KnowledgeBase


    रक्षाबंधन - जन्योपुण्यु | श्रावणी

    rakshbandhan

    जन्योपुण्यु

     अन्य नाम:   राखी, रक्षाबंधन, श्रावणी
      प्रचलित:   पुरे उत्तराखंड में
      सम्बंधित:   ब्राह्मण, भाई-बहन
      तिथि:   श्रावण पूर्णिमा
      अनुष्ठान:  जनेव धारण, सप्तऋषि पूजा, रक्षा बाँधना

    रक्षाबंधन को हिंदी में श्रावणी और उत्तराखंड में जन्योपुण्यु कहा जाता है। ये त्यौहार हर साल सावन के महीने की पूर्णिमा को मनाया जाता है इसलिए इसे श्रावणी भी कहा जाता है। इस दिन नयी जनेऊ धारण करी जाती है इसलिए इसे स्थानीय भाषा में जन्योपुण्यु भी कहा जाता है।


    असल में रक्षाबंधन व जन्योपुण्यु दोनों अलग-अलग पर्व है, वक्त के साथ-साथ ये दोनों त्यौहार एक हो गए है और एक साथ होने के कारण लोग दोनों में फर्क नहीं कर पाते है। पुराने समय में समाज चार वर्णों में विभाजित था और हर वर्ण का अपना एक मुख्य त्यौहार होता था, धीरे-धीरे वर्ण व्यवस्ता का अंत हो गया और ये वर्ण आधारित त्यौहार सभी लोग छोटे-छोटे बदलावों के साथ मनाने लगे। असल में श्रावणी त्यौहार ब्राह्मणों का त्यौहार है।


    श्रावणी पूर्णिमा के दिन रात को नदी या नौले के पास जा के तुलसी उगी हुई मिटटी और गाय के गोबर को मिला के शरीर में अच्छे से लेप लगा के स्नान करा जाता है, ये लेप शारीर की शुद्धि के लिए होता है। उसके बाद विधिपूर्वक पूरानी जनेऊ उतारी जाती है और नयी जनेऊ धारण करी जाती है। उसके बाद सप्तऋषि पूजा करके कलाई में रक्षा बाँधी जाती है और ब्राह्मण को भोजन व दक्षिणा दी जाती है।


    वैदिक काल में ये नियम था कि बालक आठ वर्ष तक अपनी माँ की देख रेख में रहने के बाद नौवा साल लगते ही अपने पिता की जिम्मेदारी में आ जाता था। पिता अपने पुत्र के लिए सुयोग्य गुरु ढूढ़ कर गुरुकुल भेजता था। गुरुकुल जाने से पहले धार्मिक अनुष्ठान करे जाते थे, इन अनुष्ठानों को उपनयन संस्कार कहा जाता था। उपनयन का मतलब है विद्याध्यन के लिए गुरु के समीप लेजाना। उपनयन संस्कार में बालक ये प्रतिज्ञा लेता है कि वो गुरु के प्रति निष्ठा रखेगा व लगन से विद्यार्जन करेगा। इस संस्कार के बाद पिता अपने पुत्र को गुरुकुल भेज देता था।
    श्रावणी के दिन उपनयन संस्कार के साथ एक और महत्वपूर्ण समारोह होता था जिसे समापवर्तन समारोह कहा जाता था। आजकल स्कूलों व विश्वविद्यालय में मनाये जाने वाला दीक्षान्त समारोह समापवर्तन समारोह का नया रूप है। समापवर्तन समारोह में विद्याध्यन पूर्ण होने के बाद शिष्य अपने गुरु को दक्षिणा देता था और गुरु अपने शिष्य को सत्य और धर्म के मार्ग पर चलते हुए गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने की आज्ञा देता था। श्रावणी पूर्णिमा में नयी जनेऊ पहनने और रक्षा धारण करने का कर्म आज भी आम कर्म है पर उपनयन और समावर्तन कर्म अब नहीं करा जाता है।


    शहरों में राखी का अलग प्रचलन दिखाई देता है, यहाँ नई जनेऊ धारण करने का प्रचलन कम है जबकि ग्रामीण छेत्रों में नई जनेऊ धारण करने को ज्यादा महत्व दिया जाता है। राखी व रक्षाबंधन के एक दो हफ्ते पहले बाजार रंग बिरंगी राखियों से सज जाता है। शहरों में रक्षाबंधन के दिन पतंगें भी उड़ाई जाती है इस दिन बच्चे व बड़े सब पतंगे उड़ाते है।


    रक्षाबंधन के दिन बहने ये कोशिस करती है कि वे अपने भाई की कलाई में अपने हाथ से राखी बांधे, अगर भाई अपनी बहन के पास नहीं आ सकता हो या परदेश में रहता हो, तो बहने अपने भाई के लिये राखी डाक द्वारा भेजती है और भाई उसके लिए भेट स्वरूप कुछ रुपए भेजता है। बहने राखी केवल सग्गे भाई को ही नहीं बाँधती अपितु कोई लड़की या स्त्री किसी दुसरे के भाई को या किसी पुरुष या लड़के को राखी बाँध के अपना भाई मान लेती है इस स्थति में उस लड़के या पुरुष का कर्तव्य होता है कि वो उस लड़की या स्त्री के सम्मान और मर्यादा की रक्षा करे। ऐसे बहुत से एतिहासिक प्रसंग हमे सुनने को मिलते है जब किसी स्त्री द्वारा किसी शत्रु पुरुष या किसी पुरुष को राखी भेज के या बांध के अपने सम्मान व मर्यादा की रक्षा करवाई है। उदाहरण के तौर पर इतिहास में रानी कर्मवती और हुमायु की कहानी बहुत प्रसिद्ध है।


    रक्षाबाँधने की प्रथा चलने के विषय में एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। एक बार देवताओं और राक्षसों में भयानक युद्ध छिड़ जाता है। राक्षसों को हावी होता देख इन्द्र को चिन्ता होने लगती है और वह अपने गुरु वृहस्पति से राक्षसों पर विजय प्राप्त करने का उपाय पुछते है। उस समय इन्द्र की सभा में इन्द्र की पत्नी इन्द्राणि भी बैठी थी। गुरु वृहस्पति के बोलने से पहले इन्द्राणि बोल उठी कि विजय का उपाय मुझे पता है। इन्द्राणि रेशम का धागा मन्त्र शक्ति से पवित्र करके इन्द्र के हाथ पर बाँध देती है। जिस दिन इन्द्राणि रक्षा धागा इन्द्र के हाथ में बाँधती है, संयोग से उस दिन श्रावणी पूर्णिमा थी। रक्षा कवच के प्रभाव से इन्द्र राक्षसों विजय प्राप्त कर लेता है। उस दिन से श्रावणी पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है।


    राखी भाई-बहन के पवित्र प्रेम और स्नेह का प्रतीक बन गया है, यही कारण है कि हर बार बहने बड़ी उत्कठा से इस त्यौहार की प्रतिक्षा करती है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय का प्रतिक माना जाता है। ये विश्वास करा जाता है कि श्रावणी पूर्णिमा के दिन जो व्यक्ति विधिवत रक्षाकवच यानी राखी धारण करें, वह वर्ष भर स्वस्थ्य और सुखी रहता है। यह एक ऐसा पावन पर्व है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को पूरा आदर और सम्मान देता है।


    उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि

    हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: फेसबुक पेज उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि

    हमारे YouTube Channel को Subscribe करें: Youtube Channel उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि

    Leave A Comment ?