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गिरीश चन्द्र तिवारी | |
जन्म: | सितम्बर 10, 1945 |
जन्म स्थान: | गाँव ज्योलि, अल्मोड़ा |
पिता: | श्री हंसा दत्त तिवारी |
माता: | श्रीमती जीवन्ती देवी |
व्यवसाय: | कवि, लेखक |
शिक्षा: |
गिर्दा ने अपने गीतों, कविताओं से उत्तराखण्ड में समय-समय पर चले जनांदोलनों चिपको, नशा नहीं-रोजगार दो, उत्तराखण्ड आंदोलन और इन दिनों चलाए जा रहे ‘नदी बचाओ आंदोलन’ को नए तेवर दिए। उनके गीतों में वह ताकत थी कि वह सोए और निष्क्रिय पड़े लोगों को झकझोरने और सोचने को विवश कर देते थे।
प्रारंभीक जीवन
सरकारी अभिलेखों में गिर्दा की जन्म तारीख 10 सितम्बर 1945 दर्ज है लेकिन उनके पिरवार के लोग उनका जन्म 1943 में रक्षा बंधन के अगले दिन का बताते हैं। गिर्दा का जन्म अल्मोड़ा जिले के हवालबाग विकासखण्ड के गाँव ज्योलि में हुआ था। उनकी माँ का नाम जीवन्ती देवी और पिता का नाम हंसा दत्त तिवारी था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा हवालबाग और अल्मोड़ा में पूरी करने के बाद गिर्दा का मन सांस्कृतिक गतिविधियों की ओर रम गया। उनकी प्रतिभा को संवारने में अल्मोड़ा के लोक कलाकार संघ का योगदान काफी रहा। गिर्दा अपने बचपन के दिनों में अक्सर अल्मोड़ा शहर अपने चाचा बद्रीदत्त तिवारी के पास आया-जाया करते थे। वह दौर संस्कृति कर्म के क्षेत्र में तत्कालीन प्रसिद्ध रंगकर्मी मोहन उप्रेती और ब्रजेन्द्र लाल शाह का था। इनके सांस्कृतिक जीवन ने भी गिर्दा के लिए प्रेरणा का कार्य किया।
इसी बीच न जाने क्या सोचकर गिर्दा घर से भाग गए और पीलीभीत तथा पूरनपुर क्षेत्रों में रहे। कुछ समय तक यहाँ रहने के बाद गिर्दा लखनऊ और अलीगढ़ पहुंच गए। इस स्थानों में गिर्दा ने आजीविका के लिए रिक्सा चलाया। इसी दौरान गिर्दा का परिचय असंगठित मजदूरों के कुछ संगठनों और वामपंथी कार्यकर्ताओं से हुआ। इस अवधि में गिर्दा को दलितों और वंचितों की दशा को काफी करीब से जानने और समझने का अवसर मिला। इसने उनकी संवेदनशीलता और गतिशीलता बढ़ाने में मदद की।
साहित्यिक जीवन
इसके बाद गिर्दा ने लखनऊ में लोकनिर्माण विभाग और बिजली विभाग में नौकरी की। स्थाई नौकरी उन्होंने 1967 में गीत और नाटक प्रभाग में शुरू की। यहीं से उनका लखनऊ के आकशवाणी केन्द्र में भी आजा शुरू हुआ। आकाशवाणी के कार्यक्रमों के बहाने गिर्दा की मुलाकात शेरदा अनपढ़, केशव अनुरागी, घनश्याम सैलानी, उर्मिल कुमार थपलियाल जैसे दूसरे युवा रचनाधर्मियों से हुई। केशव अनुरागी का गिर्दा को विशेष स्नेह और प्यार मिला। केशव अनुरागी के ‘ढोल सागर’ ने उन्हें विशेष तौर पर प्रभावित किया। अपने लखनऊ प्रवास के दौरान गिर्दा ने लिखने के साथ-साथ गलिब, फिराक, बच्चन, फैज, निराला, पंत, नजीर और नीरज जैसे प्रसिद्ध रचनाकारों का गहन अध्ययन किया। गीत और नाटक प्रभाग में उनकी नियुक्ति प्रभाग के उपनिदेशक ब्रजेन्द्र लाल शाह को अपने इस शिष्य पर हमेशा गौरव का अनुभव हुआ। उन्होंने एक बार कहा भी, “गिरीश अब बहुत आगे निकल गया है।” नौकरी के दौरान गिर्दा ने कई नाटकों की प्रस्तुतियाँ तैयार की। जिनमें गंगाधर, होली, मोहिल माटी, राम, कृष्ण आदि नृत्य नाटिकाएँ भी शामिल थीं। इसी बीच उन्होंने दुर्गेश पंत के साथ मिलकर कुमाउँनी कविताओं का सुंग्रह ‘शिखरों के स्वर’ 1968 में प्रकाशित किया। जिसका दुसरा संस्करण 2009 में ‘पहाड़’ संस्था ने प्रकाशित किया।
इसके बाद गिर्दा कुमाउँनी और हिन्दी में लगातार कविताएँ लिखते रहे। उन्होंने अनेक गीतों और कविताओं की धुनें भी तैयार की। अंधायुग, अंधर नगरी चौनपट राजा, नगाड़े खामोश हैं, धनुष यज्ञ जैसे अनेक नाटकों का उन्होंने निर्देशन भी किया। जिनमें से नगाड़े खामोश हैं और धनुषयज्ञ जैसे कुछ नाटक उन्होंने स्वंय लिखे थे। इसी बीच उत्तराखण्ड में जंगलों के अंधाधुंध कटान के खिलाफ चिपको आंदोलन 1974 में और जंगलात की लकड़ियों के नीलामी के विरोध में 1977 में जनांदोलन शुरू हो चुके थे। 1977 के आंदोलन में गिर्दा एक जनकवि के रूप में कुद पड़े। नीलामी का विरोध में 1977 में जनांदोलन शुरू हो चुके थे। 1977 के आंदोलन में गिर्दा एक जनकवि के रूप में कुद पड़े। नीलामी का विरोध करने वाले युवाओं को गिर्दा के इन शब्दों, “आज हिमाल तुमन कैं धत्युछ, जागौ-जागौ हो मेरा लाल” ने अपार शक्ति और ऊर्जा प्रदान की। अपने गीतों से 1984 के ‘नशा नहीं, रोजगार दो’ और 1974 में उत्तराखण्ड आंदोलन को उन्होंने नए तेवर और ताकत दी। प्रसिद्ध कथाकार नीवन जोशी कहते हैं, “हमारी पीढ़ी के लिए गिर्दा बड़े भाई से ज्यादा एक करीबी दोस्त थे, लेकिन असल में वह संपूर्ण हिंदी समाज के लिए त्रिलोचन और बाबा नागार्जुन की परम्परा के जन साहित्य नायक थे। उत्तराखण्ड के वन आंदोलन और सुरा-शराब विरोधी आंदोलन के दौर में उन्होंने फैज अहमद फैज की क्रान्तिकारी रचनाओं का न केवल हिन्दी में सरलीकरण किया, बल्कि उनका लोक बोलियों में रूपान्तरण करके उन्हें लोकधुनों में बाँधकर जनगीत बना डाला।”
आन्दोलन
राज्य आंदोलन के 1994 के भीषण दौर में अनेक सभाओं की शुरूआत गिर्दा ने निम्न गीत से होती थी-
धरती माता तुम्हारा ध्यान जगे
ऊँचे आकाश तुम्हारा ध्यान जगे
दिन के सूर्य, रात के चन्द्रमा
तुम्हारा ध्यान जगे
इस कथा बेला में हम तुम्हें जगाते रे
राख के मनखियों तुम्हारा ध्यान जगे।
गीत की इन पंक्तियों के माध्यम से वह राज्य के लिए संघर्ष करने को सभी का आह्वान कर रहे होते थे। इसके अलावा राज्य आंदोलन के दौर में ‘हम लड़ते रयां भुला, हम लड़ते रूलों’ और ‘ओ जैंता एक दिन त आलो उ दिन य दुनी में’ गीतों ने भी लोगों को एक नई ऊर्जा से सराबोर किया। कई स्थानों पर इन गीतों को गाते हुए लोग कर्फ्यू तोड़कर सड़कों पर उतर आए। राज्य निर्माण के बाद भी गिर्दा और उनका रचनाकार सदैव सक्रिय और सचेत रहा। राज्य के जन संगठनों ने जब 2008 को ‘नदी बचाओ’ वर्ष घोषित किया और विभिन्न स्थानों से ‘नदी बचाओ’ पदयात्राएँ निकाली गई तो गिर्दा खामोश कैसे रह सकते थे? गिर्दा हुंकार मार कर बोल उठे-
अजी वाह! क्या बात तुम्हारी,
तुम हो पानी के ब्योपारी
खेल तुम्हारा तुम्हीं खिलाड़ी,
बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी।
सारा पानी चूस रहे हो,
नदी समन्दर लूट रहे हो।
गंगा-यमुना की छाती पर,
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो।
मृत्यु
लोगों की पीड़ा और जनांदोलनों की धार के कारण गिर्दा ने 1996 में गीत एवं नाट्य प्रभाग से स्वैछिक अवकाश ग्रहण किया और पूरी तरह से जन सक्रियता से जुड़ गए। 2001 में उन्हें दिल का भयानक दौरा पड़ा, उसके बाद उनके शरीर में अनेक बीमारियों न जैसे अपना धर ही बना लिया था। वह अल्सर और गठिया से भी पीड़ित हो गए। इसके बाद भी उन्होंने जनांदोलनों में अपनी हिस्सेदारी और सक्रियता नहीं छोड़ी। प्रसिद्ध लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी के साथ कई अवसरों पर उनके द्वारा की गई जुगलबंदी ने विदेशों तक में अपनी धूम मचाई। गिर्दा की सोच और लेखन को किसी परम्परा या लोक में नही बांधा जा सकता है। वह जो कुछ सोचते थे, वही करते भी थे।
उत्तराखण्ड में जनगीतों के नायक माने जाने वाले गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ की असमय ही 22 अगस्तए 2010 को अल्सर फट जाने से हुई।
लेखक -जगमोहन रौतेला - वरिष्ठ पत्रकार, बिठौरिया, हल्द्वानी
संदर्भ - पुरवासी - 2011, श्री लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब), अल्मोड़ा, अंक : 32
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