मुंशी हरि प्रसाद टम्टा | |
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जन्म | अगस्त 26, 1887 |
जन्म स्थान | अल्मोड़ा |
माता | श्रीमती गोविंदी देवी |
पिता | श्री गोविंद प्रसाद टम्टा |
पत्नी | श्रीमती पार्वती देवी |
मृत्यु | फरवरी 23, 1960 |
उत्तराखंड के दलित शोषित समाज के सर्वप्रिय नायक। दलित समाज को 'शिल्पकार' नाम से परिचित कराने वाले पहले समाजसेवी। कुमाऊँ शिल्पकार सभा के संस्थापक। ब्रिटिश काल में दलितों को सेना में प्रतिनिधित्व दिलाने वाले पहले समाज सुधारक।
प्रारम्भिक जीवन
बाल्य अवस्था में ही पितृ स्नेह से वंचित हो गये थे टम्टा जी। अपने मामा श्रीकृष्ण टम्टा जी, जो अपने समय के अग्रणी समाजसेवी थे, के संरक्षण में इन्होंने समाजसेवा का पाठ सीखा। अत्यंत कठिनाई से मिडिल तक शिक्षा ग्रहण कर सके। उर्दू और फारसी में विशेष योग्यता प्राप्त कर 'मुंशी' की उपाधि प्राप्त की। 1911 में अल्मोड़ा में बद्रेश्वर मंदिर के मैदान में सम्राट जार्ज पंचम के तिलकोत्सव के अवसर पर एक विशाल जन समारोह आयोजित हुआ। कट्टर सवर्णों ने कहा कि वे किसी भी दलित को अपने बराबर में बैठने की अनुमति नहीं देंगे। टम्टा जी अपने मामा जी के साथ समारोह स्थल पहुँचे, किन्तु उन्हें बैठने के लिए कुर्सी नहीं दी गई। इस घटना ने टम्टा जी का युवा हृदय झकझोर दिया। उन्होंने वहीं संकल्प लिया कि जीवन भर सामाजिक भेदभाव को मिटाने के लिए संघर्ष करते रहेंगे और उसी दिन दृढ निश्चय और संकल्प के साथ ये इस सामाजिक कलंक को मिटाने के लिए निकल पड़े। Munshi Hari Prasad Tamta
'शिल्पकार' नाम को दिलाई मान्यता
उस समय उत्तराखंड का दलित वर्ग घोर गरीबी, अंधविश्वास, अशिक्षा और उच्च वर्ग के शोषण का शिकार था। आम बोलचाल में उन्हें अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया जाता था। टम्टा जी ने सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में निवास करने वाली शिल्प कला वाली सभी जातियों को 'शिल्पकार' नाम की संज्ञा प्रदान की, और पांच सालों के अथक प्रयासों के बाद 1927 में 'शिल्पकार' नाम को सरकारी मान्यता दिलवाई।
कुमाऊँ शिल्पकार सभा की संस्थापक
इससे पूर्व 1905 में कुमाऊँ में 'टम्टा सुधार सभा' का गठन हो चुका था। 1924 में उत्तराखंड के शिल्पकारों का एक बृहद सम्मेलन आयोजित किया और 'कुमाऊँ शिल्पकार सभा' की स्थापना की। उन्हीं के सफल प्रयासों से 1930-40 के मध्य सारे कुमाऊँ-गढ़वाल में भूमिहीन शिल्पकारों को ब्रिटिश सरकार ने 30 हजार एकड़ कृषि भूमि वितरित की। ये बस्तियाँ आज भी हरिनगर (कत्यूर), नरसिंह डांडा (पिथौरागढ़), हरिकोट, हरिपुर के नाम से जगह-जगह जानी जाती हैं। शिल्पकार समाज में शैक्षणिक चेतना लाने के लिए टम्टा जी ने कुमाऊँ शिल्पकार सभा के माध्यम से 150 प्राथमिक और प्रौढ़ पाठशालायें स्थापित की।
शिल्पकारों का सेना में प्रतिनिधित्व
ब्रितानी सरकार उस समय तक शिल्पकारों को भीरु और डरपोक जाति समझती थी। यही विचारधारा ब्राह्मणों के प्रति भी थी। सभी राजपूत जातियों के लिए भी सेना में जाना संभव नहीं था। पंडित गंगादत्त उप्रेती ने अपनी पुस्तक 'मार्शल कास्ट्स ऑफ अल्मोड़ा' में केवल 26 राजपूत जातियों को ही फौज के लिए प्रथम श्रेणी का माना था। द्वितीय विश्व युद्ध आते-आते हरिप्रसाद टम्टा जी के अथक प्रयासों से 5000 शिल्पकारों से 3, 9, 11, 14, 15, 18, पायनियर बटालियनों का निर्माण किया गया (टेक्निकल रिक्रूटिंग आफिस- ईस्टर्न इंडिया, लखनऊः डी.ओ. न. 191, 1941)। टम्टा जी ने ब्रिटिश शासकों को समझाया कि जो कौम बन्दूक बनाना जानती है, वह चलाना भी जानती है। उनके सतत प्रयासों से शिल्पकार जवान सेना में भर्ती किये जाने लगे। इससे शिल्पकारों में आत्मविश्वास जागने लगा और उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होने लगा। टम्टा जी ने शिल्पकार समाज को भूमि आवंटन, सेना में नौकरी और शिक्षा के प्रसार से प्रगति की राह पर ला खड़ा किया। मुंशी हरि प्रसाद टम्टा के प्रयासों से शिल्पकार युवक भारतीय सेना में भर्ती होने लगे थे। उनकी सेवाओं को देखते हुए सेना की पायनियर कोर ने 1942 में लखनऊ में उन्हें 'गार्ड ऑफ आनर' पेश किया था। पराधीन भारत में टम्टा जी सम्भवतः पहले नागरिक थे, जिन्हें भारतीय सेना द्वारा गार्ड ऑफ आनर से सम्मानित किया था।
समता समाचार पत्र के संस्थापक
उन दिनों उत्तराखंड का शिल्पकार समाज उत्पीड़नों और सामाजिक अभिशाप से त्रस्त था। टम्टा जी ने सदियों से उपेक्षित दबे कुचले इस समाज की आवाज को बल प्रदान करने के उद्देश्य से अल्मोड़ा से समता (साप्ताहिक) हिन्दी समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इसके प्रेरणादायक लेखों से शिल्पकारों में राजनीतिक और सामाजिक जागृति उत्पन्न हुई।
राजनीतिक जीवन
मुंशी हरि प्रसाद टम्टा न केवल। उत्तराखण्ड अपितु उ.प्र. में भी अपने कार्यों से दलित समाज में अग्रणी नेता थे। 1934-1940 की अवधि में आप आल इंडिया डिप्रेस्ड क्लास एसोसिएशन की उ.प्र. शाखा के उपाध्यक्ष रहे। 1937 में संयुक्त प्रांत में अंतरिम सरकार के गठन हेतु चुनाव हुए। टम्टा जी कुमाऊँ से बाहर जिला गोण्डा से संयुक्त प्रांत की विधानसभा के लिए निर्विरोध निर्वाचित हुए। यह थी आपकी लोकप्रियता। टम्टा जी जातीयता की संकीर्ण भावना से कोसों दूर थे। अपनी कुशाग्रता और सर्वप्रियता से आप 1945 में अल्मोड़ा नगरपालिका के चुनाव में विजयी रहे। चेयरमैन के रूप में अपने सात वर्षों के कार्यकाल में आप कुशल प्रशासक के रूप में लोकप्रिय रहे।
मृत्यु
23 फरवरी, 1960 को उनका निधन हो गया। टम्टा जी का पारिवारिक जीवन ऊसर भूमि की तरह रहा। युवावस्था में ही इनकी जीवनसंगिनी परलोक सिधार गयी थीं। इनकी कोई संतान नहीं थी। इनके निधन से शिल्पकार समाज को अपूरणीय क्षति हुई है।
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