कृषि योग्य भूमि तैयार करने के लिए पहाड़ की मातृशक्ति ने अपने ही हाथों से इस धरती को सींचा और सँवारा है। वह चाहे सेरा की भूमि, ईजर, बंजर व भावर की भूमि हो उसे उपजाऊ युक्त बनाया है। रोजी-रोटी के लिए यहाँ के युवा बाहर जाते रहे हैं जिससे कि अपने परिवार की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति व भरण पोषण, लत्ता-कपड़ा, नमक, तेल, बच्चों को पढ़ाना लिखाना आदि कर सकें।
कुमाऊँ मण्डल में विभिन्न क्षेत्र हैं। जहाँ उपजाऊ भूमि है - जनपद बागेश्वर में बागेश्वर, गरूड़, मैगड़ी, तलाऊ, अल्मोड़ा में सोमेश्वर, चौखुटिया, मासी, देघाट, बमनसुयाल, बाड़ेछीना, सेराघाट आदि नदी घाटी वाले क्षेत्र, नैनीताल में सिमलखाँ, बेतालघाट व तराई भावर, पिथौरागढ़ में सेरा, बाँस, बाँसबगड़, पाली, थल, डीडीहाट, जौलजीवी, मदकोट, धारचूला, झूलाघाट आदि। नदी घाटी क्षेत्रों तथा बरसात में छोटे-बड़े गधेरों से प्राप्त पानी से भी सिंचाई की जाती है।
शिव के डमरू से उद्भूत हुआ हुड़का
कुमाऊँ की भूमि में विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा अर्चना व गीत-संगीत प्रत्येक शुभ कार्य से जुड़ा व रचा-बसा है। कृषि कार्यों में गीतों की लय के साथ रोपाई के हाथ चलने लगे और हुड़किया बौल जैसे कृषि गीतों की विधा धीरे-धीरे मानव के कार्यों में सहायक और कार्य को आसान बनाने में मददगार साबित हुई और ऐसे ही अस्तित्व में आया शिव के डमरू से उद्भूत हुड़का जो इस क्षेत्र का प्रमुख ताल वाद्य है। हुड़के की ताल के साथ कृषि कार्य में जो श्रम किया जाने लगा वही हुड़किया बौल के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में हुड़के के साथ गाये जाने वाले गीतों के आयोजन की पूरी विधा को ही हडकिया बौल नाम दिया गया है।
हुड़किया बौल का अर्थ
हुड़किया बौल दो शब्दों से मिलकर बना है। जिसमें हुड़का-(हुड़का एक वाद्य यंत्र जिसे मात्र हाथ ही अंगुलियों से थपथपाते हुए मारा जाता है)। बौल-भुजा अथवा बाहुबल से सम्बन्धित है। अत: हुड़काबौल का शाब्दिक अर्थ है कि कई हाथों को एक साथ कार्य करना। हुड़काबौल का आयोज़न प्रायः धान रोपाई के लिए किया जाता है। पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ धान की रोपाई नहीं होती वहाँ मडुवे की गुड़ाई के समय हुड़किया बौल का आयोजन किया जाता है। जिस भूमिधर की अधिक जमीन होती है वही परिवार इस आयोजन का उपयोग किया करते हैं।
पहले होता है भूमि पूजन
स्थानीय परम्परा के अनुसार धान रोपाई का कार्यक्रम होने पर सर्वप्रथम जिस परिवार के खेत में रोपाई होती है तब उसी परिवार का मुखिया पहले दिन उपवास रखता अथवा शुद्ध भोजन करता है। प्रातः अपने ईष्ट देवी-देवताओं की पूजा अर्चना की जाती है। तत्पश्चात वह अपने खेत में जाकर उसके पूर्वी अथवा उत्तरी हिस्से के एक कोणिक भाग को चुनता है। वहाँ पर तिलक, चन्दन, पुष्प, पूरी, खीर, हलुवा (सामर्थ्यानुसार) प्रसाद चढ़ाकर पूजा-अर्चना की जाती है। इस खेत में धान के बीज बोने से पहले उस खेत की साफ-सफाई की जाती है। इसमें पत्थरों के छोटे-बड़े टुकड़ों को उठाकर वे घास-फूस को जलाकर एकदम साफ किया जाता है। तिथि और पक्ष के अनुसार धान के बीज को बोया जाता है। धान के बीज के ऊपर फिर पानी डाला जाता है। धान का बीज अपने खेत के अनुसार हीं बोया जाता है। जिसकी अधिक भूमि होगी उस परिवार द्वारा उतना ही अधिक बीज बोया जाता है। इस तरह धान लगभग एक हली, दो हली, चार हली, पाँच, सात अथवा दस, जितनी भी हों बोया जाता है। जिसके जितने अधिक हली खेत होते हैं उसी के अनुकूल बोया जाता है। धान के बीज दस दिन के अन्तर्गत बाहर निकल जाते हैं। बीच-बीच में निराई भी हो जाती है।
व्यवस्थित ढंग से होती है रोपाई
धान की रोपाई के लगभग एक माह पूर्व बीज बोया जाता है। एक माह के पश्चात रोपाई प्रारम्भ हो जाती है। कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहाँ वर्षा पर अधिक निर्भर रहना पड़ता है और कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ सदैव नदी की पानी रहता है। वर्षाकाल में स्थानीय गधेरों में पानी की मात्रा बढ़ जाने से रोपाई का कार्य एक माह के बाद किया जाता है।
धान रोपाई की परम्परा के अनुसार कार्य को यथाशीघ्र सम्पादित किये जाने हेतु पहले ही दिन जिस स्थल में भी धान के बीज को बोया जाता है, उस में पूर्व से ही यह ध्यान दिया जाता है कि किस क्षेत्र में इस वर्ष धान बोया जायेगा। उसी स्थान अथवा खेत में पहले से उर्वर अथवा उपजाऊ स्थल में ही बीज बोया जाता है। चूंकि स्थानीय परम्परा के अनुसार कहीं पर पानी की उपलब्धता होने पर भी खाकी, यून्या, वरधानी आदि के लिए खेतों को छोड़कर उसमें उर्वरता बढ़ाने हेतु एक फसल छोड़ दी जाती है। कुछ स्थल ऐसे हैं जहाँ पर पानी नहीं होता है वहाँ खेत की वर्ष में होने वाली रवी की फसल का उत्पादन करना छोड़ देते हैं। उसके बदले खरीफ की फसल अथवा वर्षात की फसल का उत्पादन करना सहायक होता है। वर्तमान में जैविक खाद की अपेक्षा रासायनिक खाद का उपयोग/प्रचलन अधिक हो रहा है। इससे न तो खाकी छोड़ी जा रही है और न ही उर्वरक हेतु खाली खेत छोड़े जा रहे हैं। आर्थिकता की होड़ में आज मानव करने में तनिक भी नहीं सोचता कि मैं क्या कर रहा हूँ।
निश्चित तिथि में होता है आयोजन
इस आयोजन के लिए अपने तथा अन्य गाँव के लोगों का धान रोपाई अथवा मडुवे गुड़ाई की निश्चित तिथि से अवगत कराया जाता है। तिथि के अनुसार ही हुड़किया से भी इस सम्बन्ध में कौल करार (दिन वार) कर लिया जाता है, जिससे कि कहीं पर भी कोई कमी न आये। धान रोपाई में वर्षा का प्रभाव तो नहीं पड़ता परन्तु मडुवा गुड़ाई में अवश्य ही पड़ता है। यदि धान रोपाई में वर्षा न हो तो अच्छा ही है अन्यथा होने पर भी कोई नुकसान नहीं है। परन्तु मडुवा गुड़ाई कार्य पर अवश्य ही प्रभाव पड़ता है। हुड़किया के साथ दो अथवा एक सहायक का होना आवश्यक है। चूँकि एक ओर एक गायक हुड़का की थाप छोड़ते हुए गाता है। तो दूसरी ओर से दूसरा गायक हुड़के की थाप मारते हुए ताल व लय के साथ उसी बात को दोहराते हुए गीत गाता है। जिस प्रकार पहले वाले गायक के हुलार काम करते हुए हुलार लगाते हैं। ठीक उसी तरह दूसरे समूह में भी गायक के साथ हुलार लगाते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। गुड़ाई अथवा धान रोपाई का कार्य बराबर चलते रहता है। गुड़ाई और रोपाई वाली महिलायें अथवा पुरुष उन गायक हुड़कियों के साथ हेवार लगाते रहते हैं। इनमें महिलायें अथवा पुरुषों की टोली भी बनी होती है।
हुड़काबौल में गायक और गायिकी दोनों एक दूसरे के साथ कार्यकर्ताओं के कार्य में साहस बढ़ाने और तीव्रता लाने हेतु हुड़किया अपनी बुलन्द आवाज में वीर रस तथा हास्य रस के गीतों का बखान करते हैं। यह आवाज सभी कार्यकर्ताओं के लिए एक इनर्जी के टौनिक का काम करती है। वीर रस के अन्तर्गत अजुवा बफौल, भागा महरानी, जुमला बौरानी, संग्राम कार्की, शोभा रावत आदि तथा वात्सल्य रस के अन्तर्गत राजुला मालूशाही, सिदु-बिदु आदि का बखान किया जाता है। गुड़ाई कर रहे सभी गुडौल जनों को समय पर चाय, नाश्ता और खाना दिया जाता है। पूर्व में केले के पत्तल व चाय का गिलास होता था। वर्तमान में रेडीमेट कटोरी, प्लेट व गिलास होते हैं। खेतों में काम करने वाले किसी भी सदस्य को तनिक भी यह महसूस न हो कि गुड़ाई में परेशानी हुई। इस तरह कार्यकर्ता अपने कार्य को निपुणता से हँसी ठठोली के साथ करता है और गुड़ाई अथवा पौध रोपण का कार्य निरन्तर चलता रहता है।
समाप्ति की कगार पर हुड़किया बौल
तत्कालीन परिवेश अब धीरे-धीरे समाप्ति की कगार पर जा रहा है। पर्वतीय क्षेत्र का युवा वर्ग रोजगार की तलाश में भटक रहा है। सरकार द्वारा गाँवों में सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान में सस्ता अनाज मिलने से लोग खेती में भी रूचि नहीं ले रहे हैं। इससे आज पूर्वजों द्वारा संरक्षित बीज भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। अब गाँव में जो भी रह रहा है वह खेती ही नहीं करना चाहता। सामूहिक कार्य परम्परा भी अब समाप्त हो रही है। यह एकमात्र उन क्षेत्रों में बची है। जहाँ लोगों की स्वयं की रूचि है। हम सब को मिलकर जैविक खेती को बढ़ावा देना होगा तब यह संभव है।
कृषि कार्य करने के लिए कृषक के पास भूमि का होना अति आवश्यक होता है। तब तो वह अपने घर में हुड़का औल लगवा सकते हैं अन्यथा भूमि ही नहीं होगी तो कैसे कृषि कार्य सम्पादित करवायेंगे। इसी तरह तत्कालीन समय में राजा महाराजाओं द्वारा भी किसानों को भूमि दान में दी जाती थी। ताप्रपत्रों में भी ईजर भाबर का दान में देने का उल्लेख मिलता है।
कर्ष
विष्णु पुराण में लिखा है कि ब्रह्मा के पौत्र स्वायम्भुव मनु के पुत्र उत्तानपाद से दसवीं पीढ़ी में राजा वेन के राजत्व काल पर्यन्त जब पृथ्वी असंतुलित थी, कृषि आदि का उल्लेख मिलता है। ताम्रपत्रों में भी हुड़का वादक अथवा ढोल वादक का उल्लेख मिलता है।
बाज-घाज
काश्तकारों का मनोबल बढ़ाने या किसी सामूहिक कार्य को करने के लिए बाज-घाज का प्रयोग किया जाता था। बाज-घाज का शाब्दिक अर्थ बाज बाजुओं, घाज कार्य की क्षमता से है। अर्थात् बाजुओं की कार्य क्षमता अथवा ताकत से है। चन्द शासन काल में बाजदार बैजनियाँ नामक कर जनता से लिया जाता था। सर्वप्रथम राजा लक्ष्मण चन्द एवं कल्याण पाल के संयुक्त ताम्र पुत्र शाके 1525 में उल्लेख मिलता है। सामान्य रूप से जब किसी कार्य को किया जाता है तो उनमें तन्मयता लाने हेतु शुभ कार्य के साथ श्रमिकों के मनोबल को बढ़ाने के लिए भी प्रयोग किया जाता था।
संदर्भ
1- पुरवासी - 2015, श्री लक्ष्मी भण्डार (हुक्का क्लब), अल्मोड़ा | लेखक -प्रो. दया पंत, विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग एस.एस.जे. परिसर, अल्मोड़ाहमसे वाट्सएप के माध्यम से जुड़े, लिंक पे क्लिक करें: वाट्सएप उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि
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