उत्तराखंड हर प्रकार के आंदोलनों का साक्षी रहा है। फिर चाहे वो प्रकृति को बचाने के लिए हो या आज़ादी से पहले अंग्रेज़ो के खिलाफ हो इत्यादि। परंतु बहुत कम ही सुनने को मिलता है कि छात्र-छात्राएं महाविद्यालय में पुरानी हो चुकी किताबों, लाइब्रेरी की दशा सुधारने और शिक्षकों की कमी को दूर करने के लिए आंदोलन कर रहें हो। जी हां ,हम बात कर रहें है पिथौरागढ़ में हुए शिक्षक - पुस्तक आंदोलन की, जो काफी चर्चा में रहा।
"हमुन की चैं, किताब और मासाब"
इसी तरह के नारे लिखे पोस्टरों के साथ अपनी मांगों को लेकर छात्रों ने मौन जुलूस भी निकाला, जिसमें उनके अभिभावकों ने भी शामिल होकर साथ दिया। यह आंदोलन बेहद शांतिपूर्ण तरीके से किया गया। इसमें छात्रों और उनके अभिभावकों ने तरह-तरह के पोस्टर बनाकर लोगों और प्रशासन का ध्यान अपनी बातों की ओर केंद्रित किया।
पिथौरागढ़ के लक्ष्मण सिंह महर महाविद्यालय में पुरानी किताबों से छात्रों को पढ़ना पढ़ रहा था। और शिक्षकों की कमी भी छात्रों को सहनी पड़ रही थी। इस परेशानी से तंग आकर परीक्षाओं के दिनों के बीच ही छात्र कॉलेज परिसर में ही धरने में बैठ गए। धरने में विविध प्रकार के पोस्टर्स सहित जनगीतों का सहारा लेकर अपनी बातें रखने का प्रयास किया गया। इसके बाद भी जब इनकी बातें नहीं सुनी गई तो छात्र व उनके अभिभावको ने सड़क पर उतरकर मौन जुलूस भी निकाला।
जुलूस में नारे लिखे कई पोस्टर्स का सहारा लेकर अपनी मांगों की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की गई। ये नारे कुछ इस प्रकार थे,-
"ना किताब छन, ना मासाब छन,
की छौ पे? की चैं पे ?
और
"ये मौन गर टूटेगा , सैलाब बन कर फूटेगा"
आदि।
कई सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धजीवी और क्षेत्र से संबंध रखने वाले सिने स्टारों का इस आंदोलन का सहयोग मिला। यह आंदोलन शांतिपूर्ण और शिक्षा के क्षेत्र में हमेशा याद रखा जाएगा।
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