अबोध बन्धु बहुगुणा | |
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जन्म | जून 15 1927 |
जन्म स्थान | ग्राम- झाला, पट्टी चलणस्यूँ, गढ़वाल |
शिक्षा | बी.ए., एम.ए. (राजनीतिशास्त्र और हिन्दी) |
व्यवसाय | उत्तर प्रदेश राज्य सेवा; उप निदेशक, भारत सरकार, लेखक |
भाषा | गढ़वाली, हिंदी |
मृत्यु | 2004 |
अबोध बन्धु बहुगुणा (15 जून 1927): ग्राम झाला, पट्टी चलणस्यूँ, गढ़वाल। हिन्दी और गढ़वाली के कवि, लेखक, कथाकार, उपन्यासकार, आलोचक, नाटककार, साहित्यकार, संग्राहक और अनुवादक। गढ़वाल की माटी का लेखक और कृतिकार। लेखन और भाषा पर असाधारण अधिकार वाले साहित्यकार। केन्द्रीय सरकार के पूर्ति मंत्रालय, उप-निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए। मूल नाम: नागेन्द्र प्रसाद।
1945 में मेस्मोर हाईस्कूल पौड़ी से हाईस्कूल परीक्षा उत्तीण कर रोजी-रोटी की तलाश में घर से निकल आए। नागपुर (महाराष्ट्र) से बी.ए., एम.ए. (राजनीतिशास्त्र और हिन्दी) की उपाधि ग्रहण की। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की साहित्यरत्न परीक्षा संस्कृत व मराठी विषयों से उत्तीर्ण की। बहुगुणा जी का व्यक्तित्व सरलता, सहृदयता और निरभिमानता का बिम्ब है। हृदय से कोमल एवं संवेदनशील होने के कारण किशोरावस्था (1942 में कक्षा 6 से अध्ययन काल में) में लिखने लगे थे। 1950 तक इनकी कविताओं को समाज तथा पत्रिकाओं में स्थान मिलने लग गया था। सामाजिक व्यावहारिता में कुशल और चिन्तन में दार्शनिक अबोध जी आज हिन्दी और गढ़वाली के श्रेष्ठ साहित्यकार के रूप में स्थापित हैं। गढ़वाली भाषा और साहित्य की अद्यतन प्रकृति, प्रवृत्ति और सृजन से परिचित एक जागरूक इतिहासपरक दृष्टि से सम्पन्न समीक्षक हैं अबोध जी। द्रष्टव्य है बहुगुणा जी का साहित्य सृजनः
काव्य
भूम्याल, तिड़का, द्योल, रणमण्डाण, पार्वती, अंखपंख, गीत गन्धर्व, अपणा पर्वत, दैसत, कणखिला, शैलोदय। लोकगीत-धुंयाल। लोककथा- लंगड़ी बकरी, कथ्याधाली, कथगुली, कही कथाएं।
नाटक
माई को लाल, अंतिम गढ़, गाँव की हरियाली, डूबता हुआ गाँव।
एकांकी
चक्रचाल, कचविटाल, नागमयूर, तिलपातर, फरक, दुहाऱ्या, जोड़-घटौणों, मांगण, किरायादार, अन्द्रताल, कुलंगार, काठै बिराली।
गीतिनाटक
सृष्टि सम्भव, नौछम्या नारैण, छैलाऊ छौल, जीतू हरण। 1: गेय गीत। 2: परायो मन।
कहानी
कथाकुमुद, रेत की रस्सी।
सम्पादित
गाड़ म्यैटिक गंगा, शैलवाणि।
भाषा विज्ञान
गढ़वाली व्याकरण की रूपरेखा।
हिन्दी काव्य
दग्ध हृदय, अरण्य रोदन, विकृति। पत्र-बणबास का बारा बर्स।
मूलतः आप हिन्दी के लेखक हैं किन्तु गढ़वाली की आपने जितनी सेवा की है, उसका दूसरा उदाहरण नहीं है। आपकी रचनाओं में देश, काल और परिवेश अक्षुण्ण मिलते हैं। पहाड़ का जनजीवन, काव्यों का विषय और संत्रास प्रमुख अभिव्यक्ति हैं। गढ़वाल साहित्य मंडल, दिल्ली के लिए 'धुंयाल' नामक लोकगीतों की समीक्षात्मक पुस्तिका लिखकर आपने इस विषय के विशेषज्ञ के रूप में अपनी पहचान बनाई है। 'भूम्याल' प्रेम की धरती पर धरती के प्रेम का महाकाव्य है। डा. नारायण दत्त पालीवाल के शब्दों में- "यह गढ़वाली साहित्य का खिला हुआ बुरांस है और बहुगुणा जी उत्तराखण्ड साहित्य और संस्कृति जगत के बुरांस हैं।" आपने गढ़वाली में गीतांजलि का रूपान्तर भी किया है। एक व्यक्ति नहीं, गढ़वाली के एक युग की पहचान हैं अबोध जी। मोहन लाल बाबुलकर के शब्दों में- "मैदानी पिंजरे में बन्द पहाड़ का पंछी" उ.प्र. हिन्दी संस्थान एवं अनेकों साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित हैं अबोध जी।
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