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हरेला | |
प्रचलित | कुमाऊँ क्षेत्र में |
सम्बंधित | कृषि, शिव-पार्वती से |
आरंभ | सावन महिने के पहले दिन से |
अन्त | हरेला के दस दिन बाद |
अनुष्ठान | हरेला बोना, शिव व कुलदेवता की पूजा |
हरेला कुमाऊँ का लोकप्रिय और महत्वपूर्ण त्योहार है। ये त्योहार वर्षा ऋतु के आगमन पर सावन महिने के पहले दिन पड़ता है। क्योंकि इस दिन सूर्य कर्क रेखा से मकर रेखा की तरफ अग्रसर होता है। इसको कर्कसंक्राति भी कहा जाता है।
हरेला ग्रीष्म (रूड़) ऋतु की प्रचंड़ गरमी के बाद हरियाली के साथ आता है। सावन के महिने के पहले दिन से खूब बरिस होने लगती है, और प्रकृति में हर जगह हरियाली छा जाती है। खेती बाड़ी में अधिक से अधिक उत्पादन हो, इस लिये यहाँ के लोग हरेला पर्व को बड़ी उमंग से मनाते है। हरेला बोना, देवताओं के डिकारे (शिव-पार्वती और गणेश की मिट्टी से बनी मूर्तियां), तथा हरेला को सर में धारण करना ये तीन बातें त्यौहार में खास होती है।
हरेला त्योहार के लिए 10 दिन पहले से 5 या 7 प्रकार के बीज जैसे - गेहूँ, जौ, सरसों, मक्का, गहत, भट्ट, और उड़द, परम्परागत रीति अनुसार उर्वरक मिट्टी भरके दो अलग-अलग टोकरीयों में बो कर देवताओं के स्थान (मंदिर) पर रख दिया जाता है। 10 दिन तक प्रकाश विहिन जगह मे रखी हुई टोकरी में तीसरे-चौथे दिन हरेला उग जाता है। 10 दिन तक सन्धया करते समय रोज जल का छिड़काव किया जाता है। 9वें० दिन हल्की गुड़ाई कर दि जाती है। ये दिन यानी 9वें० दिन उगी हुई हरेला के पौधों के पास अलग-अलग प्रकार के फल रखे जाते है और उनके बीच में शिव-पार्वती, गणेश, कार्तिके देवता के डिकारे स्थापित कर दिये जाते है, कुछ घरों मे पंडित जी बुलाये जाते है जो 9वें० दिन हरेला के पास फल के बीच स्थापित शिवजी के डिकारे के पास बैठ कर पूजा करते है। जिसमें खास तरिके के मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है।
हरनात सुत्पन्ने हरकालि हरप्रिये।
सर्वदा सस्यमूर्तिस्थे प्रणतार्तिहरे नमः।।
अर्थात, हे हारकाली। मैं तुम्हारे चरणों में अपना सर झुकाता हुँ (प्रणाम करता हुँ)। तुम सदा धान के खेतों में निवास करती हो और अपने भक्तों के दुख दूर करती हो।
ये भी कहा जा सकता है कि हरकाली पूजन शिव-पार्वती की विवाह जयंति है, इसी लिए उनके डिकारे बना के उनकी पूजा की जाती है। हरेले के पहले दिन शिव व उनके परिवार के लोगों के डिकारे एक साथ या अलग-अलग बनाये जाते है। शिव जी के डिकार इस लिए बनाये जाते है कि वे देवाधिदेव और हिन्दुवों के तिन देवताओं में से एक है। शिव जी देवताओं के देवता, पतियों के पति और भुवनेश्वर है।
डिकारे |
शिवार्चन यानी हरकाली पूजा के दुसरे दिन हमारा मुख्य पर्व हरेला मनाया जाता है। हरकाली पूजा, डिकारे बनाने की प्रथा ब्रह्मण परिवारों तक सीमित है, पर हरेला त्योहार बिना किसी भेद-भाव के साथ सब वर्गों के लोगों द्वारा बडे़ उमंग व उत्साह से मनाया जाता है। हरेला बोने के दस दिन बाद परिवार के सयाने लोग हरेला काटते है और फल, पकवान आदि के साथ सबसे पहले अपने इष्टदेव को अर्पित करते है। उसके बाद परिवार की सबसे बड़ी महिला दादी, माँ या दीदी द्वारा छोटे-बड़े सभी के सर में हरेला के तिनके रखते हुए आर्शीवाद स्वरूप ये बोलते है।
लाग हर्याव, लाग बसें, लाग बग्वाव
जी रया, जागि रया।
धरती जस आगाद, अगास जस चकौव है जया।
स्यु जस तराण, स्याव जसि बु़द्ध हो।
दुब जस पनप्यै, सिलि पिसि भात खयै
जाठि टेकी भैर जया।
कहि-कहि कुछ लोग हरेला के कुछ तिंके गोबर से दरवाजे की चौखट में चिपका देते है।
यहाँ लोगों में ये मान्यता है कि जो हरेला पर्व की उपेक्षा करेगा उसका कुछ ना कुछ अनिष्ट हो जायेगा। इस त्यौहार के समय नौकरी-पेशा करने वाले और घर से दूर रहने वाले विद्यार्थी कोशिश करते है कि वे घर में मौजूद रहें, अगर किसी कारणवश प्रवासी कुमाउँनी घर नहीं आ पाया हो तो उसे अच्छ्यत, पिठ्याँ, अशीक के साथ हरेला के तिनके भेज दिये जाते है।
हरेला पर्व के दिन अपने-अपने बाड़़ (आगन से लगा खेत) में केले का पेड़ जरूर लगाया जाता है।
ऐसा मालूम चला है कि वैदिक संस्कृति फैलने से पहले कुमाऊँ में रहने वाली आदि मानव जाति हरेला पर्व मनाती थी, पर बाद में शिव-पार्वती के विवाह जयंती भी संयोगवश इस पर्व के ठीक पहले दिन पड़ने के कारण हरकाली पूजा भी इस त्यौहार के साथ जुड़ गयी।
वैसे तो ये त्यौहार का सम्बंध कृषि से है, पर इसका माहात्मय इतना बड़ा है कि जब भी यहाँ का काई त्यौहार मनाया जाता है उस समय आर्शीवाद स्वरूप जो स्वस्तिवचन कहें जाते है उस में यहाँ की लोकभाषा में हरेला त्यौहार का जिक्र पहले करा जाता है।
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