतीत याद दिलाकर उन्हें एक होकर प्रतिरोध करने हेतु प्रोत्साहित किया।
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