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    शिल्पकार सुधार आन्दोलन तथा डोला पालकी आन्दोलन

    ‌20वीं सदीं उत्तराखण्ड में भी देश के अन्य क्षेत्रों की भाँति जाति व्यवस्था अपने कट्टर रूप में चरम सीमा पर थी। सन् 1932 से 1934 के मध्य कुमाऊँ कमिश्नरी में टम्टा सुधारणी सभा का जन्म हो चुका था। आगे चलकर यही सभा शिल्पकारों की हितकारिणी सभा के रूप में सामने आयी। इस प्रकार के जाति संगठनों का सवर्णों द्वारा संचालित होना तथा सभी जातियों को जोड़कर संगठन बनाना व उसे चलाने की भावना का न होना था।


    ‌औपनिवेशिक सरकार ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर विभिन्न जातियों के बीच की खाई को गहराने का ही प्रयास किया। उन्होनें शिल्पकारों व उनके संगठनों को सहायता देकर उन्हें अपनी सहायता हेतु तैयार करने का भरसक प्रयास किया, इसी नीति के चलते श्री कृष्ण टम्टा नगर पालिका अल्मोड़ा के सदस्य निर्वाचित हुए इससे पूर्व रैमेजे ने हीरा टम्टा को शिक्षित देख अंग्रेजी दफ्तर में नौकरी दी थी। इसे सवर्ण उच्च जाति के लोगों ने अपने सम्मान पर चोट माना। अल्मोड़ा अखबार ने संकुचित विचारधारा का विरोध किया। समाचार पत्र गढ़वाली ने लिखा "हमें चाहिए कि हीन जातियों से सही बर्ताव करें, अन्तर को घटाए, उन्नति में उत्साह दिखाये, उन्हें समाज का मुख्य अंग बनाएँ।"


    ‌वास्तव में सवर्णों को औपनिवेशिक सत्ता के सभी लाभ प्रारम्भ से ही प्राप्त थे। डिवेटिंग क्लब हो या गढ़वाल यूनियन देहरादून (1901) तथा अन्य कुमाऊॅनी गढ़वाली संस्थाओं को तथा पत्रकारिता को सवर्ण ही संचालित कर रहे थे। यहां तक कि 1911 में जार्ज पंचम के राजतिलक पर हुए आयोजन में निम्न जातियों को नहीं सम्मिलित होने दिया गया। इसकी स्मृति बाद तक शिल्पकारों के मन में छाई रही थी। 'एक ओर सवर्ण समुदाय संस्कृतनिष्ठ भाषा में राजा के दीर्घ जीवन की कामना करता था दूसरी ओर शिल्पकारों द्वारा मौन दर्शन भी वर्जित था"।


    ‌ऐसी परिस्थितियाँ किसी भी समुदाय को संगठित होकर विद्रोह के लिए तैयार कर सकती थी। 1914 में कुमाऊँ शिल्पकार सभा को प्रारम्भ से ही हरि प्रसाद टम्टा का नेतृत्व मिला जो एक प्रभावशाली किन्तु सरकारपरस्त नेता थे। वास्तव में सरकार को शिल्पकारों की आन्तरिक समस्याओं से कोई सरोकार नहीं था। पहले विश्व युद्ध में शिल्पकारों को सेना में भर्ती होने लायक नहीं माना गया। 1928 में साईमन कमीशन ने 1931 में गाँधी जी तक को अन्त्यजों (धोबी, चर्मकार, नट) का अधिकार न देने वाला कह डाला।


    ‌कालान्तर में खुशीराम, जयानन्द भारती, बचीराम आर्य व बुद्धदेव आर्य आदि शिल्पकारों के नये नेतृत्व के रूप में उभरे। नैनीताल के सुनकिया गॉंव में 1930 में खुशीराम ने नेतृत्व में शिल्पकारों द्वारा जनेऊ धारण करने तथा आर्य नाम स्वीकार करने का आन्दोलन हुआ। इससे दलितों में तेजी से जन जागृति विकसित हुई। सन् 1908 में उत्तराखण्ड के मूल निवासियों को शिल्पकार नाम देने का प्रयास किया गया। अथक प्रयासों के पश्चात 1921 में इस जाति को शिल्पकार लिखा गया और 1932 में मान्यता प्राप्त हुई।


    ‌शिल्पकारों का जनेऊ ग्रहण करना भी इस क्षेत्र के सवर्णों से खटक रहा था क्योंकि यह सीधे-सीधे पुरातन पंथियों की वर्ण व्यवस्था व जाति प्रथा पर प्रहार था। इसका कट्टरपंथी सवर्णां ने बहुत विरोध किया जिससे सन् 1934 के बाद खुशीराम के सहयोग से कुमाऊँ के शिल्पकार आन्दोलन को राष्ट्रीय धारा से जोड़ दिया गया तथा शिल्पकारों को समाज में उचित सम्मान व स्थान दिलाने हेतु निरन्तर प्रयास करते रहे। 1935 में कुछ शिल्पकारों को प्रथम बार पुलिस में भर्ती किया गया। ब्रिटिश गढ़वाल में भी दलित जातियाँ आन्दोलित थी। 1925 में एक सभा कर दलित उत्थान हेतु अनेक प्रस्ताव पास किये गये। सन् 1932-33 में गढ़वाल में दलितोत्थान हेतु विभिन्न सम्मेलनों का आयोजन किया गया।


    ‌सन् 1925 में हरि टम्टा, खुशी राम तथा बच्ची राम आर्य आदि के संयुक्त प्रयास से कुमाऊँ में पहली बार वृहत शिल्पकार सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन का आयोजन अल्मोड़ा के निकट ड्योलीडांडा में किया गया। इसमें हज़ारों शिल्पकारों ने भाग लिया तथा नगर में जुलूस निकाला। इसी बीच गांधी जी कुमाऊँ आये और इस आन्दोलन को और बढ़ावा मिला तब तक बहतु से सवर्णों द्वारा भी इस आन्दोलन का समर्थन ब्राह्मणाें द्वारा हल चलाना, संयुक्त भोज आयोजित करके किया जाने लगा था। उधर गांधी जी की यात्रा ने शिल्पकारों को तथा महिलाओं को भी स्थानीय तथा राष्ट्रीय आन्दाले न में आने के लिए प्रेरित किया। नवम्बर सन् 1932 में अल्मो़ड़ा में कुर्मांचल समाज सम्मेलन हुआ, जिसमें अछूत कोई नहीं के नारे लगे आरै सवर्णों का एक बड़ा समहू गोविन्द वल्लभ पन्त के नेतृत्व में टम्टाें के नॉले (बवाड़ी) में पानी पीने गया। सन् 1933 में राष्ट्रवादी खुशीराम द्वारा मजखानी (अल्मोड़ा) में एक सम्मेलन किया गया, जिसमें शिल्पकारों के पक्ष में अनेक प्रस्ताव पारित किए गये। जनवरी सन् 1941 में बागेश्वर के मेले में शिल्पकार सम्मले न हुआ जिसमें नौकरी, सेना में भर्ती, जमीन के स्वामित्व निःशुल्क शिक्षा तथा सामाजिक सुरक्षा की मांग रखी गई। शिल्पकार आन्दोलन की जयानंद भारती, खुशी राम, बलदेव सिंह आर्य और बची राम आर्य आदि जो राष्ट्रवादी और कांग्रेसी थे, ने अपने नेतृत्व द्वारा राष्ट्रीय संग्राम से जोड़ने का प्रयास किया। इन्हीं की समझ तथा संगठन से डोलापालकी आन्दोलन सफलता पा सका।


    बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने एक सभा में कहा - "अछूत जातियों को अपने शिल्पीय पेशे नहीं छोड़ने चाहिये ए्वं स्वर्णों को शिल्पकारों के साथ एक उचित व्यवहार करना चाहिए।" अन्य की सभा का आयोजन गढ़वाल में सन 1935 में किया गया, जिसकी अध्यक्षता सी0एन0 चौफिन ने की। जिसमें निर्णय किया गया कि बन्दोबस्ती कागजों में परम्परागत के स्थान पर शिल्पकार शब्द प्रयोग में लाया जायेगा।


    ‌टम्टा सुधार सभा हो या शिल्पकार सभा सरकार की सहानुभूति व सहायता निरन्तर प्राप्त कर रहे थे। जब सरकार के शुभचिंतक सवर्ण विभिन्न आन्दोलनों से सक्रिय होने लगे व उनकी संख्या घट गई तो सरकार ने शिल्पकारों को सहायता व प्रोत्साहन देकर अपने कूटनीतिक जाल में फंसाने का प्रयास किया। सवर्णों को इस ओर आग्रह करते हुए 1930 में कुमाऊँ कुमुद ने लिखा था- ‘जब तक हम दलितों को ससम्मान अपने समाज में शामिल नहीं करेंगे तब तक हमारे तथा हमारे कार्यों के साथ उनकी सहानुभूति नहीं हो सकती।


    डा0 मुहम्मद अन्सारी के अनुसार - "हरि प्रसाद टम्टा, खुसीराम बचीराम आर्य तथा राम प्रसाद टम्टा ने डा0 अम्बेडकर की धर्म परिवर्तन की नीति का विरोध किया था और आर्य समाज को अधिक महत्व दिया था। यद्यपि दलित आन्दोलन में राष्ट्रवादी और सरकार समर्थक दोनों प्रकार के तत्व थे लेकिन दोनों शिल्पकारों के हित की लड़ाई अपनी अपनी तरह से लड़ते रहे। उनकी विशेषताएँ और कमजोरियाँ सामाजिक विकास की तत्कालीन प्रक्रिया से जुड़ी थी।" वास्तव में अंग्रेजो के आने से पूर्व उत्तराखण्ड में जाति व्यवस्था चरम रूप से विद्यमान थी। औपनिवेशिक सरकार के आने के पश्चात भी समाज का यह बड़ा वर्ग सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक विकास से अछूता रहा क्योंकि सभी सरकारी पदों व समाज में भी सवर्णो का प्रभुत्व था। बीसवीं सदी से प्रांरम्भ हुई स्वतः जाग्रति ने शिल्पकारो को स्वयं अपनी स्थिति में सुधार हेतु प्रयास करने के साथ स्वतन्त्रता संग्राम में भी भाग लेने हेतु प्रेरित किया।


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