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सुमित्रानंदन पंत | |
जन्म: | मई 20, 1900 |
जन्म स्थान: | कौशानी गांव, बागेश्वर |
पिता: | श्री गंगादत्त पंत |
माता: | श्रीमती सरस्वती देवी |
व्यवसाय: | कवि, लेखक |
शिक्षा: | हिंदी साहित्य |
पुरस्कार: | पद्म भूषण (1961), ज्ञानपीठ अवॉर्ड |
हिमालय के अंचल में एक ऐसा कवि भी उत्पन्न हुआ है, जिसने हिमालय के साथ कूर्मान्चल को भी अमर कर दिया। प्रकृति का यह अनुपम चितेरा भाषा का अनन्य पारखी, भाव चित्रण में सम्मोहित कर देने वाला, विलक्षण प्रतिभा का सौन्दर्यान्वेषी, भौतिक व आध्यात्मिक प्रगति के समन्वय का उद्घोष करने वाला सांस्कृतिक क्रांति का अग्रदूत, मनीषियों द्वारा बहुत कम पढ़ा गया और बहुत कम सझा गया।
"प्रकृति के सुकुमार कवि" कहे जाने वाले सुमितानंदन पंत जी जिनका असली नाम गोसाइन दत्त था। पंत जी का जन्म कौशानी गांव, बागेश्वर जिले में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा कौसानी के बाद उच्च शिक्षा अल्मोड़ा से की और मीट्रिक की पढाई के लिए वह अपने बड़े भाई के साथ वाराणसी आ गए और 18 साल की उम्र में वहां के क्वींस कॉलेज से पढ़ाई पूरी की। स्नातक की पढ़ाई करने हेतु वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ गए लेकिन पढ़ाई बीच में ही छोड़कर उन्होंने महात्मा गांधी से प्रभावित होकर सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया हांलांकि की वह घर में संस्कृत, हिंदी व अंग्रेजी साहित्य का अध्यन करते रहे। इन्हीं के सुझाव पर ‘ऑल इण्डिया रेडियो’ का नाम ‘आकाशवाणी’ दिया गया।
साहित्यिक करियर
सुमित्रानंदन जी ने कविता लिखना चौथी कक्षा से ही शुरू कर दिया था जब वह मात्र 7 साल के थे। 1918 तक वह एक प्रगतिवादी प्राकृतिक कवि के तौर पर पहचाने जाने लगे। वह स्वयं कहते थे कि 1907-1918 तक उन्होंने सिर्फ प्रकृति के आसपास समय बिताया था इसलिए यह दौर उनके लेखन का पहला चरण था जिसे वीणा (1927) काव्य संग्रह में जा सकता है। हिन्दी जगत को पन्त जी ने कई अनुपम कृतियाँ दी है। इनमें प्रमुख हैं - ग्रन्थि, पल्लव, गुन्जन, ज्योत्सना, युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णधूलि, स्वर्णकिरण, उत्तरा, लोकायन, आधुनिक कवि और कला और बूढ़ा चाँद आदि।
सत्याग्रह आंदोलन के बाद वह ऑरबिंदो जी के पांडिचेरी स्थित आश्रम चले गए और वहां से उनके साहित्यिक लेखन में बदलाव आया। वह और व्यापक दायरों में लिखने लगे।
पंत जी ने प्रकृतिवाद , रहस्यवाद से मार्क्सवाद तक बदलाव किया और अपने लेखों में एक अधिक मानवीय विषय शामिल करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे, उन्होंने अपने प्रदर्शनों में प्रगतिशील, दार्शनिक, समाजवादी और मानवतावादी कविताओं को शामिल किया। 1922 में उनका पहला काव्य संग्रह "उच्चवास" प्रकाशित हुआ।
कुछ नहीं बदला तो उनका आधुनिक, सौम्य शैली व उनका सांस्कृतिक हिंदी भाषा का उपयोग। उनका पूरा साहित्य जीवन 'सत्यम शिवम सुंदरम' के आदर्श से प्रभावित था, जो समय के साथ बदलना जारी रहा। जबकि उद्घाटन कविताओं में प्रकृति का मनोरम व सुन्दर चित्रण मिलता है तो वहीँ कविताओं के दूसरे चरण में, प्रगतिशीलता और सूक्ष्म कल्पनाओं का मेल और अंतिम चरण में विचारशीलता जो अरविंद दर्शन और मानव कल्याण की भावनाओं से भरा हुआ है।
सम्मानर
● 1960 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
● 1961 में उन्हें पद्मभूषण सम्मान प्राप्त हुआ।
● 1968 में वह ज्ञानपीठ पुरस्कार (चिदम्बरा) पाने वाले पहले कवि बने।
● 1969 में लोकायतन के लिए उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। साथ ही दो सप्ताह के लिए रूस भ्रमण का भी अवसर प्राप्त हुआ। इसी वर्ष हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि प्रदान की।
● 4 फरवरी 1967 को विक्रम विश्वविद्यालय ने डी.लिट्. की मानद उपाधि से सम्मानित किया। चार अन्य विश्विद्यालयों न भी डी.लिट्. की मानद उपाधि देकर इनका मान बढ़ाया। ये विश्वविद्यालय हैं- गोरखपुर (1971), कनपुन, कलकत्ता और राजस्थान (1976)।
मृत्यु
पंत जी को मधुमेह की बीमारी थी। उनका देहांत 28 दिसंबर 1977 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ। कौसानी में उनके बचपन के घर को एक संग्रहालय में बदल दिया गया है। यह संग्रहालय उनके दैनिक उपयोग लेख, उनकी कविताओं के ड्राफ्ट, पत्र, उनके पुरस्कार को प्रदर्शित करता है। इलाहाबाद में उनकी स्मृति में हाथी पार्क का नामकरण सुमित्रानंदन बाल उद्यान नाम पर कर दिया गया। संक्षेप में सुन्दर सुकुमार भावों के चतुर चितेरे पन्त ने खड़ी बोली को ब्रज भाषा जैसा माधुर्य एवं सरसता प्रदान करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। पन्त जी गम्भीर विचारक, श्रेष्ठतम कवि और मानवता के सहज आस्थावान शिल्पी थे, जिन्होंने नवीन सृष्टि के अभ्युदय की कल्पना की थी।
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