चित्रशिला | |
स्थापना | 1836 |
विकाशखंड | नैनीताल |
प्राथमिक देवता | जिया रानी, शिव |
शिव मन्दिर से कुछ ही ऊपर एक छोटी सी गुफा है। कुमाऊँ का इतिहास में श्री बदरी दत्त जी लिखते है रानीबाग में कत्यूरी राजा ब्रह्मदेव की माता जिया रानी का बाग था। कहते है यहाँ गुफा में जिया रानी ने तपस्या की थी। कत्यूरियों का यह पवित्र तीर्थ है। जिया रानी धामदेव की पत्नी थी और ब्रह्मदेव का शासनकाल 730 ई० क आसपास आता है।
स्कन्दपुराण मुख्य रूप से भूगोल का वर्णन करता है और उसका मानस खण्ड हिमालय के इसी अंचल का वर्णन करता है- जो नेपाल के पश्चिम, केदार खण्ड (गढ़वाल) से पूर्व तथ कैलाश के दक्षिण में है। स्पष्ट है कि मानस खण्ड का वर्ण्य- वर्तमान कूर्माचल या कुमायूं प्रदेश ही है। और कुमायूं प्रेदेश ही है। और कुमायूं में कोई अन्य गार्गी, पुष्पभद्रा, चित्रशिला, चित्रन्हद भद्रवट तथा मार्कण्डेयाश्राम नहीं हैं। अतः पुराणों को पुष्पभद्र, गार्गी चित्रशिला, चित्रहद, भद्रवट और मार्कण्डेयाश्राम यही हैं।
कुमायूं में अवध से सूर्यवंशी कत्यूरियों का आगमन महाभारत के कुछ पश्चात हो गया था। ईशा से ढाई-तीन सहस्त्र वर्ष पूर्व से ईशवी सात-आठ सौ तक प्रायः ढाई-तीन सहस्त्र वर्ष तक कुमायूं में कत्यूरियों का शासन रहा। एक सहस्त्र वर्ष तक चन्दों का 25 वर्ष गौरखों का शासन रहा। 1815 ई० से 15 अगस्त 1947 ई० तक अंग्रेजों का राज्य रहा। कत्यूरियों के वंश में सेंतालिसवें महाराजा धामदेव थे। उनकी महारानी ही जियारानी थी। उनकें पुत्र ब्रहम्देव थे। शासनों के परिवर्तन राजनैतिजक उथल पुथल, जनता का स्थानान्तरण और प्राकृतिक घटनाओं के कारण भूगोल और इतिहास की विस्मृति होती है। देश के प्रति गौरव की शिथिलता भी कारण हो जाती है।
चित्रशिला मन्दिर के हिन्दी एवं संस्कृत लेखों के अनुसार यह मन्दिर विक्रम सम्वत 1836 की माघ की पूर्णिमा को रामगढ़ के चतुर सिंह ने बनाकर प्रतिष्ठत किया। इनके वंश का परिचय अन्यत्र दिया है। एक मन्दिर पद्मेश्वर बल्यूटिया का बनवाया हुआ है।
स्थान परिचय
हिमालय के चरणों में चित्रशिला तीर्थ है। आज कल रानीबाग नाम से प्रसिद्ध यह स्थान भारत के उत्तराखं में स्थित है। उत्तर रेलवे के दिल्ली से काठगोदाम तक शाखापथ है। उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली से नैनीताल तथा हल्द्वानी को मोटन पथ है। अल्मोड़ा आदि पर्वतीय नगरों से भी हल्द्वानी को नियमित बसें चलती हैं। रानीबाग अति रामणीक घाटी है। राजा त्रिभुवन देव की छठी पीढ़ी में इन्द्रपाल देव राज हुए। इनकी रानी दमयन्ती ने चौघाण पाटा में उद्यान लगाया। जिसे अब रानीबाग कहा जाता है। इसी के निकट दमयन्ती ताल भी है। स्थानीय लोगों की यह धारणा कि जिया रानी का बाग होने से रानीबाग हुआ केवल अटकल प्रतीत होती है। प्राचीन नाम चौघाणपाटा हो सकता है।
चित्रशिला
नदी की धारा में एक विभिन्न रंगों के पत्थरां की शिला है - यही चित्रशिला है। चित्रशिला में, ब्रह्मा, विष्णु, शिव मय शक्ति के रहते हैं। यहां इन्द्र और देवता भी रहते हैं। गार्गी तथा पुष्पभद्रा के संगम पर बड़ का पेड़ था, इसी की छाया में सुतप ब्रह्म ने 36 वर्ष तक तपस्या की। उसने सूखे पत्ते खाये और उसके हाथ आसमान की ओर थे। उसको देखकर ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा अन्य देवगण आये और जो वरदान वह मांगता था वो दिया। विश्वकर्मा को बुलाया और गार्गी के किनारे विश्वकार्मा ने सोने चांदी व अन्य रत्नों से जो चित्रशिला बनाई और इसमें सब देवताओं के अशं आ गये।
चित्रहद
चित्रशिला से उत्तर नदी में जो स्वाभाविक कुन्ड बन गया है वही चित्रहरद तीर्थ है।
मेला
इस तीर्थ में उत्तरायणी (मकर संक्रान्ति को बड़ा मेला लगता है। शिवरात्रि, वैशाखी पूर्णिमा और कार्तिकी पूर्णिमा को भी मेले लगते हैं। अन्य पर्व और ग्रहण के अवसर पर भी श्रद्धालु आते हैं।
उत्तरायणी पर्व
उत्तरायणी यहाँ का मुख्य पर्व है। मुख्य रूप से इसमें कत्यूतिये भाग लेते हैं। एक वर्ष उत्तर के दूसरे वर्ष दिक्षिण से आते हैं। मेले में आने वाले संक्रान्ति के पहले ही दिन सायंकाल को पहुंच जाते हैं। समूह बनाकर ग्राम के ग्राम ढोल-नगाड़े बजाते हुए निशान (ध्वज) फहाराते हुये आते हैं। रात्रिवास करते हैं। रात्रि जागरण करते हैं और इष्ट देव का देवनृत्य करत हैं। कहीं-कही कथा-कीर्तन भी होता है। रात भर “जय जिया-जय जिया” शब्द का स्वर गूंजता रहता है। प्रातः स्नान-पूजा कर लोग अपने अपने गन्तव्य को चले जाते हैं।
जिया रानी की गुफा
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