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    दीपा नौटियाल | टिंचरी माई | इच्छागिरी माई

    Inchageri Mai, Tinchari Mai, Deepa Nautiyal

    दीपा नौटियाल

    जन्म1917 (अनुमानित)
    जन्म स्थानमन्ज्यूर गांव, थलीसैंण तहसील, पौढ़ी
    माताश्रीमती रूपा देवी
    पिताश्री रामदत्त नौटियाल
    पतिफौजी गणेश राम
    अन्य नामटिंचरी माई, इच्छागिरी माई
    मृत्यु17 जून, 1993

    विलक्षण इच्छाशक्ति, दृढ़निश्चयी सन्यासिनी, सामाजिक करीतियों के विरुद्ध अकेले जंग लड़ने वाली अशिक्षित गढ़वाली महिला। दीपा नौटियाल (टिंचरी माई) का सम्पूर्ण जीवन यात्रा पर्वतीय नारी के शोषण, उत्पीडन, व्यथा कथा और करीतियों के विरुद्ध हिम्मत और सच्चाई से लड़ी गई लड़ाई व संघर्षों का इतिहास है।


    प्रारंभिक जीवन


    दीपा नौटियाल का जन्म पौढ़ी गढ़वाल के दूधातोली क्षेत्र में थलीसैंण तहसील के मन्ज्यूर गावं में हुआ था। बचपन में दो वर्ष की आयु में ही दीपा के सर से माँ का आंचल छीन गया था। दो तीन साल गुजरे ही थे कि पिता का साया भी सर से उठ गया। इसके बाद उनके चाचा ने ही उनका लालन पोषण किया। दीपा की शिक्षा-दीक्षा कुछ नहीं हुई। मात्र सात साल की उम्र में उनका विवाह 17 साल बड़े युवक गणेश राम से कर दिया गया। जो कि एक फौजी थे। वे उन्हें शादी के बाद अपने साथ रावलपिण्डी ले गये। दीपा का पति उसे भरपूर प्यार करता था। उसे स्वयं नहलाता-धुलाता, भोजन कराता था। जब वह ड्यूटी पर जाता तो दीपा पास-पड़ोस के बच्चों के साथ खेलती रहती। दाम्पत्य जीवन क्या होता है, इसकी उसे भनक तक नहीं थी।


    दुर्भाग्यवश 19 वर्ष की भरी जवानी में दीपा विधवा हो गई। उसका पति लड़ाई में मारा गया। सात दिन वह रावलपिण्डी रही और पति का हिसाब-किताब लेकर एक अंग्रेज अधिकारी की सुपुर्दगी में लैन्सडाउन आ गई। तीन-चार दिन बाद दीपा को गांव के प्रधान के सुपुर्द कर दिया गया। विधवा होने के बाद ससुराल वालों ने उन्हें अपनाने से मना कर दिया।


    सन्यासी जीवन


    दीपा जी तब भटकते हुए लाहौर पहुंची जहां वे एक मंदिर में रहने लगी। वहां एक विदुषी सन्यासनी से उनका परिचय बढ़ा। उनकी देखरेख में रहने लगी और उनसे दीक्षा ली और बन गई इच्छागिरी माई। इच्छागिरी माई बनकर वहीं जीवन यापन करने लगी। साल बीतते गये, 1947 में सांप्रदयिक दंगे भड़कने लगे और साथ में हो रही हैवानियत से उनका मन विचलित होने लगा। तब वहां हैवानियत देखकर वे उनके खिलाफ संघर्ष करने की तैयारी करने लगी परन्तु उनके गुरू उन्हें हरिद्वार ले आये।


    हरिद्वार पहुंचकर जब उन्होने वहां का हाल देखा कि कैसे ढ़ोंगी साधु संत धोती में मछलियां छुपाकर ला रहे है, खा रहे है, गांजा दम फूंककर दिन भर पड़े हुए है तो उन्होनें इसके खिलाफ आवाज उठाई। लेकिन वे अकेले कहां तक लड़ती उनकी बुलन्द आवाज का किसी पर फर्क नहीं पड़ा। उसके बाद वे उस क्षेत्र को छोड़कर सिगड्डी भाबर आ गई और एक कुटिया बनाकर रहने लगी और वहां जीवन यापन करने लगी। उस क्षेत्र में पानी की बड़ी समस्या थी। औरतों को काफी दूर से जाकर पानी लाना पड़ता था। माई को औरतों पर दया आई वह बड़े अधिकारियों व डिप्टी कमिश्नसर से जाकर मिली लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। इच्छागिरी माई ने भी मगर हार नहीं मानी वे दिल्ली चली गई और जवाहर लाल नेहरू के भवन के आगे धरना देकर बैठ गई। नेहरू जी जब कार्यालय जाने के लिए गाड़ी से रवाना होने लगे तो माई उनकी गाड़ी के आगे आ गई और उनका रास्ता रोक दिया। पुलिस वालों ने उन्हें पकड़ लिया और वहां से हटाने लगे। तब नेहरू जी गाड़ी से उतरकर बाहर आये और उनकी फरियाद सुनी। माई ने उनको क्षेत्र में बहु बेटियों को पानी लाने में हो रही परेशानियों से अवगत कराया और नेहरू जी का हाथ पकड़कर पूछने लगी कि बता पानी देगा कि नहीं। नेहरू जी ने उनसे कहा कि आप को तो बुखार है उनको अस्पताल ले जाने की व्यवस्था कराई साथ में उनको सिगड्डी क्षेत्र में पानी की व्यवस्था कराने का वादा भी किया। जल्द ही यह वादा पूरा हुआ और सिगड्डी क्षेत्र में पानी की समस्या दूर हुई।


    कुछ समय बाद माई मोटाढ़ांक चली गई। वहां वे एक शिक्षक श्री मोहन सिंह के संपर्क में आई। उन्होनें माई को रहने के लिए एक कमरा भी मुहैया कराया। एक बार बातों-बातों में जिक्र आया कि मोटाढ़ांग में कोई विद्यालय नहीं है। माई को यह बात खटकी, उन्होने शिक्षा की महत्ता समझते हुए कहा कि एक विद्यालय तो होना ही चाहिए। उन्होने पैसे इकट्ठा करके वहां विद्यालय बनाया और उसे अपने पति के नाम स्वर्गीय गणेश राम के नाम पर रखवाया। पहले वह विद्यालय हाईस्कूल तक खुला उसके बाद इंटरमीडिएट तक पढ़ाई होने लगी। पानी के संकट से जूझ रहे कोटद्वार के लिए भी उन्होने लखनऊ जाकर भूख हड़ताल की। मोटाढ़ांग रहने के कुछ समय बाद वे बदरीनाथ चली गई। वहां वे लगभग 9 साल रहीं। उसके बाद कुछ समय केदारनाथ भी रहीं। वहां से फिर वो पौढ़ी आ गई।


    टिंचरीं (शराब) के खिलाफ लड़ाई


    पौढ़ी में एक दिन वे डाकखाने किसी काम से गई। डाकखाने से बाहर आकर बरामदे में सुस्ताने लगी तब उनकी नजर सामने एक दुकान पर पड़ी जहां एक शराबी शराब पीकर आती जाती महिलाओं व किशोरियों पर ताने कस रहा था, असभ्य व्यवहार कर रहा था। माई को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ वह सीधे डिप्टी कमिश्नर के कार्यालय में पहुंची। डिप्टी कमिश्नर माई को पहले से जानते थे। उन्होने माई को बैठने को कहा लेकिन माई ने उनकी नहीं सुनी और कमिश्नर का हाथ पकड़ कर कहा - तू यहां बैठा है वहां तेरे राज में क्या क्या हो रहा है। कमिश्नर उनके साथ गये। माई ने उनको दिखाया दुकान में शराब पीकर शराबी कैसा व्यवहार कर रहे है। माई ने कहा बंद करवा ये दुकान जिस पर कमिश्नर ने कहा कि दुकान लाइंसेंस के आधार पर शराब बेच रहा है, बंद करवाने में समय लगेगा। सीधे बंद नहीं करवाई जा सकती। माई ने क्रोधित होकर कहा कि अगर ये दुकान बंद नहीं हुई तो मैं यह दुकान जला दूंगी चाहे तो मुझे जेल भिजवा देना पर यहां टिंचरी (शराब) नहीं बिकने दूंगी।


    कमिश्नर के जाने के कुछ समय बाद माई कहीं से एक कन्टर मिट्टी का तेल और माचिस का बंदोबस्त करके लाई और दुकान का दरवाजा तोड़कर अंदर घुस गई। वहां बैठे शराबी क्रोधित माई को देखकर भाग खड़े हुए। माई ने तेल छिड़ककर पूरी दुकान जला दी। उसके बाद सीधे डिप्टी कमिश्नर के पास पहुंचकर कहा जला दी मैंने दुकान, गिरफतार करलो मुझे। डी. एम. ने उन्हें दिन भर अपने कार्यालय में ही बैठाया और शाम होने पर उन्हें लैंसडाउन पहुंचा दिया। कुछ दिन में आस पास की जगहों पर माई के साहस की चर्चा होने लगी। वो निरन्तर शराब के खिलाफ आवाज उठाती रही और इच्छागिरी माई से टिंचरी माई के नाम से मशहूर हो गई। धीरे-धीरे शराब के इस संघर्ष में उन्हें महिलाओं का साथ मिलता रहा।


    मृत्यु


    इच्छागिरी माई बड़ी स्वाभिमानी थी, दान स्वरुप किसी से कभी भी कुछ नहीं लेती थी, कहीं जाती तो केवल भोजन ही करती थी। वे स्वयं दानशीला थी, शिक्षा, मद्यनिषेध एवं प्रमार्थ के लिये माई के कार्य अविस्मरणीय हैं। 17 जून, 1993 को माई की दैहिक लीला समाप्त हुई।


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