समाज अपनी संस्कृति को जिस रूप में ढालना चाहता है वह परम्परागत ढल ही जाती है। इस संस्कृति को अपनाने के लिए कभी अथक प्रयास करने पड़ते है और कभी जनता स्वयं अपना लेती है। वह संस्कृति समाज की तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल होती है। समाज द्वारा अपनाये गये उस परम्परा के गुण व दोष कुछ भविष्य के लिए अधिक लाभदायक होते हैं और कुछ कम। यह भी कहा जा सकता है कि कभी हानिकारक तो कभी समाज के लिए चिन्तन व शोध कार्य हेतु विवश कर देते हैं।
यहां पर सांस्कृतिक विरासत की बात कही जा रही है जो आज अपनी राह पर तो है, परन्तु विलुप्त सी प्रतीत होती है। इस सांस्कृतिक विरासत को समाज के समक्ष उजागर करना हम सभी का दायित्व है और इसे एक विरासत के रूप में जो अभी तक बची है, का प्रचार प्रसार कर आम जनता की जानकारी में आना भी आवश्यक है।
जनपद अल्मोड़ा के तहसील भिकियासैंण एवं चौखुटिया क्षेत्र के पश्चिमी रामगंगा नदी में ‘ढह‘ पर्व को मनाया जाता है। इन दोनों तहसीलों के अतिरिक्त बारामण्डल तहसील के अन्तर्गत कोसी नदी में चौसली से लेकर खैरना तक तथा खैरना से बेतालघाट तक, यहां भी पूर्व में ढह परम्परा थी।
आज भिकियासैंण व चौखुटिया तहसील में ढह नामक गोताखोरी कर मछलियों पकड़ने का सिलसिला लगभग 15 व 20 दिन तक जारी रहता है। इस गोताखोरी दल का एक मुखिया होता है। तो वर्तमान समय में भिकियासैंण क्षेत्र में नानहड़ कोटा गांव के रावत मुखिया है। चौखुटिया क्षेत्र में मासी के कनौलिया मुखिया है। मासी से मारचूला तक के क्षेत्र में मछलियों को पकड़ने का क्रम प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास की संक्रान्ति से पूर्णमासी तक चलता रहता है। यह संक्रान्ति की अपूच्छ तिथि होती है। क्षेत्र के सभी लोग युवा व बुजुर्ग जमा होकर अपने ईष्ट देव के मंदिर में पहले पूजा अर्चना कर ढह नामक कार्यक्रम को शंख ध्वनि से प्रारम्भ करते हैं। इसमें से कुछ मछलियों को पकड़ने के लिए जाल डालते है कुछ रामबांस का रस तालाब में डालते हैं। इसके उपरान्त मछलियों के मरकर बहने पर गोताखोरी कर उन्हें पकड़ने का सिलसिला जारी रहता है। यह तो मछलियां को पकड़ने का एकमात्र बहाना है।
इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि ढह परम्परा में क्षेत्रीय जनता की आपातकालीन समय में नदी में तैरना आना चाहिए। जैसा कि आपातकाल में अपना तथा अपने परिवार को किस प्रकार से शत्रुओं व पानी से बचाया जा सके और शत्रुओं को चकमा देकर उन्हें परास्त किया जा सके। (इसमें यह ढह नामक पूर्वाभ्यास प्रबल सहायक है। यह तत्कालीन समय ( कत्यूरियों व चन्द राजवंश के समय) में अवश्य ही जल सेना रही होगी। जिस प्रकार स्थानीय राजाओं द्वारा अपने क्षेत्र में पैदल सेना का संचालन समय समय पर किया जाता था, ठीक इसी प्रकार जल सेना का भी युद्धाभ्यास होता था। जो गांव नदी के किनारे होते थे वह तो ढह नामक युद्धाभ्यास में जाते थे और जो ऊंचे व पहाड़ियों में होते थे वह ‘बग्वाल‘ में प्रतिभाग करते थे।
यदि पैदल सेना की गतिविधियों को देखा जाय तो जिस प्रकार पूरे कुमाऊँ क्षेत्र में 22 जगह बग्वाल होती थी इसी तरह ढह नामक नदी में डुबकी अथवा गोताखोरी का अभ्यास भी पहले कुमाऊँ में कोसी नदी, पूर्वी रामगंगा व काली में भी होता था जो अब लुप्त हो गया है। इस विरासत को बचाने का प्रयास किया जाना चाहिए। बग्वाल ‘प्रस्तर मार‘ युद्ध अथवा ‘अस्मिवृष्टि‘ युद्ध अब एकमात्र देवीधुरा जनपद चम्पावत में शेष बचा है। यह अन्य क्षेत्रों में लुप्त प्रायः हो चुका है।
वर्तमान पीढ़ी देवीधुरा के बग्वाल के अतिरिक्त अन्य स्थलों से अनभिज्ञ होगी। जैसा कि आज भी बग्वाल का दूसरा रूप एकमात्र रस्म परम्परा के अर्न्तगत ‘ओड़ा भैंट, डोला ‘, आदि अभी भी बचे हैं। ओड़ा भैंट के अन्तर्गत दोनों धड़ चाहे वह मासीवाल हों या कनौडिया, ढोल, नगाड़ो व लम्बी चौड़ी विशाल ध्वजों ( निशान राजा का/ राज सिंहासन का प्रतीक ध्वज) से आभास होता है कि यह अवश्य ही राजा महाराजाओं की पैदल सेना का युद्धाभ्यास (पेट्रोलिंग) होता था जो आज ओड़ा भैंट के रूप में प्रचलित है। इस ओढ़ा भैंट में बिखौती मेला आदि स्थानीय मेले सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त ढोला के अन्तर्गत राजा के जनता दरबार में जिसमें गांव के सभी लोग बच्चे बुजुर्ग युवाओं के साथ सम्मिलित होकर राजा, जिसे भगवान के रूप में पूजते हैं, के दर्शन हो जाते हैं। इस ढह परम्परा निम्न लोक कहावत आज भी समाज में प्रचलित है-
"सूर का रगूजा, वीर का जाल।
आलसी की बल्सी, कोढ़ी का गोदा।।"
(अर्थात यह कहा जा सकता है कि जो अधिक बलशाली होता था उसका रगूजा, जो मोटी लोहे की कील नुमा कांटेदार और बहादुर की जाल, आलसी व्यक्ति की बलसी जहां पर अधिक समय लगाना पड़ता था और कोड़ी गोदा जो कम पानी में मछलियों को मारने हेतु लकड़ी का जाल नुमा होता था। इसे नदी के मुहाने पर, लगा दिया जाता था। )
ढह से तात्पर्य छुपना (ढकना) अथवा लुप्त हो जाने से है। इस ढह परम्परा के अन्तर्गत जल सेना का जो मुखिया होगा उसकी जिम्मेदारी होगी कि गोताखोरी अथवा मछलियों को पकड़ते समय कोई भी दुर्घटना नहीं होनी चाहिए। समाज के बुजुर्गों को छोड़ कर सभी को गोताखोरी करनी ही होती थी। चुकि कुछ ऐसी दुर्घटना होती थी। राजा उसके लिए अवश्य ही मार्ग सुजाता होगा। जिससे उस परिवार का भरण पोषण हो सके। कुमाऊँ में राजशाही 1815 में खत्म हो गयी और औपनिवेषिक राज्य के अन्तर्गत अंग्रेजों ने इस प्रथा को बन्द करना चाहा। चूंकि इसमें जनहानि होती थी। पहले तो तत्कालीन समय में राजा इसका जिम्मेदार होता था। अंग्रेज इस रूढ़िवादी परम्परागत प्रथा से खुश नहीं थे। उन्होने देखा कि इसमें लाभ तो कुछ है नहीं परन्तु जनहानि अवश्य है। क्षेत्रीय जनता ने इसका विरोध किया। इस पर क्षेत्रीय जनता का अंग्रेजों के साथ एक समझौता हुआ। इस ढह परम्परा के अन्तर्गत यदि किसी भी व्यक्ति के साथ कोई दुर्घटना (मृत्यु) हुई तो इसका जिम्मेदार वही व्यक्ति अथवा परिवार होगा जो इस ढह का मुखिया होगा।
इस प्रकार आज भी ढह नामित यह परम्परा मछली मारने के बहाने बची हुई है। सरकार को इसके संरक्षण के लिये प्रयास करना चाहिए। श्री देवेन्द्र सिंह रावत ग्राम मजगांव जो कि सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं बताते हैं कि पूर्व में क्षेत्रीय राजाओं की यह परम्परागत ’जल सेना’ रही होगी। डॉ चन्द्र सिंह चौहान, अन्वेषण सहायक, क्षेत्रीय पुरातत्व इकाई, अल्मोड़ा से भी इस सम्बन्ध में जानना चाहा। श्री चौहान जी ने बताया कि तत्कालीन समय में स्थानीय राजा महाराजाओं ने अपनी तथा अपनी जनता की सुरक्षा व्यवस्था के लिए सेना की व्यवस्था की थी जो अवैतनिक होती थी। उन्हें राजा द्वारा रौत के रूप में जागीर अथवा सेरे ( सिंचित वाला क्षेत्र ) वाली जमीन दी जाती था। क्षेत्र में जो भी ’भड़’ व प्यॉग रहा होगा वह अपने क्षेत्र के विकास और जिम्मेदारी के साथ चाहे वह पैदल सेना का युद्धाभ्यास बग्वाल हो या ढह, सभी सैनिक इस परम्परा के अन्तर्गत आते थें। इन सैनिकों का इस प्रकार से मछलियों मारने के बहाने जल सेना का युद्धाभ्यास होता था।
लेखक -डॉ हरीश सिंह नयाल
सर्वाधिकार - पुरवासी - 2009, श्री लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब), अल्मोड़ा, अंक : 30
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