गुणानन्द डंगवाल 'पथिक' का जन्म सन् 1913 में टिहरी जिले की ग्यारह पट्टी के खसेती ग्राम में हुआ था। इनका पूरा जीवन बदलाव की लड़ाई के लिये समर्पित रहा। मार्च 1930 में गाधीजी के भाषण ने उनका जीवन बदल दिया। मार्च 1931 में भगत सिंह को फाँसी दिये जाने के विरोध प्रदर्शन में गुणानन्द भी सम्मिलित थे। इस प्रदर्शन में भाग लेने पर उन्हें सजा भी हुई। जेल के भीतर के अनुभवों ने उन्हें गुणानन्द डंगवाल से पथिक बना दिया।
गुणानन्द डंगवाल जी को रामायण के गढ़वाली अनुवाद करने के लिए जाना जाता है, जिससे गढ़वाल क्षेत्र में नाटकों (रामलीला), देशभक्ति गीतों और लोकगीतों को बनाना आसन हो गया। कवि मंगलेश डबराल ने अपनी कविताओं में गुनानंद के मार्क्सवादी होने के बारे में लिखा है।
पथिक स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों से इतने प्रभावित हुए की 1934-35 में अपने मकान की दीवारों पर इंकलाब जिंदाबाद, जवाहर, गाँधी, सुभाष, भगत सिंह की जय के नारे लिखने लगे। इसी समय उन्होने टिहरी जनान्दोलन में सर्वाधिक गाया गया गीत "रैबार"(संदेश) लिखा। यह गीत इतना अधिक प्रसिद्ध हुआ कि गुणानन्द पथिक जनकवि बन गये।
इसी समय में दलितों पर उनके द्वारा लिखी कविता "गाँधी जी का प्यारा हरिजन" छुआछूत के विरोध में गढ़वाली में लिखी अब तक की सबसे सशक्त कविता कही जा सकती है। इस कविता को लिखने पर उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया। इसी बीच टिहरी के गाँव-गाँव घूमकर वह सामाजिक कुरीतियों, जातिप्रथा तथा राजशाही के विरूद्ध अपने गीतों से जनता को जाग्रत करने में जुट गये। इस कारण उनकी गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया गया। उन्हें टिहरी छोड़ देहरादून आना पढ़ा। 1939 से 1942 तक उन्होने लाहौर में रहकर भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया। 1944 से 1948 तक वह टिहरी मे राजशाही के खिलाफ गीतों से जनान्दोलन की जमीन तैयार करने में लगे रहे। इसी दौरान सकलाना के जनविद्रोह से लेकर कड़ाकोट के किसान विद्रोह तक उनके परिवर्तनकारी गीतों की धूम मची रही।
टिहरी की जनक्रान्ति में पथिक मुख्य भूमिका में थे। वे इस आन्दोलन में कवि के रूप में ही नहीं क्रान्तिकारी नेता के रूप में भी जनता का नेतृत्व कर रहे थे। टिहरी की आजादी के बाद भी वे जनता के बीच अपने गीतों के माध्यम से रहे। सन् 2000 में यह जनकवि चिरनिद्रा में विलीन हो गया।
टिहरी आन्दोलन में गुणानन्द पथिक का निम्न गीत राजशाही के अधीन जनता की दशा व्यक्त करता है-
"भूखी जनता जाग उठी।
फिर बासर पट्टी खड़ी हुई।
लछमू जी ने विगुल बजाई।
शान थी जिनकी बढ़ी हुई।
टिहरी में जब लगा ‘विसाऊ’
गढ़ की जनता दुखी हुई,
भूखी जनता बिलख-बिलख कर,
कभी न मन से सुखी हुई।"
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