संक्रान्ति उत्सवों की श्रृंखला में इसके बाद आता है भाद्रपद मास के प्रथम दिन (सिंह संक्रान्ति) को मनाया जाने वाला 'घ्यू सग्यान' (घी संक्रान्ति, घी त्यार, घी त्यौहार का उत्सव)। यह भी यहां की कृषक- पशुपालक ग्रामीण जनता का एक महत्त्वपूर्ण त्योहार है। इसे 'घी संक्रान्ति' (घ्यू सग्यान) नाम दिये जाने का कारण यह है कि इस दिन माताएं अपने बच्चों की मांग में ताजा मक्खन मलती हैं तथा इसके साथ ही उनके स्वस्थ्य रहने एवं चिरायु होने की कामना करती हैं। कुमाऊं में घर के लोगों का इस दिन भोजन में घी/मक्खन के साथ इस दिन के लिए विशेष रूप से बनायी जाने वाली 'बेड़वा रोटी' (उड़द की पिट्ठी भरी हुई रोटी) दी जाती है। माना जाता है कि इस दिन घी न खाने वाले को अगले जन्म में घोंघा (गनेल) बनना पड़ता है। लगता है इस मौसम में घी खाना स्वास्थ्य के लिए विशेष लाभदायक होता है या यों कहा जा सकता है कि इस मौसम में इसकी सुलभता के अनुसार इस दिन गरीब से गरीब व्यक्ति भी यथेच्छ घी/मक्खन खा सकता है। वर्षाकाल में घास-चारे की बहुतायत से पशुचारक समाज में इस ऋतु में घी/मक्खन की कोई कमी न होने से लोग इस दिन उन लोगों को भी घी/मक्खन दे देते थे जो स्वयं पशु नहीं पाल सकते थे। वर्ष में से कम एक दिन सभी को यह सुअवसर प्राप्त हो सके, इसीलिए सम्भव है इसे एक उत्सव/अनुष्ठान का रूप दे दिया गया। अस्तु, इसका मूलाधार चाहे जो भी हो इस दिन सभी के लिए घी/मक्खन सिर पर मलना तथा खाना आवश्यक समझा जाता है। Uttarakhand Festival Ghee Sankranti, Ghee Tyar
इसके अतिरिक्त कुमाऊं मंडल में इस ऋतूत्सव को 'ओलगिया' कहा जात है। इसे यह नाम दिये जाने का कारण यह है कि यहां की परातन पारिभाषिक शब्दावली में उस विशेष भेंट (उपहार) को 'ओलग' कहा जाता था जो कि चन्द शासनकाल में यहां के अस्थायी कृषकों तथा भूमिहीन कृषकों (खैकर, सिरतान आदि) के द्वारा अपने भूस्वामियों तथा शासनाधिकारियों को दी जाती थी। अंग्रेजी शासनकाल में बड़े दिन की 'डाली' के रूप में दी जाने वाली भेंट के समान इस भेंट में विशेष रूप से एक ठेकी (काष्ठदधिपात्र) दही, मक्खन तथा एक मुट्ठी गाबा (अरबी की गर्भस्थ कोमल कोपलें), भुट्टा, खीरे आदि दिये जाते थे। इसके लिए 'बड़े दिन' के समान ही भाद्रपद मास की संक्रान्ति का यह दिन नियत किया गया था। क्योंकि इस ऋतु में ये पदार्थ सर्वत्र सुलभ होते थे। इसके अतिरिक्त इस सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि यहां की पुरातन लोक परम्परा के अनुसार इस दिन दामाद की ओर से भी अपने ससुरालियों को उपहार (ओलग) दिया जाता था। Uttarakhand Festival Ghee Sankranti, Ghee Tyar
भेंट या उपहार के अर्थ में प्रचलित इस 'ओलग' शब्द के सन्दर्भ में कुछ लोगों का कहना है कि इसका आधार मराठी का 'ओलखणे' तथा गुजराती का 'ओलखयू' (परिचित होना) हो सकता है तथा यहां पर इस अर्थ में इसके प्रचलन का आधार महाराष्ट्र तथा गुजरात से आने वाला ब्राह्मण वर्ग हो सकता है। इसके अतिरिक्त यहां की लोक परम्परा के अनुसार लोकदेवताओं को जो दुग्ध की भेंट अर्पित की जाती है उसे भी 'ओलग' या 'ओल्ग/ओउग' कहा जाता है। जो भी हो इस शब्द मूलस्रोत तथा इसकी व्युत्पत्ति के स्पष्ट होने तक इस विषय में निर्णायक रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त कृषक- पशुचारक वर्ग से सम्बन्ध होने के कारण इसकी अपनी और भी कई परम्पराएं रही हैं। फलतः कृषकवर्ग की ओर से ऋतूद्भव प्रमुख पदार्थों, गाबा, भुट्टे, मक्खन आदि की 'ओलग' (भेंट) सर्वप्रथम अपने भूमि देवता (भूमिया) तथा ग्राम देवता को अर्पित की जाती है। घर के लोग इसके उपरान्त ही इनका उपभोग कर सकते हैं। बाद में यहां के पुरोहित वर्ग ने भी इसमें अपना हिस्सा बना लिया। फलतः कृषकवर्ग के द्वारा अपने उपभोग में लाने से पूर्व पुरोहितों को भी गाबों का उपहार देना प्रारम्भ कर दिया गया। इससे पूर्व न तो गाबों को तोड़ा जाता है और न खाया ही जाता है। यह एक प्रकार का वर्जन माना जाता है। कृषिविज्ञान की दृष्टि से इस वर्जन का एक विशेष प्रयोजन भी हो सकता है। ध्यातव्य है कि इससे पूर्व अरबी के पौधे न तो परिपक्व होते हैं और न उनकी गांठों (फलियों) का ही सम्यक् विकास हुआ होता है। ऐसी स्थिति में यदि उनके गाबों (गर्भीय कोपलों) को तोड़ लिया जाय तो उनका विकास समाप्त हो जायेगा। किन्तु इस समय (भाद्रपद मास) तक उनका पूर्ण विकास हो चुका होता है अत: इनकी गर्भस्थ कोपलों को तोड़ लेने से उन्हें कोई हानि नहीं हो सकती है। इसीलिए इसके साथ ही कृषकों में यह धारणा भी प्रचलित पायी जाती है कि इससे पूर्व इनके गाबे तोड़ लेने से इनकी फलियां व गांठे 'गरजी' (न पकने वाली) हो जाती हैं।Uttarakhand Festival Ghee Sankranti, Ghee Tyar
उल्लेख्य है कि गाबों का साग बड़ा स्वादिष्ट एवं पौष्टिक एव पोष्टिक होता है। इसे खाने की इच्छा सभी की होती हैं। इसीलिए इसे एक बहुमूल्य समझा जाता है। लोग स्वाद-लोलुपता से इन्हें समय से पूर्व ही इसलिए इसके साथ कुछ मान्यताएं तथा वर्जन जोड़ दिये गये हैं। कुछ लोगों की यह भी मान्यता है कि इस त्यौहार के बाद अखरोट स्वादिष्ट होने लगते हैं।
इनके अतिरिक्त इस ऋतूत्सव के साथ यहां की कतिपय अन्य लोकपरम्पराएं भी सम्बद्ध रही हैं। पिछले समयों में इस दिन भूमिहीन स्थानीय शिल्पकार लोग अपने स्थानीय स्वामियों तथा आश्रयदाताओं को अपने हाथ की बनी शिल्पीय वस्तुएं, यथा लोहार- दराती, कुदाल, दीपकदान, पिजरें आदि, दर्जी नमूनेदार टोपियां, बटुए, देवी देवताओं के कपड़े आदि तथा बढ़ई बच्चों के खेलने के लिए कड़कड़वा बाजा, डोली, लकड़ी की गुल्लख आदि लाकर भेंट करते थे। अब भूस्वामित्व के नये विधानों के अन्तर्गत खैकरी व सिरतानी के समाप्त हो जाने, सभी को भूस्वामित्व का अधिकार प्राप्त हो जाने, गृहशिल्पों का ह्रास हो जाने, आश्रयदाता सम्बन्धी निर्भरताओं के समाप्त हो जाने एवं परम्परागत व्यवसायों तथा परम्पराओं के अनुपालन के प्रति विमुखता के कारण अन्य परम्पराओं के साथ स्वामियों को 'ओलग' (भेंट) देने की परम्परा भी समाप्त हो गयी है। किन्तु ग्रामीण समाज में 'घी संक्रान्ति' को मनाये जाने तथा सर्वप्रथम देवी-देवताओं तथा पूज्यजनों को भेंट करके ही गाबे खाने की परम्परा अभी भी यत्किंचित् रूप में जीवित है। पर तीव्रगति से हो रहे इस परिवर्तन चक्र में यह कब तक जी सकेगी यह कहना कठिन है। पहले इस दिन नैकुनी (सेटी पिथौरागढ़) में मेले का आयोजन भी हुआ करता था जो कि अब समाप्तप्रायः है।
गढ़वाल मंडल के चमोली जनपद में इसे 'घिया संगरांद' के अतिरिक्त 'म्योल् मुण्डया संगरांद' भी कहा जाता है क्योंकि इस दिन धाने के खेतों के बीच म्योल् (मेहल) की फलदार पट्टी रोपी जाती है (डा. नन्दकिशोर हटवाल, अनिकेतचमोली अंक 2005:31)। जोहार में 'घ्यूत्यार' एक दिन पूर्व ही मनाया जाता है। Uttarakhand Festival Ghee Sankranti, Ghee Tyar
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