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    रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी'

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    श्री रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' उस जमाने के पहाड़ी हैं जब पहाड़ी कहलाना एक गालो समझा जाता था और जब हिन्दी में पहाड़ों के बारे में लिखना-लिखाना होता ही नहीं था। वे उस जमाने के पहाड़ी हैं जब पहाड़ों के बारे में आंचलिक कहानी-उपन्यास लिखने की शुरूआत तक न हुई थी। उन्होंने हिन्दी कथा साहित्य को एक नई विषयवस्तु ही नहीं दो, वरन् उसमें अपनी विशिष्टताओं के कारण अपने लिए एक नई जगह भी बनाई। किन्तु दुख है कि नई पीढ़ी को अहमन्यता के प्रवाह में जिस तरह कई बुजुर्ग साहित्यकार भुलाये जा रहे हैं, वैसे ही पहाड़ी जी को यथेष्ट स्वीकृति और सम्मान से वंचित किया जाता रहा है। वे 50-60 वर्षों से हिन्दी की सेवा करते आ रहे हैं किन्तु आज को साहित्यिक आपाधापी में वे एक किनारे खड़े अभी विरत नहीं हुए हैं। उनके विचारों में वही पुरानी ऊर्जा और कुछ कर गुजरने को ललक ज्यों की त्यों बनी हुई है। उनकी पीड़ा यह है कि हिन्दी व्यावसायिक चारणों और राजनैतिक नेताओं के चंगुल में फंसी हुई है। उनका कहना है कि नई पीढ़ी को हम कोई राह न दिखा सके, न नई पीढ़ी पूर्वजों की ओर देखना चाहती है।


    पूर्वजों की परम्परा का सम्मान 'पहाड़ी' जी के लिए स्वाभाविक रहा है। उनके पिता, पितामह आदि साहित्य में विशेष रुचि रखते थे। उनके पिता ने 1916 में 'ओथेलो' का हिन्दी अनुवाद किया था। उनके पितामह ने एक दुर्लभ पुस्तक 'ढोल सागर' की पांडुलिपि तैयार कराई थी। यह वह समय था जब स्वतंत्रता आन्दोलन जोर पकड़ता जा रहा था। पहाड़ में एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी उसमें कूदने के लिए उद्यत थी। 'पहाड़ी' जी 1922 में जैनेन्द्र, प्रेमचन्द जैसे साहित्यकारों तथा पत्रकारिता के द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े। 13 अप्रैल 1930 को श्रीनगर (गढ़वाल) में बैसाखी के दिन उन्होंने तिरंगा फहराया था। उन्होंने जेल यात्राएं की, रेडियो से हटाये गए, फिर भी कभी स्वतंत्रता सेनानी का बिल्ला नहीं चिपकाया।


    मेरठ कॉलेज में जब वे शिक्षा प्राप्त कर ही रहे थे, तभी उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें 'स्टेट्समैन' दिल्ली और 'टाइम्स ऑफ इंडिया' बम्बई का विशेष प्रतिनिधि नियुक्त किया गया। 1935-38 के बीच वे 'अमृत बाजार पत्रिका' से भी संवाददाता के रूप में संबद्ध रहे। कुछ समय तक वे आकाशवाणी लखनऊ की सेवा में भी रहे। तत्पश्चात वे 'कर्मयोगी', 'संघर्ष', 'नया साहित्य', 'सेवा' तथा 'गढ़वाल समाचार' का सम्पादन भी करते रहे। लगभग 22 वर्षों तक साहित्य सम्मेलन प्रयाग में संयुक्त सचिव, रजिस्ट्रार तथा प्रकाशन अधिकारी के रूप में विभिन्न पदों पर कार्य किया। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि प्रगतिशील लेखक संघ के सक्रिय भागीदारी में रही जिसकी उत्तर प्रदेश शाखा का सेकेट्री होने का भी उन्हें गौरव प्राप्त हुआ। इसी आन्दोलन से संबद्ध होकर उन्होंने 'नया साहित्य' पत्र की शुरुआत की। यह उनकी प्रसिद्धि का चरमकाल था जब उनकी रचनाएं विश्व की भाषाओं में अनूदित हुईं और सोवियत विश्व लेखक निर्देशिका (1956) में भारत के लेखकों में उन्हें शीर्ष स्थान पर प्रविष्टि मिली।


    'पहाड़ी' जी का लेखन बहुत व्यापक रहा; मूलतः वे कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में जाने जाते है। उन्होंने पांच उपन्यास और लगभग 200 कहानियां लिखी जो लगभग 16 कहानी संग्रहों में समाहित हैं। उनकी 20 बाल साहित्य की पुस्तकें अपना विशेष महत्त्व रखती हैं। 'पहाड़ी' जी एक प्रखर विचारक और चिन्तक भी हैं और भाषा तथा संस्कृति की परख रखने वाले मनीषि भी। उनके 200 से अधिक छपे-अनछपे निबन्ध इस बात के मुखर प्रमाण हैं।


    उनकी कहानियों का स्वर बिल्कुल अलग है। इसी आधार पर विद्वानों ने उनके लेखन को तीन कालखण्डों में विभाजित किया है:
    1. प्रारंभिक कथा साहित्य (1930-1940);
    2. प्रौढ़ कालीन कथा साहित्य (1941-1950); तथा
    3. स्वातंत्रयोत्तर कथा साहित्य।


    उनके साहित्य में दो बातें स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं, एक उनका पहाड़-प्रेम और दूसरा उनका प्रगतिशील दृष्टिकोण। उनके कथा साहित्य में पहाड़ का रोमानी वातावरण उभर कर आया है और प्रगतिशीलता के प्रभाव में उन्होंने उसके दुख-दर्द को भी वाणी देने का प्रयास किया है। प्रारम्भिक काल की रचनाओं में रोमान का पुट अधिक प्रकट हुआ है। 1935 में जब उनकी कहानी 'अधूरा चित्र' माधुरी के विशेषांक में प्रकाशित हुई तो अमरनाथ झा ने उन्हें डी.एच. लारेन्स के ढंग पर कहानी लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। भारतीय सामाजिक सीमाओं को देखते हुए उतनी दूर तक जाना उनके लिए सम्भव नहीं था, पर पहाड़ के सम्बन्ध में रोमानी कहानियां लिखने का श्रेय प्राप्त करने में देर नहीं लगी। किन्तु बाद में राष्ट्रीय तथा प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़ने के कारण वे भारत के शोषित-पीड़ित किसान की ओर उन्मुख हुए और अन्धविश्वासों तथा रूढ़ि की जंजीरों को तोड़ने का संकल्प लिया। 'सड़क पर', 'बया का घोंसला', 'नया रास्ता' और 'बरगद की जड़ें' तथा 'सराय' आदि उपन्यास में वे इसी रूप में सामने आते हैं। स्वतंत्रता के बाद जो नव निर्माण के सपने जागे या कालांतर में जो मोह भंग हुआ उसकी गहरी छाप 'पहाड़ी' जी के 'तूफानों के बाद', 'कैदी और 'बुलबुल', 'बीज और पौधा' तथा 'मालापति' में देखने को मिलती है। इस काल की कई रचनाओं में जहां देश की समस्याओं के प्रति ध्यान दिलाया वहीं नारी की पीड़ा को भी उजागर किया।


    पहाड़ी जी के कथा साहित्य की एक बहुत बड़ी देन पहाड़ के संघर्षशील जीवन की मार्मिक अभिव्यक्ति भी है। पर्वतीय नारी के रोमानी भावुक व्यक्तित्व का हृदय स्पर्शी चित्रण ही नहीं उसके श्रम के नीचे दबी पीड़ा, संघर्ष और सामाजिक बंधनों को लेकर जैसा चित्रण उनकी कहानियों और उपन्यासों में मिलता है वैसा आज के तथाकथित पहाड़ी आंचलिक कथाकारों में भी अलभ्य है। पहाड़ों में नारी की जो दुर्दशा होती है उसके पीछे साहूकारों, व्यापारियों, सरकारी अहलकारों की भूमिका को उन्होंने एक नई सामाजिक दृष्टि से विश्लेषित करने का प्रयास किया है। इसके पीछे उनकी वह संवेदना सक्रिय रही है जो पहाड़ों को आत्मीय स्पर्श से देखती और समझती है तथा जिसके पीछे प्रगतिशीलता का दायं सक्रिय रहा है।


    'पहाड़ी' जी के व्यक्तित्व का एक और पक्ष यह है कि वे लोकभाषा और लोकसंस्कृति के प्रबल समर्थक थे। उनका सदैव यह विचार रहा है कि हिन्दी की प्रगति के लिए गढ़वाली, कुमाउंनी, भोजपुरी जैसी लोकभाषाओं का विकास जरूरी है। उन के शब्द भंडार और भाव तत्त्व से हिन्दी समृद्ध होगी। उत्तर प्रदेश सरकार से वे गढ़वाली एकेडेमी खोलने के लिए निरन्तर कार्यरत रहे, पर उनकी बात अनसुनी कर दी। 'पहाड़ी' जी के मन पर यह पीड़ा आज भी बनी हुई है। वे क्षेत्रीय बोलियों के शब्द-कोश की बात बहुत बरसों तक करते रहे। 30 अक्टूबर 1997 को उन्होंने अंतिम सांस ली थी।


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