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    ब्रह्मकमल - उत्तराखंड का देवपुष्प

    brahmakamal

    ब्रह्मकमल

     अन्य नाम  कौंल, फेनकौल, सूरजकौल
     बॉटोनिकल  Saussurea Obvallata wall
     पुष्पकाल  अगस्त से अक्टूबर तक
     प्राप्तिस्थान  समुद्रतल से 3800-4800 मीटर


    "औषधीनां पराभूमिहिमवान् शैलसन्तमः।।" (चरक)


    उत्तराखण्ड के गिरिराज हिमालय में पैदा होने वाली दिव्यौषधियों की अथर्ववेद में लोक कल्याण हेतु प्रार्थना की गयी है। इसी देवलोक हिमालय में ब्रह्मादिक ऋषि- मुनियों, पांडवों आदि भारतीय राजर्षि महर्षि योगियों ने गंगा, यमुना, अलकनन्दा, भागीरथी आदि नदियों तथा केदारकांठा, सुमेरूपर्वत, द्रोणागिरी, कैलास, गन्धमादन आदि कतिपय पूर्वतों में बैठकर तपस्या की है। उन्होंने दिव्यगंध वाली जड़ी-बूटियों की पहिचान कर लोक-कल्याण हेतु संहिताओं व पुराणों का सृजन किया है। इन दिव्यौषाधियों में हिमालय के हिमनदों में उपलब्ध ब्रह्मादिक देवताओं के देवता ब्रह्मा के नाम से प्रसिद्ध पुष्प ब्रह्मकमल है। हिमशिखरों में मिलने वाले ब्रह्मकमल को स्थानिक भाषा में सूरजकौंल, कौल, भेड़कौंल आदि नामों से जाना जाता है।


    महर्षि चरक ने सौम्य गुणों वाली जड़ी-बूटियों के लिए हिमालय को सर्वश्रेष्ठ एवं उपयोगी माना है। जिसमें ब्रह्मकमल, फेनकमल संजीवनी, सोम जैसी दिव्यौषाधियाँ मुख्य हैं।


    प्राप्तिस्थान


    उत्तराखण्ड में समुद्रतल से 3800-4800 मीटर की ऊँचाई तक हिमनदों, एवं बुग्यालों में समूहरूप से मंदाकिनी घाटी, केदारनाथ, अलकनंदा घाटी, बद्रीनाथ, नीलकंठ, धौलीघाटी, भिलंगना घाटी, सहस्रताल, नन्दादेवी, हरकी दून, भागीरथी घाटी, गंगोत्री हिमनद, पिण्डारी हिमनद आदि स्थानों पर पाया जाता है। इस राज पुष्प के साथ-साथ अन्य किस्में फेनकमल, (फैनकॉल), जोगीपादशाह, नीलोल्पल रक्तोल्पल आदि ससूरिया की प्रजातियां पाई जाती हैं।


    "या औषधि: पूर्वजाता देवेभ्यो त्रियुगपुरा।।" (चरक)


    स्थानिक प्रयोग


    ब्रह्मकमल (ससुरियाओबकवेलेटा) एक महत्त्वपूर्ण प्रजाति है। पुष्प व्यवसाय के लिए इसका दोहन होता है। इसके पुष्प धार्मिक दृष्टि से अति पवित्र माने जाते हैं तथा स्थानीय देवी-देवताओं को चढ़ाये जाते हैं। स्थानीय पुरुष इन पुष्पों को दूर-दूर से इकठ्ठा कर तीर्थ-यात्रियों को बेचते हैं। केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, तुगनाश एवं मदमहेश्वर केन्द्रों में इन सुगन्धित पुष्पों की विशेष पूजा अर्चना की जाती है।


    इसके अतिरिक्त यह प्रजाति मूत्र रोग, वात, पाचन, सम्बन्धी वामारियों के उपचार में औषधि के रूप में प्रयक्त होती है। परिया एवं जड़ से बनी औषधि चोट एवं जले के उपचार, मानसिक सोगों एवं भूत बाधाहरण के रूप में जटामांसी एवं रैमारसी के साथ मिलाकर की जाती है।


    पौराणिक उल्लेख


    वैदिक साहित्य एवं वाल्मिकी रामायण के संदर्भ स्थलों से प्रतीत होता है कि ब्रह्मकमल (कमल) की प्रजातियां शिव (रुद्र) का निवास स्थान गिरिराज हिमालय में प्राकृतिक रूप से पाई जाती हैं। वाल्मिकी रामायण के अयोध्याकाण्ड 95/14 में मन्दाकिनी नदी (ताम्रपर्ण), अरण्यकाण्ड में नीलोत्पपल पंपासर में कल्हार (कमल) माल्यवान पर्वत के आदि स्थानों पर मिलता है, ऐसा प्रसंग शास्त्रों में मिलता है। रुद्र का निवास हिमालय होने तथा शिव (रुद्र) को प्रसन्न करने हेतु उस काल में भी देवता लोग ब्रह्मकमल (सहस्रकमल) से रुद्र (शिव) की पूजा करते थे। क्योंकि रुद्र ब्रह्मा के पुत्र हैं, रुद्र संजीवनी विद्या के ज्ञाता थे। रुद्र का स्थान कैलाश पर्वत था, रुद्र (भूतस्थान) भूटान के शासक थे, रुद्र आयुर्वेद के ज्ञाता थे। इसी कारण आयुर्वेद का उद्गम उत्तराखण्ड से ही हुआ है। अतः बौद्धिक सम्पदा और जैविक विविधता की महत्ता को समझते हुए इन दिव्यौषाधियों पर अनुसंधान करने की जरूरत है।


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