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    वट सावित्री व्रत

    वट सावित्री का व्रत ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष में अमावास्या को किया जाता है। यह सौभाग्यवती स्त्रियों में लोकप्रिय व्रर्त है। स्त्रियाँ इस व्रत को पति की लम्बी उम्र के लिए करती हैं सुख सौभाग्य धन-धान्य की प्राप्ति के साथ ही सुख भी प्राप्त होता है।


    वट सावित्री के दिन स्त्रियां पूरे दिन व्रत रखती है प्रातः काल स्नान कर नये वस्त्र पहन क आभूषण धारण कर सर्वप्रथम पूजा सामग्री तैयार करती है। दोपहर को महिलाएँ समूह मे रहकर वट वृक्ष की पूजा करती है यदि वट वृक्ष सम्भव नही है तो सत्यवान सावित्री वट वृक्ष का चित्र लगा कर पूजा करती है। सुहाग का सामान, कपड़ा, फल, मिठाई सभी रखी जाती हैं। दोपहर के वक्त पंडित जी विधि विधान से पूजा करवाते है सभी महिलाएँ गले में लाल रंग का दूबड़ा पहनते है इस व्रत में सूर्य छिपने से पहले फलाहार भोजन किया जाता है।


    व्रत कथा


    भारतवर्ष पौराणिक काल से ही अनेकों ऋषि मुनि सिद्ध संतों व महान राजाऔं का देश है। यहाँ ऋषि व्यासदधीची, आगस्त्य, नारद मुनि, परशुराम और महात्मा बुद्ध जैसे अद्भुत महापुरुषों ने जन्म लिया। इस सभी महापुरुषों के साथ-साथ भारत भुमि की कई दैवीय स्त्रिी जैसे माता अनुसुइया, अहिल्या, यशोदा, माता सीता व सावित्री देवी अग्रगण्य हैं। इन सभी के संदर्भ में कई ऐतिहासिक, पौराणिक प्रेरणादायक कथाएँ खुब प्रचलित हैं। इनमें से एक प्रसिद्ध व अति प्रख्यात कथा है सत्यवान व सावित्री की। वर्तमान में यह वट सावित्री व्रत कथा के नाम से लोकप्रचलित है। हमारे देश में विवाहित स्त्रियों के लिए वट सावित्री के व्रत का बहुत ही महत्तव है।


    पौराणिक काल की बात है भद्र देश के राजा थे अश्वपति। कई कठिन तप व पूजन के पश्चात उन्हें देवि की कृपा से एक तेजस्विनी व रूपवान स्त्री की प्राप्ति हुई। इस कन्या का नाम रखा गया सावित्री। कलान्त में सावित्री का विवाह साल्व देश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से हुआ। सत्यवान अति गुणवान व बलवान राजकुमार थे परन्तु नारद मुनि ने बताया कि वे अल्पायु हैं। परन्तु राजा अश्वपति ने सावित्री का विवाह सत्यवान से करवा दिया और सावित्री अपने ससुराल में रहने लगी। धीरे-धीरे समय बीतता चला गया। नारद मुनि के कथानानुसार जैसे-जैसे सत्यवान कि मृत्यु के दिन निकट आने लगा सावित्री अधीर होने लगी। उसने तीन दिन पहले से व्रत प्रारंभ कर दिया। अब उस दिन भी नित्य की भांति सत्यवान लकड़ी काटने जंगल गये, और सावित्री भी उनके साथ चली गयी। एक वट वृक्ष के नीचे सतयवान गिर पड़े और तभी यमराज वहाँ प्रकट हुए औ सत्यवान के प्राण ले जाने लगे। यह देखकर सावित्री भी उनके पीछे चलने लगी और सत्यवान के प्राण लौटाने का हठ करने लगी। यमराज ने कहा देवी मैं सत्यवान के प्राण नहीं लौटा सकता अतऐव तुम मुझसे कोई वरदान मांगो। सावित्री ने कहा हे देव! मेरे सास-ससुर अंधे है कृपया आप उन्हें ज्योति प्रदान करें। यमराज ने तथास्तु कहा और सवित्री से बोले अब तुम लौट जाओ, परन्तु सावित्री नहीं लौटी और फिर पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने फिर कहा देवी एक और वर मांगो तो सावित्री ने उनसे अपना राज्य पुनः प्राप्ति का वर मांगा, जिसे राजा द्युमत्सेन हार चुके थे। यमराज ने यह वर भी प्रदान कर दिया लेकिन सावित्री यमराज के पीछे-पीछे यह कहकर चलती रही कि वे एक पतिव्रता स्त्री हैं और पति के पीछे चलना उसका कर्तव्य है। अतऐव यमराज से सावित्री से तीसरा वरदान मांगने को कहा तो इस बार सवित्री ने 100 संतान व अखण्ड सौभाग्य मांग लिए और यमराज ने यह वरदान भी दे डाला। अंततः यमराज को सत्यवान के प्राण लौटाने पड़े। अब सावित्री उसी वट वृक्ष के नीचे वापस गई और सत्यवान को जीवंत देखकर खुशी-खुशी अपने राज्य को चली गयी। इसी प्रसंग से प्रेरणा लेकर तब से लेकर आजतक सुहागिन महिलाएँ अपने पति की लम्बी आयु, अखण्ड सौभाग्य व सन्तान प्राप्ति के लिए इस पवित्र व्रत को करती हैं यह व्रत अमावस्या के दिन रखा जाता है। इस दिन स्त्रियाँ उपवास कर बरगद (वट) वृक्ष के नीचे एक साथ मिलकर पूजा अर्चना कर माता सावित्री सत्यवान व यमराज से सकल मंगल कामना करती हैं।


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