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    ब्रिटिश कमिश्नरी कुमाऊँ 1815 से 1947 तक

    commissioner-of-kumaon-1815-to-1947

    गार्डनर (प्रथम कमिश्नर कुमाऊँ कमिश्नरी)


    उत्तराखण्ड क्षेत्र के लिये गार्डनर को इन्चार्ज बनाया गया। गार्डनर ने कुमाऊँ में ब्रिटिश प्रशासन की नींव डाली। 3 मई सन् 1815 ई. के एक आदेश द्वारा ऑनरेबल ई. गार्डनर को निर्देश दिया गया कि वे कुमाऊँ के कमिश्नर का पद ग्रहण करें और गवनर्र जनरल का एजेंट पद भी साथ संभालें। बंगाल कोबनेटिड सिविल सर्विस के मिस्टर जी. डब्ल्यू ट्रेल को (8 जुलाई को) असिस्टेंट (सहायक) नियुक्त किया गया और ट्रेल ने 22 अगस्त को कार्यभार संभाला। ट्रेल (10 अक्टूबर) को गढ़वाल के प्रशासन सम्बन्धी अनुदेश भी दिये गए। गार्डनर को सन् 1815 ई. में ही राजस्व और पुलिस ढाँचा खड़ा करने को प्राधिकृत किया गया। कुमाऊँ के कमिश्नर के रूप में गार्डनर 3 र्मइ सन् 1815 से लेकर अप्रलै 13, सन् 1816 ई. तक रहे।


    ट्रेल (1816 से 1835)


    13 अप्रैल सन् 1816 ई. को ऑनरेबल ई. गार्डनर के जाने के बाद ट्रेल को कमिश्नर पद पर अस्थायी नियुक्ति दी गई और अगले वर्ष 1817 ई. को पहली अगस्त को इस पद पर स्थायी किया गया। ट्रेल सन् 1835 ई. तक इस प्रान्त का आयुक्त (कमिश्नर) रहे, यहाँ के दीवानी और फौजदारी दोनों न्याय प्रशासनों के नियमों की उसने शुरूआत की।


    अंग्रेज कमिश्नर ट्रेल ने कुमाऊँ कमिश्नरी को अपनी जागीर की भाँति अपने ही मौखिक आदेश से शासित किया। सन् 1824 में तराई को मुरादाबाद में शामिल करने के विवाद में ट्रेल और मिस्टर हलहेड ने मैदान व पहाड़ के बीच सीमा तय की। ट्रेल के निरंकुशता का उदाहरण इस विवाद के दौरान उसके लिखे पत्रों तथा तथ्यों में मिलता है, कि ट्रेल वो सब लागू करने में सफल रहा जो वो चाहता था। ट्रेल कल्पना से ज़्यादा तथ्यों में विश्वास रखता था। ट्रेल ने लगान वसूली के लिये गोरखों द्वारा किया गया भूमापन और बन्दोबस्त को आधार माना। तथापि इस अवधि के तीन महत्वपूर्ण सुधार उल्लेखनीय है। पहला सन् 1817 में पहाड़ी लोगों के एक अजीब किस्म के रिवाज़ को निषिद्ध कर दिया गया। पुराने समय में एक रिवाज़ था जिसके अनुसार परपुरूषगामी स्त्री का पति उस परपुरूष की हत्या कर सकता था, केवल हत्या से पहले उसे सरकार के कार्यकारी अधिकारी को इसकी सूचना देनी होती थी। इस रिवाज़ के कारण ईष्यालु पतियों के हाथों कई मासूमों को जान से हाथ धोना पड़ता था और इस मामले में पति, न्यायाधीश और कार्यपालक अधिकारी दोनों बन बैठता था। सरकार ने इस रिवाज़ पर चलने वाले के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान कर दिया। और इस प्रकार वंशानुगत दुश्मनी का सबसे बड़ा स्रोत, यह रिवाज़ समाप्त हो गया। दूसरी कुत्सित परम्परा पति द्वारा अपनी पत्नी के विक्रय तथा विधवा को उसके पति के परिवार के लोगों के द्वारा बेचने के अधिकार की थी। ट्रेल ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया। इसके अलावा तीसरे सुधार के अन्तर्गत लम्बे कुशासन तथा दमन के दौर में बच्चों और युवाओं के विक्रय की परंपरा इस कदर बढ़ गयी थी कि इसे पिछली सरकारों (गोरखा शासन) की स्वीकृति मिल गई थी और इन (गोरखा) सरकारों ने दासों के निर्यात पर शुल्क भी लगा रखा था। ब्रिटिश हुकूमत ने आते ही इस शुल्क को समाप्त किया। इस प्रकार घरेलू दासों के रूप में दासता की समाप्ति के बाद सन् 1829 ई. में सती प्रथा समाप्त की गई। इससे पूर्व सन् 1818 में ट्रेल ने सब तरह के परिवहन शुल्क समाप्त करने की सिफारिश की और साथ ही यह भी सिफारिश की, कि वन उत्पादों पर भी उसी तरह शुल्क लगाया जाय जैसे भू-राजस्व पर लगता है। सरकार ने दोनों प्रस्ताव स्वीकार किये।


    सन् 1822 में जेल तथा पुलिस व अपराध प्रशासन पर रिपोर्ट देने के लिये मिस्टर ग्लिन को कुमाऊँ भेजा गया। मिस्टर ग्लिन की रिपोर्ट पर अपने प्रस्ताव में भारत की सरकार ने मि. ट्रेल के प्रशासन की प्रशंसा की और जिस उर्जा व उत्साह के साथ ट्रेल ने कमिश्नर के अपने कत्तव्यों का निवार्ह किया उन्हें देखते हएु सन् 1825 में उन्हें न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट का पूरा वेतन पाने का हक दिया गया। ट्रेल ने कुमाऊँ विभाग (डिविजन) के इतिहास के भू-बन्दोबस्त में से सात भू-बन्दोबस्त को लागू किया जिसमें पहले के दो एकवर्षीय फिर दो त्रिवर्षीय तथा अन्त के तीन पंचवर्षीय थे। सन् 1823 में ट्रेल ने उस समय प्रचलित लगान के स्वरूप में बड़े पैमाने पर बदलाव किये। ट्रेल के कार्यकाल में ही सेना के सरलतापूर्वक आवाजाही के लिये सड़कों का निर्माण किया गया। लोहाघाट छावनी से होते हुये एक सड़क बमौरी को अल्मोड़ा से जोड़ती थी और दूसरी ब्रिमदेव को पिथौरागढ़ से जोड़ती थी। अल्मोड़ा भी लोहाघाट से जुड़ा हुआ था। यह सभी सड़कें विशष रूप से बोझा ढोने वाले जानवरों जैसे गधे व खच्चरों के लिए बनाई गई थी। ट्रेल ने अपने समय में हुई भू-बन्दोबस्त के समय प्रत्येक बार गाँवों में पँहुच कर स्वयं निर्णय दिए। ट्रेल कुमाऊँनी तथा गढ़वाली बोलियों को भलीभाँति समझता था। उसकी रिपोर्टों, लेखों आदि में सैकड़ों स्थानीय शब्दों का प्रयोग मिलता है। ट्रेल की भू-व्यवस्थाओं के समय लिखे गए (गाँव-हालात) अविस्मरणीय अभिलेख हैं। ट्रेल शासक और न्यायकर्ता दोनों था। ट्रेल द्वारा डाली गई न्यायिक परम्पराएं इस प्रदेश के न्यायालयों के लिये विधि संहिता बन गई। ट्रेल दुर्गम पन्थों पर भी चल सकता था। कुमाऊँ से हूणदेश जाने के लिए उसने एक नए मार्ग का पता लगाया था। जिस पर पड़ने वाला घाटा अब तक 'ट्रेल का घाटा' कहलाता है। मन्दिरों आरै जागीरदारों आदि के ताम्र पत्रों एवं संदेशो से ट्रेल ने ऐतिहासिक सूचनाओं का संकलन किया था।


    मिस्टर ट्रेल ने 28 अक्टूबर सन् 1835 को रूखसती से पहले तीन महीने की छुट्टी ली, और उनका स्थान अस्थायी तौर पर मिस्टर एम. स्मिथ ने लिया। कर्नर गोवन 5 मार्च सन् 1836 को कमिश्नर नियुक्त हुये, जिनका स्थान सन् 1839 में मिस्टर लुशिंग्टन ने लिया। इसी बीच ब्रिटिश गढ़वाल जो सन् 1815 से सन् 1839 तक कुमाऊँ कमिश्नरी की एक तहसील था, को सन् 1839 में जनपद का दर्जा मिला और अपनी जलवायु के अनुकूल अंग्रेज़ श्रीनगर से मुख्यालय पौड़ी ले गये। कुमाऊँ व गढ़वाल जिलों के लिये अलग-अलग असिस्टेंट कमिश्नरों की नियुक्ति की गई। जिसके अन्तर्गत 15 अक्टूबर सन् 1836 को गढ़वाल के लिए मिस्टर बैटन की नियुक्ति हुई, उनके साथ सहायक के रूप में कैप्टेन ई. थोमस नियुक्त हुए। अल्मोड़ा में मिस्टर फिलिप तैनात हुआ। सन् 1839 से लेकर सन् 1847 तक लुशिंग्टन कमिश्नर पद पर रहे। लुशिग्ंटन की मृत्यु के बाद बैटन ने स्थानापन्न के रूप में कुमाऊँ के कमिश्नर के पदभार को संभाला। फिर 6 नवम्बर सन् 1848 को स्थायी रूप से कुमाऊँ कमिश्नर के पद पर आसीन हुये।


    बैटन (1848 से 1856)


    बैटन के शासन के आरम्भ में दास प्रथा का अन्त कर दिया गया। भूमापन का कार्य नये सिरे से आरम्भ हुआ। नये कानून और नई न्याय संहिताएं बनी। बैटन एक जाना-पहचाना योग्य प्रशासक था। उसने अपने शासन कालखण्ड पर ऐसी छाप छोड़ी की उसका शासनकाल 'बैटन युग' के नाम से जाना गया। बैटन के प्रशासन के शरूु आती दिनों में तो नियम, कानूनों और सरकारी पर्यवेक्षणों की भरमार रही लेकिन ज्यों-ज्यों बैटन का प्रभाव, पद और अनुभव बढ़ता गया वे सब कम होते चले गये।


    बैटन के समय में सन् 1852-53 के लगभग कौसानी, बेनीबाग, मैगड़ी, डुंगलोट आदि कई स्तनों में चाय के बगीचे स्थापित किये गये। इन बगीचों के स्वामी अंग्रेज थे। बैटन के कार्यकाल में मई 1849 ई. में रामज़ै ने कुमाऊँ के वरिष्ठ सहायक कमिश्नर का पद अपने हाथ में लिया। उसने कत्यूर तथा गढूली पट्टियों को चाय के उत्पादन के लिए उपयुक्त बताया। बैटन के कमिश्नर के कार्यकाल के दौरान उनके वरिष्ठ सहायक रामज़ै ने हल्द्वानी मण्डी और उसके आस-पास के क्षेत्रों का स्वरूप सफाई अभियान के द्वारा बदल दिया तथा सड़कों का निर्माण भी करवाया। सन् 1852-53 में ही चाय-बागान के लिए बंजर-भूमि के आवंटन के लिए पहली बार कानून बनाया गया और चाय उद्योग उभरा। इस प्रकार बैटन ने अपने कार्यकाल के दौरान अनेकों सुधार किये। बैटन सन् 1856 ई. तक कुमाऊँ गढ़वाल के कमिश्नर के पद पर रहे। 10 फरवरी सन् 1856 में हेनरी रामज़ै (कालान्तर में जनरल सर हनैरी रामज़ै) कुमाऊँ के कमिश्नर नियुक्त हुये।


    रामज़ै (1856 से 1884)


    रामज़ै-Sir-Henry-Ramsay

    यह काल सर हेनरी रामज़ै के नाम से जाना जाता है। कुमाऊँ में जिम कार्बेट को छोड़कर अन्य किसी अंग्रेज ने इतनी लोकप्रियता नहीं पाई जितनी की सर हेनरी रामज़ै को मिली। सर हेनरी रामज़ै के प्रशासनिक कैरियर की शुरुवात तभी से हो गई थी, जब वह कुमाऊँ डिविजन के जूनियर सहायक कमिश्नर नियुक्त हुये थे। और वह तब तक कार्य करते रहे जब तक वह सन् 1884 ई. में कुमाऊँ डिविजन के कमिश्नर पद से सेवानिवृत्त न हो गये।


    10 फरवरी सन् 1856 में रामज़ै कुमाऊँ कमिश्नर नियुक्त हुए। परन्तु इससे पूर्व रामज़ै ने सहायक तथा वरिष्ठ सहायक कमिश्नर के रूप में कुमाऊँ में काम किया। इस प्रकार रामज़ै ने कुल 44 वर्षों तक कुमाऊँ में कार्य किया। रामज़ै लुशिग्ंटन कमिश्नर (कुमाऊँ) के दामाद थे तथा तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड डलहौजी के चचेरे भाई थे। वे कुमाऊँनी में बातचीत कर लेते थे। रामज़ै ने अपने रहने के लिए अल्मोड़ा, बिनसर, तराई तथा रामनगर में मकान बनवाए। तराई के दलदलों को साफ करवा वहाँ पहाड़ी नदी-नालों से सिंचाई के लिए गुलें बनाने का कार्य रामज़ै के समय में हुआ। वे 4 महीने पहाड़ पर, 4 महीने अल्मोड़ा तथा शेष 4 महीने तराई भाबर में बिताते थे। रामनगर की स्थापना रामज़ै ने ही की थी। अंग्रेज़ों ने रामज़ै को "कुमाऊँ का राजा" कहा है। वहीं पर्वतीय वासियों के लिये वे सबका दुःख-सुख सुनने वाले रामजी साहब थे। रामज़ै ने अपने प्रशासनिक कार्यकाल में कुमाऊँ को देश के सभी क्षेत्रों के बराबर में पहुँचने में सहयोग दिया। सन् 1872 में पहली कार्ट सड़क रामनगर तथा रानीखेत को जोड़ती हुयी बनायी गयी। फिर सन् 1884 में काठगोदाम तक रेलमार्ग को बनाया गया। रामज़ै ने चाय उद्योग के लिए कई प्रभावी योजनाये बनाई। रामज़ै ने कई सड़कों तथा पुलों का निर्माण करवाया तथा कई विद्यालयों को खुलवाया रामज़ै ने पहली बार कुमाऊँ में आलू की खेती की शुरूआत करायी। रामज़ै ने कुमाऊँ तथा गढ़वाल में विभिन्न प्रकार के पेड़ों को गिराने के काम पर भी रोक लगवायी। रामज़ै के द्वारा किये गये सुधार कार्यों में सबसे अविस्मरणीय कार्य भाबर क्षेत्र में किया गया। रामज़ै ने इस क्षेत्र में सिचाई के लिये कई गूलो, नहरों का निर्माण करवाया। कुमाऊँ कमिश्नरी में कुष्ठ रोग एक प्रचलित बीमारी थी। सन् 1840 में जब रामज़ै अल्मोड़ा आये तो उन्होंने कुण्ठ रोगियों के लिये पूर्वी अल्मोड़ा मे पत्थर के झोपड़े नुमा घर बनाने के आदेश दिया फिर कुछ समय पश्चात रामज़ै की अपील पर स्थानीय लोगों की सहायता से अल्मोड़ा बस स्टेशन से 2 मील पहले कुष्ठ रोगियों का आश्रालय बनाया गया। छोटी माता या खसरा भी पहाड़ पर होने वाली आम बीमारी थी। पर सन् 1854 में डा. पिर्यसन के द्वारा दो नये किस्म के टीका लगाने वाले 'वेक्सीनेटर' से टीकाकरण का काम शुरू किया गया। जिसकी शुरूआत तो बैटन के काल में हुई। पर सफलता पूर्वक टीकाकरण रामज़ै के काल में हुआ। अपने कार्यालय में किये गए सुधारों के बदौलत ररामज़ै अविस्मरणीय रूप से प्रसिद्ध हो गये। नैनीताल का रामज़ै हाॅस्पिटल तथा अल्मोड़ा का रामज़ै इन्टरमीडिएट काॅलेज के नामों से ही उनकी प्रसिद्धि का पता चल जाता।


    रामज़ै के कार्यकाल में सन् 1857 ई. को भारत की स्वतन्त्रता का आन्दोलन हुआ था। जिस समय मेरठ में स्वतन्त्रता आन्दाले न की चिंगारी सुलगी थी कुमाऊँ कमिशनर रामज़ै गढ़वाल के हिम प्रदेश के दौरे पर थे। रामज़ै सूचना मिलते ही वमौरी की तराई में पहुँच गये। रामपुर की ओर से आए हुए विद्रोहियों के दल ने सितम्बर सन् 1857 ई. में वमौरी के आसपास (वर्तमान हल्द्वानी, काठगोदाम) में लूट-पाट मचाई। मेजर रामज़ै (तब वे मैजर थे) कमिशनर ने इस विद्रोह को तत्काल शाँत कर दिया। सन् 1857 के विद्रोह का कुमाऊँ तथा गढ़वाल पर बहुत ज्यादा प्रभाव नही पड़ा। जिसका कारण रामज़ै का सुशासन माना जाता है। सन् 1884 में रामज़ै कुमाऊँ कमिश्नरी के कमिशनर के पद से सेवानिवृत हुये। अपनी सेनानिवृत्ति के आठ साल बाद तक रामज़ै कुमाऊँ में रहे। सन् 1892 में रामज़ै इग्लैण्ड को रवाना हुये। और उसके एक साल बाद सन् 1893 ई. में रामज़ै की मृत्यु हो गयी।


    सर हेनरी रामजै के पश्चात कुमाऊँ कमिश्नर के अन्तगर्त निम्नवत कमिश्नरों ने कुमाऊँ तथा गढ़वाल में कार्य (शासन) किया।


     क्र.सं.  कमिश्नरों का नाम  कार्यकाल
     1. एच.जी.राॅस  1885-1887
     2. जे.आर. रीड  1888-1889
     3. कर्नल जी.ई. अर्सकाइन  1889-1892
     4. डी.टी. राॅबर्ट्स  1892-1994
     5. लेफ्टिनेंट कर्नल ई.ई. ग्रिग  1894-1898
     6. आर.ई. हैम्लिटन  1899-1902
     7. ए.एम.डब्लू शेक्सपियर  1903-1905
     8. जे.ई. कैम्पबैल  1906-1913
     9. पी. विढ़म  1914-1924
     10. एन.सी. स्टिप्फ  1925-1931
     11. एल.एम. स्टब्स  1931-1933
     12. एल.अरे. येन  1933-1935
     13. ए. डब्ल्यू इब्होटसन  1935-1939
     14. जी.एल. विविमन  अप्रैल 1939-अक्टूबर 1941
     15. टी.जी.सी. एक्टन  अक्टूबर 1941-1943
     16. डब्ल्यू डब्ल्यू फिनले  1943- अप्रैल 1947
     17. के. एल. मेहता  अप्रैल 1947- जनवरी 1948


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