गुमानी पंत व लोकरत्न | |
जन्म: | मार्च 11, 1790 |
जन्म स्थान: | काशीपुर, उधमसिंह नगर |
पैतृक निवास: | उपराड़ा (गंगोलीहाट), पिथौरागढ़ |
पिता: | पं. देवनिधि पंत |
माता: | देवमंजरी |
व्यवसाय: | संस्कृत के कवि और रचनाकार |
निधन: | 1846 |
गुमानी का मूल नाम लोक रत्न पन्त बताया जाता है। गुमानी पन्त के पूर्वज चन्द्र वंशी राजाओं के राजवैद्य थे। जनकवि गुमानी का जन्म 27 फरवरी 1790 में काशीपुर वर्तमान जनपद उधम सिंह नगर में हुआ था। अपने परिवार की परम्परानुसार गुमानी सर्वप्रथम राजकवि के रुप में काशीपुर नरेश गुमान सिंह देव की राजसभा में नियुक्त हुए थे। तत्कालीन अन्य राजाओं द्वारा भी उन्हें सम्मान प्रान्त हुए थे। टिहरी नरेश सुदर्शन शाह के दरवार में वे राजकवि के रुप में रहे। वे कुमाऊँनी, संस्कृत, हिन्दी व नेपाली भाषा के विद्वान थे जैसा उनकी कृतियों से ज्ञात होता है।
गुमानी अभी तक ज्ञात कुमाऊँनी के प्राचीनतम लेखक हैं। उनकी कृतियाँ कुमाऊँ में पर्याप्त लोक प्रिय है। ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि कुमाऊँ का शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो उन्हें न जानता हो। संभवतः अपनी छोटी-छोटी कविताओं के कारण भारत के मैदानों में तिरहुत तक उनका नाम सुना जाता है। इनका मूल निवास गंगोली की उपराड़ा ग्राम था। कुशाग्र बुद्धि गुमानी ने विद्याध्ययन के पश्चात देशाटन हेतु भारत के विभिन्न स्थानों की यात्रा की। तत्कालीन देश, स्थिति, राजनीति का अध्ययन करते हुए वे भारत के विभिन्न स्थानों में घूमते रहें।
रचनाकर्म
जनकवि गुमानी विरचित ग्रंथों की संख्या लगभग 18 कही जाती है। जिनमें गंगा शतक, कृष्णाष्टक, नीति शतक, शतोपदेश, ज्ञान भैषज्य मंजरी आदि प्रमुख है। कुछ रचनाएँ निर्णय सागर प्रेस बम्बई से प्रकाशित "काव्यमाला" में भी हैं।
औपनिवेशिक शासन तथा कविवर गुमानी का कृतित्व
देवीदत्त पाण्डे ने गुमानी का रचनाकर्म 1810 से माना गया है। यमुनादत्त वैष्णव "अशोक" के अनुसार वे 1812 के लगभग काशीपुर के राजा गुमान सिंह के राजकवि नियुक्त हुए। यद्यपि जनकवि गुमानी ने अनेक ग्रंथो की रचना की किन्तु वे मूलतः संस्कृत के कवि थे। नेपाली में भी उन्होंने कुछ रचनाएँ की हैं।
गुमानी आशु कवि थे तत्कालीन सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों का सम्यक ज्ञान रखते थे। उनके कृतित्व में औपनिवेशिक शासन के कुप्रभावों तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों की सटीक आलोचना दृष्टिगत होती है। पूर्णतः कुमाऊँनी में रचित कविताएँ राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत मिलती हैं।
चूँकि गुमानी ने गोरखाओं का अत्याचारी शासन, अंग्रेजी शासन का कठोर दमन चक्र व बेगार की पीड़ा को स्वयं देखा था अतः व्यंग्यात्मक स्वरों में उसका चित्रण किया।
गोरखा अत्याचारों का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
"दिन दिन खजाना का भार का बोकणा लै,
शिव शिव चुली में बाल नै एक कै का।
तदपि न तेरो मुल्क लै छोटी भाजा।।
इति बदति गुमानी धन्य गोरखाली राजा।"
अर्थात नित्य खजाने का बोझ उठाते - उठाते किसी की चोटी में एक बाल तक नहीं रह गया। फिर भी तेरा राज्य छोड़कर नहीं भागे हैं गोरखाली राजा। तुम्हें धन्य हैं।
गुमानी अंग्रेज अधिकारियों की दुर्नीतियों की निन्दा भी करते हैं।
गुमानी का मानना था यदि आपसी फूट न होती तो भारत में अंग्रेजी शासन भारत में स्थापित न होता।
"बादशाह दिल्ली में होता फूट न होती राजन में,
हिन्दुस्तान मुशकल होता वश करना मुद्दतन में,
कहै गुमानी अंग्रेजन से कर लो चाहो जो मन में,
धरती में नहीं वीर तमाशा तुमै दिखाता जो रण में।
यह पंक्तियाँ 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लगभग 37 साल पहले 1820 में रची गई। जब कम्पनी शासन के विरुद्ध असंतोष भले ही जन्म लेने लगा हो लेकिन इसके व्यापक प्रचार प्रसार में अभी देर थी। इस पुरानी कविता से यह भी सिद्ध होता है कि उस समय भी गुमानी जैसे रचनाकार अपने-अपने क्षेत्रों में औपनिवेशिक सत्ता का चरित्र जनता के सामने प्रस्तुत कर रहे होंगे। किन्तु पर्याप्त संसाधनों के अभाव में न तो जनता तक पहुँच सके न ही चर्चा में आ सके।
आम धारणा यह है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार करने में सैनिकों, राजाओं और किसानों ने मुख्य योगदान किया था। लेकिन गुमानी, मौलाराम जैसे कवियों की रचनाएँ बताती हैं कि तत्कालीन रचनाकारों और लोक कलाकारों ने भी 1857 के विद्रोह के लिये लोगों को प्रेरित किया होगा। गुमानी आज के उत्तराखण्ड के तिब्बत और नेपाल की सीमा से लगे पिथौरागढ़ जिले में जन्मे और तत्कालीन कुमाऊँ और गढ़वाल के राजाओं के दरबार में राजकवि रहे।
गुमानी पन्त ने कुमाऊँनी, गोरखाली, संस्कृत एवं खड़ी बोली में कविताओं की रचनाएँ की। तब साधनों के अभाव में इनकी लिखी कविताएँ स्वान्तः सुखाय ही रही। पहाड़ी कागज अथवा भोजपत्र ही तब लिखने हेतु सामग्री थी। अतः उन्हीं में कविताएँ लिखी गयी और उसी प्रकार वे समाप्त हो गई। विभिन्न भाषाओं में लिखी गई कुछ कविताओं का संग्रह रामजे कालेज, अल्मोड़ा के संस्कृत भाषा के अध्यापक श्री देवीदत्त पाण्डेय ने 1847 में मुद्रित करवाया। श्रेष्ठ कवि गुमानी पन्त बाबू हरीशचन्द्र से कई दशाब्दि पूर्व से ही खड़ी बोली के सर्वप्रथम कवि है। जिनकों जन्म देने का श्रेय कूर्मांचल को हैं।
गुमानी के संक्षिप्त "जीवन चरित्र" में दुर्गादत्त पाण्डे ने लिखा है "इनके पदों में अतिशयाक्ति का दोष बहुत ही कम है। यह सदा यर्थाथ कहना अपना प्रमुख कर्तव्य जानते थे।" कवि ने सामान्य पहाड़ी जनजीवन का चित्रण कविता के माध्यम से किया है। कवि ने अपनी निम्न कविता में पहाड़ी अर्थतंत्र का एक उदाहरण प्रस्तुत है।
"घर को ध्यू आडु.लेक हो भुटण हूं।
या तेल चोख्यूनू हो।
हयूना महैंण प्रभात घाम देलि में
या ब्याल के तैल हो।
बाड़ो लग कुनकों साग, हरिया मैलो भलो गैल हो।"
"घर का घी खाने के लिये हो छौंक चाहे तेल का हो। जाड़ो में देहरी पर धूप खिलती हो। शाम को धूप में ताप हा। हरी तरकारी हेतु गहरी जगह पर खाद से (उर्बर) अपना हो।"
सतत पोषणीय अर्थव्यवस्था का यह चित्र उस दरबारी कवि के लिये प्रस्तुत करना विलक्षण ही कहा जायेगा। यह उनकी यर्थाथ वादी सोच का भी प्रतीक हैं। लघु अर्थव्यवस्था का यह वर्णन उस समय का है जब व्यवस्थाओं में अर्थ तंत्र की चर्चाएं भी शुरु नहीं हुई थी।
गुमानी की कविताओं में मध्यकालीन प्रवृतियों का आभास होता है साथ ही आधुनिकता का संचरण भी दिखायी देता है। गुमानी के समय कुमाऊँ में चन्द और गढ़वाल में पवारों की राजशाही का अन्त हो रहा था। गोरखाओं का क्रूर शासन प्रारम्भ हो चुका था। गोरखों की शासन समाप्ति के पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन हुआ। अपनी प्रौढ़ होती आयु के साथ गुमानी ने ब्रिटिश सत्ता का भारत में सुदृढ़ीकरण देखा 56 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गयी।
तीन-तीन एतिहासिक युगों के संक्रमण वाली कवि की रचनाएँ एक ओर आधुनिकता का संकेत थी दूसरी ओर ऐतिहासिक दस्तावेज। कवि गुमानी इन अर्थों में भी आधुनिक थे कि उन्होने सम-सामयिक घटनाओं का यर्थाथ चित्रण किया है। यह आधुनिकता सौ वर्ष बाद राष्ट्रीय भावनाओं की सटीक अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनती है। वे सांस्कृतेतिहासिक भारत, और भाषा के साथ तालमेल बैठाने वाले समर्थ कवि थे। वे अंग्रजी राज के विषय में कहते हैं-
"को जाने था जल के मारग यहाँ फिरंगी आवेगा ?
को समझे था हिकमत करके हिन्दुस्तान दबावेगा।
उक्त पंक्तियों से कवि का सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तनों के प्रति 'यर्थाथ भाव' झलकता है। तथा उन्होंने अंग्रेजी व्यवस्था को कलियुग की संज्ञा दी।
गुमानी का कालखंड ऐसा कालखंड था जिसमें न तो पुनर्जागरण न ही राष्ट्रीय आन्दोलनों की कोई तरंग कुमाऊँ तक पहुँची थी। किन्तु गुमानी ने देशकाल व परिवेश में हो रहे छोटे-बड़े सभी परिवर्तनों पर अपनी यर्थाथ दृष्टि रखी तथा खड़ी बोली को कविता उसका माध्यम चुना। प्रारम्भ में कवि गुमानी न तों अंग्रेजियत के पक्षधर थे न विरोधी।
कालान्तर में गुमानी ने अंग्रेजी व्यवस्था को 'कलियुग' कहा। ब्रिटिश न्याय व्यवस्था को आम नागरिक की दृष्टि से देखने वाली आँखे हैं गुमानी की यर्थाथ वादी कविताएं। यही कविताएं राष्ट्रीय आंदोलन के आन्दोलनकारियों को अतीत का आईना दिखाने व प्रेरणा देने का कार्य करने लगी। अंग्रेजी राज्य व्यवस्था की जो खामिया गुमानी ने दिखाने का प्रयास किया वे आज भी प्रासंगिक हैं। गुमानी से समय में आगे आने वाले सामाजिक, राजनैतिक आन्दोलनों की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। ऐसे समय में गुमानी का यह कथन-"यो अंग्रेज कहां से आया कौन मुलुक में रहता हैं" गंभीर अर्थ रखता है। औपनिवेशिक शासन की साम्राज्यवादी नीति का वर्णन करती है। एक अन्य रचना में कवि ने भारत पर अधिकार की घटना को इस प्रकार व्यक्त किया है।
"विल्लायत से चला फिरंगी, पहिले पहुँचा कलकत्ते।
अजब टोप बन्नाती कुर्ती न कपड़े कुछ न लत्ते।
सारा हिन्दुस्तान किया सर बिना लड़ाई कर फत्ते।
कहत गुमानी कलियुग ने यो सुब्बा जा अलबत्ते।"
1815 में जब गोरखों को परास्त कर ईस्ट इंडिया कंपनी ने उत्तराखण्ड को अपने कब्जे में लिया तो अंग्रजों को बर्बर गोरखों से निजात दिलाने वाले मुक्तिदाता के रुप में देखा गया। गुमानी ने भी इस नई सत्ता की तारीफ अपनी रचनाओं में की। लेकिन शीघ्र ही वे अंग्रजों की रीति-नीति से वाकिफ हो गय, तथा अंग्रेजी शासन की असलियत को अपनी रचनाओं का विषय बनाने लगे। अपने विचार लोगों तक पहुंचाने के लिये उन्होंने उस समय प्रचलित संस्कृत और खड़ी बोली के अलावा नेपाली में भी रचनाएं कीं।
1820 से 1846 तक गुमानी ने खड़ी बोली में रचनाएं की जबकि उस समय कोई गद्यकार और न ही कोई कवि ऐसा कर रहा था। स्वतंत्रता संग्राम अभी बहुत दूर था। पुनर्जागरण की लहर देश के कुछ ही हिस्सों को छू पायी थी । यह पर्वतीय क्षेत्र इस लहर से अछूता था। उस समय में औपनिवेशिक शासन विरोधी चेतना का प्रचार प्रसार करना कवि गुमानी की दूरदर्शिता का परिचायक है। गुमानी का युग राजनैतिक उथल पुथल का युग था। उन्होने अपनी कविताओं में उस उथल-पुथल को उतारा। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से 11 वर्ष पूर्व ही उनका निधन हो चुका था परन्तु उनकी रचनाएँ इस तथ्य की परिचायक है कि उनकी सोच समय से कितनी आगे थी।
वे जानते थे गॉव के लोगों के सरोकार की भाषा क्या होनी चाहिये तथा राष्ट्र की हुकूमत किस भाषा में कविता करके असर दिखाएगी।
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