भवन एवं अनेक प्रकार के काष्ठोपकरणों के निर्माण के अतिरिक्त, काष्ठ का प्रयोग बरतनों को बनाने में भी किया जाता है। विशेष प्रकार के वृक्षों के काष्ठ द्वारा निर्मित लगभग सभी प्रकार के बरतनों का उपयोग दूध एवं दूध द्वारा बनाये जाने वाली विभिन्न वस्तुओं के भण्डारण में ही अधिक किया जाता है क्योंकि काठ के बरतनों में रखे जाने पर यह वस्तुयें अधिक समय तक अपनी गुणवत्ता बनाये रखती हैं। इनको विभिन्न आकार का बनाया जाता है। उपयोग आकार एवं धारिता के आधार पर इनको अलग-अलग नाम दिये गये हैं। कटोरों के समान चौड़े मुँह और कम ऊंचाई वाले छोटे बरतनों को जिनका उपयोग प्राय:मक्खन, चटनी आदि रखने के लिए होता है 'कठ्यूड़ी' कहा जाता है जबकि समान आकार वाले अधिक धारिता के बरतन को 'पाल्ली' के नाम से जाना जाता है। सामान्य उपयोग में आने वाली 'पाल्ली' की धारिता तीन-चार लीटर से ले कर आठ-दस लीटर तक होती है। किसी-किसी घर में तो पन्द्रह लीटर से भी अधिक धारिता वाली 'पाल्ली' आज भी मिलती ही है।
समतल आधार और बाहर की ओर उभरी हुई दीवारों वाले, कम ऊंचाई वाले बरतन 'हड्प्या' और अधिक ऊंचाई वाले 'ठेकी' कहे जाते हैं। इनमें गरदन नहीं होती है। प्राय: ठेकी को दही जमाने और 'हड़प्या' को घी रखने के काम में लाया जाता है। बड़ी 'ठेकी' में दही को मथकर मट्ठा भी बनाया जाता है। इनको ढकने के लिए लकड़ी के ही ढक्कन भी बनाये जाते हैं। इन बरतनों में दूध-दही को इधर-उधर ले जाने के लिए रस्सी का जालीदार छींका प्रयोग में लाया जाता है। दूसरे आकार के बरतन जिनका दूध तथा इसके उत्पादों को रखने के लिए प्रयोग किया जाता है, घड़े के समान सँकरी गरदन वाले होते हैं। यह बरतन भी विभिन्न धारिता वाले बनाये जाते हैं। प्राय: डेढ़-दो लीटर तक की धारिता वाला बरतन 'पारी', तीन-चार लीटर धारिता वाला 'पारा' और इससे अधिक धारिता वाला बरतन 'बिण्डा' नाम से पुकारा जाता है। आवश्यकता के अनुसार छोटे-बड़े 'पारे' दूध दुहने और दही जमाने के काम में लाये जाते हैं। जबकि 'बिण्डा' दही मथने के काम में ही अधिक आता है। प्राय: 'पारा-बिण्डा' बिना ढक्कन वाले ही बनते हैं। सुरक्षा के लिए इनके मुंह पर स्वच्छ कपड़ा बाँध दिया जाता है। 'पारी' के आकार से मिलते-जुलते ढक्कनदार कुछ छोटे बरतन भी बनाये जाते हैं जिनमें दैनिक उपयोग और इधर-उधर ले जाने के लिए घी रखा जाता है। इनको 'चाड़ी' और 'कुमली' के नाम से जाना जाता है। अनाजों का लेन-देन करने के लिए काठ की 'नाली' और 'माना' भी बनाये जाते हैं जिनकी धारिता, निङाले से बनाये जाने वाले 'नाली-माना' के समान ही रखी जाती है। पशुओं को पानी पिलाने के लिए लकड़ी के एक बड़े कुन्दे को बसूला छेनी से खोद और भीतर से खोखला कर 'दूना' बनाया जाता है। इसकी धारिता कम से कम आठ-दस लीटर तक रखी जाती है। काष्ठ के बर्तनों में 'पाल्ली' तथा 'दूना' ही ऐसे बरतन हैं जिनको रूखानी और बसूले की सहायता से बना लिया जाता है लेकिन अन्य प्रकार के बरतनों को बनाने के लिए खराद वाली मशीन का प्रयोग किया जाता है। लकड़ी के कुन्दे को पहले बसूले से छिलकर उसे बरतन का सामान्य आकार दे दिया जाता है। उसके बाद मशीन द्वारा लकड़ी को छिलकर उसे उचित रूप और आकार देते हैं। धारदार लोहे की पत्तियों वाली छोटे आकार की खराद मशीन को एक आदमी डोरी की सहायता से घुमाता है और दूसरा लकड़ी के कुन्दे को पकड़कर उसे उचित आकार देता हुआ छिलता है।'गाड़-गधेरों में जहां बहने वाले पानी की मात्रा अधिक होती है और उचित प्रकार का काष्ठ उपलब्ध होता है, वहाँ काष्ठ के बरतन बनाने वाले पनचक्की के समान जलशक्ति का उपयोग कर खराद मशीन को चलाया करते हैं।
विभिन्न उपयोगों में आने वाले काठ के बरतनों के लिए कुछ विशेष जाति के वृक्षों की लकड़ी काम में लाई जाती है। यह ऐसे वृक्ष होते हैं जिनकी लकड़ी व पानी में पड़े रहने के बाद भी सड़ती नहीं है। सानन तथा गेठी नामक वृक्षों की लकड़ी इस काम के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। इनके वृक्ष पर्वतीय नदियों की घाटियों और भाबर के जंगलों में पाये जाते हैं। बनाये जाने वाले बरतन की धारिता तथा आकार उपलब्ध लकड़ी के कुन्दे पर निर्भर करता है। बीते समय में, जब सानन और गेठी के बड़े-बड़े वृक्ष वनों में उपलब्ध होते थे तो अधिक धारिता वाले बड़े-बड़े बरतन बनाये जाते थे जो 'दादा खरीदे पोता बरते' नियम का अनुपालन करते हुए बहुत से घरों में आज भी उपयोग में लाये जा रहे हैं। आज हमें जो भी काष्ठ के बरतन बाजार में मिलते हैं उनमें से अधिकांश ऐसी लकड़ी के बने होते हैं जो थोड़े ही वर्षों में सड़ने-गलने लग जाती है। सानन और गेठी के बरतन बहुत कम संख्या में दिखाई देते हैं। वन -संरक्षण के नियमों के कारण उपयुक्त जाति का काष्ठ न मिलने और धातु तथा प्लास्टिक के बरतनों को अधिक प्रयोग में लाये जाने के कारण, काष्ठ के बरतन बनाने का उद्योग समाप्ति के कगार पर है। इनके निर्माण की कला समाप्त हो रही है साथ ही कलाकार भी कम हो रहे हैं। यदि प्रोत्साहन मिले तो कलाकारों को रोजगार मिलेगा, साथ ही कला भी जीवित रहेगी, लेकिन इसके लिए उचित जाति के वृक्षों का रोपण और संरक्षण आवश्यक है। (लेख में बरतनों के नाम पूर्वी कुमाऊँ की बोली के हैं।)
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