सरयू और गोमती नदी के संगम पर बसा जिला बागेश्वर, शिव की बागनाथ नगरी के रूप में विख्यात है। बागेश्वर 14 सितम्बर 1997 को अल्मोड़ा से पृथक होकर एक नया जिला बनाया गया। पहाड़ो पर मकर संक्राति के अवसर पर कई नदियों के किनारे लगने वाले मेले या कौतिक में बागेश्वर मुख्य रूप से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि बागेश्वर में सरयू और गोमती के भौतिक संगम के साथ लुप्त सरस्वती नदी का भी मानस मिलन होता है, जिस कारण पहाड़ों में बागेश्वर को तीर्थराज प्रयाग के तुल्य माना गया है। सरयू का निर्मल जल सतोगुणी फल देता है व दूसरी धारा गोमती जो अम्बरीष मुनि के आश्रम में पलित नन्दनी गौ के सींगों के प्रहार से उत्पन्न हुई, को तमोगुण की वृद्धि करने वाला माना गया है एवं सरस्वती नदी भौतिक रूप से दृष्टिगोचर नहीं होती इसलिये इसे केवल आस्था का स्वरूप माना जाता हैं। पौराणिक आख्यानों के अनुसार इस जगह की स्थापना भगवान शिव के कहने पर उनके गण चंडीस ने दूसरी काशी के रूप में की। स्कंदपुराण के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि यहां तपस्यारत थे, ब्रहमर्षि वशिष्ठ जब देवलोक से विष्णु की मानसपुत्री सरयू को लेकर आये तो मार्कण्डेय ऋषि के तपस्यारत होने के कारण सरयू को प्रवाहित होने से रूकना पड़ा, ऋषि की तपस्या भी भंग ना हो एवं सरयू को भी मार्ग मिल सके इस आशय से माता पार्वती ने गाय और भगवान शिव ने व्याघ्र का रूप धारण किया एवं तपस्या में विलीन ऋषि से सरयू को मार्ग दिलाया। स्कंद पुराण में यह भी कहा जाता है कि यहां शिव स्वयंभू रूप में प्रकट हुए।
मकर संक्राति पर बागेश्वर में हर साल उत्तरायणी मेला लगता है जो कि लगभग एक हफ्ता चलता है। इस मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। और मकर संक्राति के दिन संगम पर डुबकी लगाते है। बागनाथ मंदिर में दर्शन करते है। इस दौरान संगम के आस पास मुंडन और जनेऊ संस्कार, कर्ण भेदन भी होते है। वर्तमान समय में तहसील परिसर से झांकी निकलती है जो कि नुमाइश खेत तक जाती है। जिसमें प्रशासन के लोगों के साथ साथ विद्यालयों के बच्चें, सांस्कृतिक दलों व शहर के लोग शिरकत करते हैं। पूरे कौतिक में भक्तिमय माहौल के साथ साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भी धूम रहती है। विभिन्न प्रकार की प्रतियोगितायें होती है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लोक कलाकारों की प्रस्तुतियां सबका मन मोह लेती है। अन्य जिलों व स्थानों से विभिन्न सांस्कृतिक दल आते है। वर्तमान में अपने प्रतिभा से उत्तराखण्ड का नाम रोशन कर रहें कलाकार भी समां बांध लेते है।
धार्मिक और व्यापारिक रूप से विख्यात यह मेला चंद वंशीय राजाओं के समय से काफी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि चंद वंशीय राजाओं के शासन काल में ही माघ मेला (उत्तरायणी मेला) की नींव पड़ी। बागेश्वर की समस्त भूमि से उत्पन्न उपज का एक बड़ा भाग मंदिरों में चढ़ावे के रूप में रखा जाता था। चंद राजाओं ने ऐतिहासिक बागनाथ मंदिर में पुजारी नियुक्त किया एवं तब यहां कि एक महत्वपूर्ण विशेषता थी कि इस क्षेत्र में कन्यादान नहीं होते थे। मेले की सांस्कृतिक एवं धार्मिक मान्यता संगम पर नहाने की थी एवं इसे मकर स्नान के नाम से भी जाना जाता था। यह स्नान एक माह तक किया जाता था। सरयू के तट को बगड़ कहा जाता है। पूर्वज बताते है महिनों पूर्व से मेला चलना आरम्भ हो जाता है। फलस्वरूप हुड़के की थाप उच्च होती है एवं लोकगीतों एवं नृत्य की महफिलें जमने लगती है। इनमें दानपुर और नाकरूपट्टी की चांचरी प्रसिद्ध है।
भगवान बागनाथ के दर्शन और संगम पर डुबकी लगाने तो दूर दूर से श्रद्धालु तो आते ही है, व्यापार हेतु भी व्यापारी कुमाऊं के साथ साथ गढ़वाल, नेपाल, तराई आदि जगहों से आते हैं। ब्रिटिश लेखक ई. शर्मन ओकले (Ebenzer Sherman Oakley) ने अपनी किताब होली हिमालायाज (Holy Himalaya) में बागेश्वर के उत्तरायणी मेले को कुमाऊँ का सबसे बड़ा मेला कहा है, जहां लगभग हजारों की संख्या में लोग पहुंचते है। पुराने समय पर भी तिब्बत प्रदेशों से, गढ़वाल से, नेपाल व देशी व्यापारी भी आते थे। मेले में कई हस्तनिर्मित व वर्तमान सामान का व्यापार होता है। जैसे तरह-तरह के बर्तन, काठ के बर्तन, चटाईयां, दरी, कम्बल, पंखियां, पश्मीने, जड़ी बूटियां ,मिठाइयां, श्रृंगार का सामान आदि। उत्तरायणी मेले में लोग भोटिया कुत्तें भी काफी खरीदते है। वर्तमान समय में झूले सर्कस,आदि मंनोरंजन के साधन लगने लगे है। नुमाइशखेत में तरह-तरह के स्टाॅल लगते हैं जिनमें बीज, कृषि औजार, पहाड़ी फलों के जूस आदि प्रकार के स्टाॅल होते हैं। पुराने समय में जानवरों की खाल का भी मेले में प्रमुख रूप से व्यापार होता था परन्तु जीव संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद खाल आदि बेचने पर प्रतिबंध लग गया। पारम्परिक सामग्रीयों के साथ-साथ आधुनिक चका चैंध ने भी अब अपनी जगह बना ली है।
मेले का अपना ऐतिहासिक महत्व भी है। कुली बेगार प्रथा को समाप्त करने के लिये बद्री दत्त पाण्डे जी के नेतृत्व में चलाये गये आन्दोलन में हरगोविन्द पंत जी, विक्टर मोहन जोशी, ईश्वरी लाल साह आदि की सहभागिता के साथ मकर संक्राति के दिन ही 1921 में सरयू बगड़ में सरकारी रजिस्ट्ररों को फाड़कर सरयू की अविरल धारा में बहा दिया था, जो कि बागेश्वर के उतरायणी कौतिक के इतिहास का गौरवान्वित पृष्ठ है। इसी आंदोलन की सफलता के बाद बद्री दत्त पाण्डे जी को 'कुमाऊँ केसरी' की उपाधि मिली थी।
उत्रायणी मेला मकर संक्राति के पूर्व संध्या से प्रारम्भ होता है, धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से यह काफी महत्व रखता है इसे घुघुतिया त्यौहार के रूप में भी मनाया जाता है एवं उत्तराखण्ड में इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि इसे दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है। इस त्यौहार को कुमाऊँ में दो दिन मनाया जाता है, नदी कि बायीं तरफ में बसे लोग पहले दिन एवं दायीं तरफ बसे लोग दूसरे दिन इस त्यौहार को मनाते है।
जानकारी आभार - हिमानी डसीला
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