कुमाऊं में होलिकोत्सव का समापन यद्यपि अपनी एक विशिष्ट परम्परा है जिसका देश के अन्य भागों के समान ही फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को होता है, किन्तु इसका आयोजन अन्य क्षेत्रों के होलिकोत्सव से पर्याप्त भिन्न रूप में किया जाता है (वस्तुत: किया जाता था)। अभी कुछ दशक पूर्व तक होली का यह उत्सव सम्पूर्ण कुमाऊं क्षेत्र में सामान्यत: तीन चरणों में सम्पन्न हुआ करता था। जिसमें दो चरण 'बैठी होली' को तथा अन्तिम एक चरण 'खड़ी होली' को समर्पित होता था। फलत: बैठी होली के प्रथम चरण का प्रारम्भ पौष के प्रथम रविवार को तथा द्वितीय का वसन्तपंचमी (माघ शुक्ल पंचमी) को होता था तथा तृतीय चरण का फाल्गुन शुक्ल एकादशी (आमलकी एकादशी) को होता था अर्थात् कहीं-कहीं प्रथम चरण में तबला, हारमोनियम, मजीरे आदि वाद्यों की संगत पर होली गान की ये बैठकें प्रारम्भ हो जाती थी। होली गीतों के शौकीन लोग घरों में एकत्र होकर रात को नियत स्थानों पर ये बैठकें किया करते थे। होली के जाने-माने सिद्धहस्त गायकों को इन बैठकों में गाने के लिए आमंत्रित किया जाता था।
ये गीत शास्त्रीय संगीत पर आधारित होते हैं। इनमें रात्रि के बढ़ते प्रहरों के अनुसार रागों का अनुसरण किया जाता है। शिवरात्रि (फा. चतुर्दशी) से इन बैठकों में अधिक तीव्रता आने लगती थी। ये बैठकें नियमित रूप से पूरे उत्साह एवं हर्षोल्लास के साथ आयोजित की जाने लगती थी। रात्रि को भोजन के उपरान्त होली के शौकीन लोग किसी नियत घर में एकत्र होते थे। भाग लेने वालों को चायपान के साथ भांग युक्त मिष्ठान दिये जाते थे। इनकी मादकता से प्रभावित गायक, वादक एवं श्रोता सारी रात झूम-झूम कर इन बैठकों का आनन्द लेते थे। स्त्रियों की अपनी पृथक् बैठकें हुआ करती थी। शिवरात्रि के दिन से रस-रंग और श्रृंगार परक होलियां गायी जाने जाती है जबकि शिवरात्रि से पूर्व धार्मिक होलियों का ही गायन होता है। रंगभरी होली के द्वितीय चरण का प्रारम्भ आमलकी एकादशी से होता है। दस दिन महिलाएं व्रती रह कर आवले के वृक्ष की पूजा करती हैं तथा उस पर अबीर-गुलाल चढ़ाकर रंगभरी होली का प्रारम्भ करती हैं तथा इसी दिन होलिका दहन के निमित्त चीरबन्धन भी किया जाता है। इस दिन से होली बैठकों में गाने वालों तथा भाग लेने वालों के मस्तकों पर रंगों का लगाया जाना प्रारम्भ हो जाता है। इसके बाद फाल्गुन शुक्ल पौर्णमासी तक यह सिलसिला इसी रूप में चलता रहता है।
चीर स्तम्भारोपण
जैसा कि ऊपर कहा गया है, होली के तीसरे चरण अर्थात् खड़ी होली का प्रारम्भ आमलकी एकादशी (फा.शु.) से होता है। इस दिन रंगभरी खड़ी होली के प्रारम्भ से पूर्व, कहीं-कहीं इससे पूर्व ही अष्टमी या नवमी को भद्रादिरहित शुभमुहूर्त में गांव के किसी देवस्थल के प्रांगण में अथवा किसी मध्यस्थ खुले सार्वजनिक स्थान में बांस अथवा चीड़ आदि का एक लम्बा ध्वजस्तम्भ लेकर गाड़ा जाता है जिसे चीरवृक्ष या चीर का आरोपण कहा जाता है। इसे आरोपित कर इसके सिरे पर प्रत्येक घर से लाये गये अबीर-गुलाल से रंजित श्वेत नये वस्त्रखंडों को बांधा जाता है जिन्हें चीर कहा जाता है। कोई पुरोहित उपलब्ध होने पर मंत्रोच्चार पूर्वक अन्यथा वैसे ही इस पर अबीर-गुलाल छिड़क कर उसके मूल में काष्ठ संचय किया जाता है जिसमें होलिका दहन के दिन तक प्रतिदिन काष्ठ की अभिवृद्धि की जाती रहती है। इसे स्थापित करने के बाद इसके चारों ओर घूमते हुए खड़ी होली के गीतों का गान किया जाता है। उल्लेख्य है कि बैठी होली में अकेला गायक हारमोनियम की धुन तथा तबले की ताल पर बैठे-बैठे ठुमरी, ख्याल, श्यामकल्याण आदि रागों की धुन पर होलीगीत गाता है और सभी श्रोता बैठ कर उसका आनन्द लेते हैं, जबकि खड़ी होली में सभी सहभागी विशेष मुद्राओं में हस्त-पादों का संचालन करते हुए ढोल की धुन पर खड़े होकर नाचते हुए राधाकृष्ण की प्रेमलीलाओं से सम्बद्ध गीतों को विशेष प्रकार की स्वरलय के साथ गाते हैं।
इस संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि बहुत से बड़े गांवों में जहां पर विभिन्न जातियों व वर्गों के लोग रहते हैं वहां उनके अपने-अपने चीरवृक्ष स्थापित किये जाते हैं। इसमें कई बार एक वर्ग के द्वारा आरोपिन चीर का रात को चोरी से अपहरण करने का प्रयास भी किया जाता है। अत: कभी कभी गांव के युवक रातभर होली गाते हुए उस पर दृष्टि रखते हैं, क्योंकि किसी अन्य वर्ग के लोगों के द्वारा चीर का अपहरण कर लिए जाने पर उस वर्ग के लोग तब तक होली की चीर का पुन: आरोपण नहीं कर सकते जब तक कि वे इसी प्रकार से गुप्त रूप से किसी अन्य पक्ष की चीर का आहरण करने में सफल नहीं होते। चीर वृक्ष का हरण उस वर्ग के लोगों के लिए अमंगलदायक समझा जाता है।
चीरबन्धन के सम्बन्ध में पुराने लोगों का कहना है कि यह केवल उन्हीं गांवों में होता था जिन्हें तत्कालीन सामन्तों द्वारा ध्वजा प्रदान की गई होती थी। इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेख्य है कि होली मनाने की अवधि व इसका स्वरूप सर्वत्र समान नहीं था। कई गांवों में होली का चलन न होकर चैत के पूरे महीने झोड़े और चांचरियां नाची-गायी जाती थी। कहीं अभी भी यह प्रथा जीवित है। जिन गांवों को ध्वजाएं प्राप्त थीं वही चीरबन्धन भी होता था। अब तो यह निरपवाद रूप से सर्वत्र आमलकी एकादशी को किया जाता है और इसी दिन से रंग भी प्रारम्भ हो जाता है। इसे रंगवाली एकादशी भी कहा जाता है।
चीरस्तम्भ के आरोपण के साथ ही खड़ी होली का प्रारम्भ हो जाता है जो कि छरड़ी/ छलड़ी/धुलेडी (पौर्णमासी के अगले दिन) तक चलता रहता है। चीरबन्धन के उपरान्त भक्तिरस पूर्ण होली गीत गाये जाते हैं। सर्वप्रथम गणपति वन्दन होता है। सिद्धि को दाता विघ्नविनाशन, होरी खेलें गिरिजापति नन्दन। अगले दिन से खड़ी होली के लिए होली गायकों की टोलियां ढोल-दमामों के साथ चांदनी रातों में गाते-नाचते हुए घर-घर जाकर उनके प्रांगणों में एक गोल घेरे में खड़े होकर और ढोल वादक को बीच में खड़ा करके होली गान के लिए नियत विशेष प्रकार के हस्त-पाद संचालन के साथ ढोल की धुन पर होली गानों का प्रारम्भ करते हैं। जिसमें पारम्भिक गीत के बोल होते हैं- खोलो भइया धरम किवाड़ हम होली खेलें...। तदपरान्त कुमाउनी 'खड़ी होली' में गाये जाने वाले बहुप्रचलित लोकप्रिय गीतों की बारी आती है। वैसे तो इन गीतों का मुख्य विषय होता हैं, व्रजभूमि तथा राधाकृष्ण के प्रेमप्रसंग। किन्तु भगवान् राम, शिव, गणपति आदि से एवं पति-पत्नी, देवर-भाभी, ऋतु-मास आदि से सम्बद्ध गीत भी गाये जाते रहते हैं।
होली नृत्य-गानों के बीच घर के बालकों व महिलाओं द्वारा होली गायकों के ऊपर रंगों की बौछार की जाती रहती है। अन्त में शुभाशंसात्क, मंगल कामनात्मक गीत के साथ होलीगान को समाप्त किया जाता है।
विभिन्न प्रयोजनों से सभी के युगयुगों तक जीवित रहने की कामना की जाती है। ग्राम के सभी वर्गों के द्वारा सामूहिक रूप से प्रस्तुत होली के इन नृत्य-गीतों की समाप्ति पर गृहपति के द्वारा उन्हें एक भेली (लगभग 2कि.) गुड़ की तथा होली के भण्डारे के लिए निर्धारित धनराशि दी जाती है। इसमें से गुड़ की भेली को तो वहीं पर तोड़कर परस्पर बांट लिया जाता है तथा पैसों को एक नियत व्यक्ति के पास जमा कर दिया जाता है। इसके बाद चांदनी रात में यथापूर्व ढोल की धुन पर नाचते गाते उस दिन के लिए निर्धारित गांवों के अन्य घरों में जाते हैं जहां पुन: होली के उपर्युक्त रूप का पुनरावर्तन होता है। होलीगान का यह क्रम रात्रि के चतुर्थ प्रहर तक या अगली प्रात:काल तक चलता है। कभी कभी दो-तीन गांवों के लोग भी मिलकर होली खेलते हैं तब होली गाने के लिए इन सभी गांवों में बारी-बारी से जाना होता है। इस अवसर पर अन्यथा राग-द्वेष के कारण न जाने वाले घरों में भी लोग निद्वेष भाव से जाते हैं और कई बार इसके फलस्वरूप द्वेषभाव का भी अन्त हो जाता है। कभी कभी हास्य-विनोद के लिए एक व्यक्ति को 'जोकर' भी बनाया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व तक लोगों में होली के लिए बहुत उत्साह तथा मेल-मिलाप की प्रबल भावना हुआ करती थी जिसमें अब दिन प्रतिदिन हास होता जा रहा है। लोगों में अब न वह भावना देखने को मिलती है और न वह उत्साह। पहले लोग इस अवसर पर कही गयी बातों का या हंसी-मजाक का बुरा नहीं मानते थे, किन्तु अब तो कई बार लोग इन बातों को लेकर लड़ने-मरने को तैयार हो जाते हैं। होली के प्रति उत्साह भी कम होता जा रहा है। पहले लोग बड़ी उत्सुकता से इस उत्सव की प्रतीक्षा करते थे। सम्पन्न लोगों में इसके लिए विशेष रूप से सफेद वस्त्र, विशेष रूप से चूड़ीदार पाजामा, कमीज, वास्कट अथवा कोट सिलाये जाते थे। सिर पर पाग होती थी। ढांक के फूलों का रंग बनाया जाता था। काली कुमाऊं में 'बनजारा खड़ी होली' के फाग अपना विशेष स्थान रखते हैं।
चीरदहन
इस प्रकार एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक खड़ी होली के रंगभरे गीतों तथा नृत्यों का आनन्द लेकर पौर्णमासी की समाप्ति तथा प्रतिपदा के प्रारम्भकाल में मुहूर्त विशेष में विशेष अनुष्ठान पूर्वक काष्ठ के डर के मध्य में प्रतिष्ठापित चीर वृक्ष को चीरों के साथ अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है। बच्चे चीरवस्त्रों के टुकड़ों को छीन झपट कर अपने कोटों, कमीजों आदि के काजों के छिद्रों में फंसा लेते हैं। विश्वास किया जाता है कि इससे उनकी छल-छिद्र से रक्षा होती है। इसके अगले दिन अर्थात् प्रतिपदा को, जिसे छलड़ी/छरडी या धुलैडी कहा जाता है नगरों तथा कस्बों में लोग घरों से बाहर निकल कर एक दूसरे के मुंह पर अबीर-गुलाल मलते हैं और गले मिलते हैं। बड़ों के द्वारा रंग लगाये जाने पर महिलाएं चरण छूती हैं। गांवों में कुछ लोग इसकी राख को शरीर पर मल कर स्नान करते हैं। समझा जाता है इससे चर्मरोगों का परिहार होता है। दो-दो, चार-चार घरों में बिखरे हए ग्राम खण्डों में जहां पर सामूहिक रूप से चीरदहन तथा धुलैड़ी की होली नहीं खेली जाती है। वहां पर लोग अपने को चर्मरोगों से सुरक्षित रखने के लिए शरीर पर गोबर तथा मिट्टी मलकर स्नान करते हैं।
पश्चिमी कुमाऊं के रामगंगा के तटवर्ती क्षेत्रों में चीरवृक्ष का आरोपण गांव के देवस्थल के प्रांगण में किया जाता है तथा उसका दहन न कर जल में विसर्जन किया जाता है। इसके लिए धुलैड़ी के दिन सारे गांव के लोग एकत्र होकर देवस्थान से उसका उत्पाटन करते हैं तथा एक व्यक्ति उसे लेकर जनसमूह के आगे-आगे चलता है। वे उसे लेकर गांव के प्रत्येक घर के आगे जाकर होली गीत के साथ सबके लिए शुभाशंसा के साथ मंगलकामना करते हुए उसे रामगंगा के तट पर ले जाते हैं तथा वहां पर इसके लिए विशेष रूप से नियत स्थान (घाट) पर इसका जल में विसर्जन किया जाता है और स्नान के उपरान्त होली के वस्त्रों का भी जलप्रवाह कर दिया जाता है। इससे अगले दिन होली के दौरान एकत्र को गयी धनराशि से ग्रामदेवता के स्थल में भण्डारे का आयोजन किया जाता है जिसमें गांव के आबालवृद्ध सभी भाग लेते हैं।
यहां पर होली के संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि पहले जब दलितों को, जिन्हें अन्यथा अछूत समझा जाता था, होली के संदर्भ में अछूत का सा व्यवहार नहीं किया जाता था। खड़ी होली का ढोल वादक तथा बैठी होली का तबला वादक इसी वर्ग से होता था और होली के बीच दिये जाने वाले जलपान अथवा मिष्ठान्न (गुड़ आदि) के वितरण में उनमें तथा सवर्णों में कोई अन्तर नहीं किया जाता था। छलड़ी/धुलैड़ी के दिन तो इनसे गले मिलना अथवा इनका स्पर्श करना शुभ माना जाता था।
टीका
धुलैड़ी/छलड़ी के दूसरे दिन अर्थात् चैत्र कृष्ण द्वितीया को टीका कहा जाता है। इस दिन का यह टीका पति-पत्नी, देवर-भाभी तथा जीजा-साली के बीच हुआ करता है। जिस प्रकार भैय्यादूज के दिन किया जाने वाला टीका भाई-बहिन के स्नेहबन्धन का प्रतीक माना जाता है, उसी प्रकार इस दिन का यह टीका उपर्युक्त युग्मों के पारस्परिक स्नेहबन्धन का प्रतीक माना जाता है। फलतः इस टीके के सहभागी युग्मों में इनके स्नेह-सम्बन्धों के बीच प्रगाढ़ता की कामना से एक दूसरे को टीका (गन्धाक्षत) किया जाता है तथा परस्पर सुखभय दीर्घजीवन की कामना की जाती है। किन्तु टीके की यह प्रथा सार्वभौम नहीं है। केवल कुछ क्षेत्रों में तथा वर्ग विशेष के लोगों में ही प्रचलित है। इसके बाद भी कहीं-कहीं संवत्सवर प्रतिपदा अथवा रामनवमी तक भी होली गायन चलते रहते थे। पिथौरागढ़ में यह प्रथा अभी भी छुटपुट रूप से जीवित हैं।
महिला होली
कुमाऊं में पुरुषों की बैठी एवं खड़ी होली के अतिरिक्त महिलाओं की अपनी अगल बैठी होली भी हुआ करती है जिसका आयोजन विशेषत: नगरों में रहने वाली महिलाओं तक ही परिसीमित हुआ करता है। इसमें आसपास की एवं जान-पहचान की महिलाएं गृहिणी विशेष, जहां परम्परागत रूप में यह आयोजन किया जाता है। के आमंत्रण पर उस घर में नियत समय पर एकत्र होकर मजीरे-ढोलक की धुनों पर होली के गीतों का गान करती हैं। अपने इस आयोजन में वे होली के गीतों के गायन के अतिरिक्त पुरुषों को लक्ष्य करके तरह-तरह के हंसी-ठठोली वाले स्वांग भी भरती हैं। अत: इनकी होली में पुरुषों को भाग लेने की अनुमति नहीं होती है। महिलाओं द्वारा आयोजित की जाने वाली होलियों की इन बैठकों का प्रारम्भ विघ्नविनाशक, सिद्धिदायक गणपति की स्तुति से होता है जिसके प्रारम्भिक बोल होते हैं- 'तुम सिद्धि करो महाराज होलिन में।' इसके बाद चीरबन्धन से सम्बद्ध गीत 'कोउ बांधे चीर जै रघुनन्दन' जैसी पंक्तियों का गान किया जाता है। तब प्रारम्भ होता है भक्ति, श्रृंगार, व्यंग्य-विनोद से युक्त होली गीतों का, यथा 'रंग डारि दियो अलबेलिन में' आदि-आदि और अन्त में जिस घर में यह आयोजन किया जा रहा होता है उसके सभी सदस्यों की दीर्घायु एवं मंगलकामना के साथ इसकी समाप्ति की जाती है। इस सम्बन्ध में जो गीत गाया जाता है उसके बाल कुछ इस प्रकार होते हैं-
सांवरी रंग डारो भिगावन को, केसरी रंग डारो भिगावन को।
ब्रह्मा विष्णु जीवै लाख बरी (बरीसा), उनकी नारी रंगभरी ।। सांवरी...
इसी परम्परा में घर के वरिष्ठतम सदस्य से लेकर कनिष्ठतम सदस्य तक सभी का नाम लेकर उसके लाख वर्ष तक जीने तथा उनकी नारियों द्वारा रंगभरी होली खेली जाते रहने की कामना के साथ इन गीतों की समाप्ति की जाती है।
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