कुमाऊँ क्षेत्र में कोट परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही एक सैन्य व्यवस्था है। इस व्यवस्था के तहत प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के इतिहास में पर्वतीय क्षेत्र में एक कोट परम्परा रही है। यह कोट परम्परा का इतिहास जानने के लिए पर्वतीय क्षेत्र में कुछ विशेष महत्व के गढ़, कोट, किले व बुंगा विद्यमान हैं। वैज्ञानिकों एवं पुराविदों का मानना है कि हिमालय के स्थान पर प्रारम्भी में एक समुद्र था, जिसे टेथिस सागर कहते हैं। मेसोजोइक और मायोसिन युगों में उत्तरी महाद्वीपीय खण्ड, अंगारालैंड एवं देक्षिणी महाद्वीपीय खण्ड गोंडवनालैंड के मध्य स्थित टेथिस सागर में लाखों वर्षों से पुरा एवं मध्य कल्पों में एकत्रित होने वाले पदार्थ के फलस्वरूप हिमालय उद्भव हुआ। इसके लाखों वर्ष पश्वात यहाँ मानव जाति का संचरण हुआ। हजारों वर्ष पुर्व कुमाऊँ का आदिम मानवा नदियों के किनारे प्राकृतिक गुफाओं तथा शैलाश्रयों में निवास करता था। आदि मानव जीवन निर्वाह के लिए कन्दमूल, फलों एवं जंगली जानवर का शिकार करने के लिए समूह बनाकर रहने लगा। इसी कारण धीरे-धीरे पाषाण हथियारों में प्रस्तर की छुरी, वाणों की नोंक की तरह भूतिया, मूष्ठक आदि के मिलने से आभास होता है कि मानव द्वारा अपनी जीवन रक्षा के लिए किये गये प्रयासों में वह अग्रेत्तर सफल रहा। इसी जीवन रक्षा के लिए वह संगठन बनाने लगा। यहीं से पर्वतीय सैन्य इतिहास का प्रारम्भ माना जा सकता है।
स्थिति
बागेश्वर-कर्णप्रयाग मुख्य सड़क मार्ग के मध्य ग्वालदम अथवा बीनातोली लगभग 65 किमी. तक, छोटे अथवा बड़े वाहन से यात्रा की जा सकती है। तलवाड़ी से 5.4 किमी. और बीनातोली से लगभग 1.5 किमी. तक की चढ़ाई में पैदल यात्रा कर सुगमतापूर्वक पहुँचा जा सकता है। दूसरा मार्ग मजकोट से लगभग 7 किमी. की पैदल यात्रा कर चढ़ाई में बाँज-बूराँस के जंगल से अंगरिया महादेव (अंगऋषि/गोमती नदी का उद्गम स्रोत) होते हुए बीनातोली से बधान गढ़ी पहुँचा जा सकता है।
बधान गढ़ी अक्षांश 30.2145, देशान्तर 079.97583 समुद्र सतह से ऊँचाई 8612 फीट में स्थित है। बधान गढ़ी से लगभग 2 किमी. नीचे बीनातोली के पास लगभग 200 x 50 मी. मोर्चाबन्दी हेतु तैयार की गयी खाई सैन्य दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में यहाँ पर स्थानीय लोगों के लिए आवास एवं दुकानें निर्मित हैं। बीनातोली से हल्की ढलवी चट्टान से होते हुए बधान गढी पहुँचा जा सकता है। बधान गढ़ी पूर्णतः प्रकृति प्रदत्त है। मानो प्रकृति ने सब कुछ न्यौछावर कर सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण करते हुए निर्मित कर दिया हो। इस किले के पूर्व में ग्वालदम व नागेश मंदिर, पश्चिम में थराली, उत्तर में तलवाड़ी, पिण्डारी गंगा, दक्षिण में दक्षिणेश्वर मंदिर, बज्यूठा व किशना गढ़ी विद्यमान हैं।
विवरण
बधानगढ़ी वर्तमान समय में जनपद बागेश्वर व चमोली के सीमांकन क्षेत्र (उत्तराखण्ड) तहसील थराली और तहसील गरूड़ के अन्तर्गत विद्यमान है। यह गढ़ी वर्तमान समय में जनपद चमोली एवं बागेश्वर की सीमा को निर्धारित करती है। बधानगढ़ी (राजगढ़ी) मूलतः कत्यूरी राजाओं के एक छत्र राज्य के विभाजन के पश्चात कुमाऊँ गढ़वाल दानों स्थल के राजाओं ने अपनी सैन्य वव्यवस्था को मजबूत बनाने हेतु सीमांकन क्षेत्र में अपने क्षेत्र को सुदृढ़ बनाया। यद्यपि वर्तमान समय में दोनों मण्डलों के सीमांकन के साथ पूर्व में संभवतः गढ़वाल नरेश द्वारा अपने राज्य को सुरक्षित रखे जाने हेतु इस भूमि को सुदृढ़ बनाया। यह क्षेत्र एक ऊँची पहाड़ी चट्टान में निर्मित होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण माना गया और इसका निर्माण किया गया।
यह गढ़ी लगभग 200 मीटर की परिधि में फैली हुई है, इसके चारों ओर भवनों अथवा आवसों के खण्डहर विद्यमान हैं। यहाँ फैले भवनों की दीवार की मोटाई 64 x 3.65 सेमी. x 3.65मीटर (मो. ल. चौ.) वर्गाकार निर्मित है। इस गढ़ी के पूर्व में लगभग 6 कक्षों का एक मैदान, इसी से जुड़ा लगभग 50 मीटर नीचे लगभग 10 कक्षों की नींव वर्तमान में ध्वंसावशेष के रूप में विद्यमान है। इसी दिशा में इस खण्डहर भाग के लगभग 100 मीटर नीचे तीन अलग-अलग (नालियाँ) गहरी लम्बी खाइयाँ निर्मित हैं। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे ये नालियाँ सुरंग रही हों। ये नालियाँ बीनातोली की ओर उसके दक्षिण व उत्तरी पार्श्व तक निर्मित हैं। बधानगढ़ी के पश्चिम में मुख्य गढ़ी से जुडे भाग में जिसमें वर्तमान समय में शिव मंदिर है, लगभग 100 मीटर नीचे तीन अलग-अलग (नालियाँ) गहरी लम्बी खाइयाँ निर्मित हैं। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे ये नालियाँ सुरंग रही हों। ये नालियाँ बीनातोली की ओर उसके दक्षिण व उत्तरी पार्श्व तक निर्मित हैं। बधानगढ़ी के पश्चिम में मुख्य गढ़ी से जुड़े भाग में जिसमें वर्तमान समय में शिव मंदिर है, लगभग 100 मीटर की परिधि वाले भू-भाग में 50 आवासीय भवनों के अवशेष खण्डहर के रूप में विद्यमान हैं। इन्हीं भवनों के मध्य से एक लम्बी सुरंग बधानगढ़ी की ओर कटती है। इस सुरंग का 70 x 60 सेमी. का प्रवेश द्वार वर्तमान में मौजूद है। यह द्वार मिट्टी से दबा होने के कारण इसकी माप अधूरी है। यहा सुरंग एक लम्बी और गहरी नाल को खोदकर पटालीकरण करके बनायी गयी है। गढ़ी में विद्यमान चट्टानों के पूर्व, उत्तर एवं दक्षिण दिशा में छः नालियाँ विद्यमान हैं, संभवतः यह नालियाँ न होकर पूर्व में सुरंग थीं। वर्तमान समय में इन स्थलों का को ई महत्व न होने से पत्थर यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। सामरिक दृष्टि से यह नालियाँ गढ़वाल की सीमा की अपेक्षा कुमाऊँ की ओर विद्यमान हैं। आधुनिक बधानगढ़ी मंदिर में नव निर्मित दक्षिणेत्तर काली मंदिर विद्यमान है। मूलतः मंदिर का प्रवेश द्वार पश्चिमी दिशा की ओर है। जबकि स्थानीय लोगों का कथन है कि यह दक्षिणेश्वरी देवी है। यह कहना समीचीन होगा कि गढ़वाल के शासकों ने इसव देवी का प्रवेश द्वार दक्षिण की ओर बनाया हो और सुरंग भी दक्षिण ओर अधिकर हैं। अर्थात यह कहा जा सकता है कि दक्षिण दिशा की ओर मुँह होना कुमाऊँ के राजा के लिए रौद्र रूप प्रदर्शित है। इसीलिए स्थानीय लोग इसे दिक्षिणी देवी कहते हैं। जबकि मंदिर का मुँह पश्चिम को बनाया गया हैं। यह संभवतः बधान गढ़ी की मोर्चाबंदी हेतु निर्मित हो और पानी की पूर्ति भी इसी मोर्चाबंदी स्थल से की जाती रही होगी। इस तल में एक प्राचीन कुँआ तथा यहीं से लगभग 50 मीटर की दूरी के इर्द-गिर्द बावड़ियाँ निर्मित हैं। जिनमें बराबर पानी रहता है। वर्तमान समय में इन नौलों का आधुनिकरण किये जाने से पानी का रिसाव अत्यधिक है। यह मोर्चाबंदी लगभग 100 25 7 मीटर माप का स्थल है। यहाँ पर भैरव मंदिर भी निर्मित है। यहाँ पर एक छोटा तालाब और लगभग 23 20 सेमी. एवं 28 30 सेमी. माप के दो ओखल भी विद्यमान हैं। इसी के पश्चिमी पार्श्व में हल्के ढलवी भूमि तथा बधानगढ़ी के समकक्ष रमोला गढ़ी भी निर्मित है। यह गढ़ी बधाण गढ़ी से जुड़ी होने के साथ-साथ लगभग 300 मीटर की परिधि में अण्डाकार निर्मित स्थल है। यह प्रकृति प्रदत्त होने के साथ-साथ मानव निर्मित भी है। गढ़ी को समतल किये जाने हेतु दक्षिण परिश्चम भाम में लगभग 5 मीटर ऊँची तथा 7 8 मीटर लम्बाई की, आवश्यकता के अनुरूप प्रतिधारक दीवार का निर्माण भी किया गया है। इस गढ़ी में लगभग 100 आवासीय भवनों के अवशेष खण्डहर रूप में विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त मध्य भाग में एक ओखल तथा जल हेतु एक कुण्ड निर्मित है। रमोला गढ़ी पूर्णतः घने बाँज-बुराँश व छोटे गड़े पेड़ पौधों से घिरा हुआ भू-भाग है। यहाँ से चारों ओर मित्र और शत्रुओं पर दृष्टि डाली जा सकती है, जो सामरिक और संचार की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। इस गढ़ी के पश्चिमी दिशा में खन्सर घाटी दिखाई देती है। दक्षिण में बजेठा आदि अनेक स्थलों पर दृष्टिपात किया जा सकता है। अध्ययन क्षेत्र के अन्तर्गत उक्त गढ़ी से सम्बन्धित ऐतिहासिक महत्व का विभिन्न साहित्यों में वर्णन मितला है। इस गढ़ी की स्थापना 8/9 वीं शती ई. में हुई होगी ऐसा प्रतीत होता है। इसके प्रमाण स्वरूप मृदभाण्ड (बर्तनों) के दो टुकड़े मिले हैं।
वीर सेनापति कल्याण चौधरी
लोक स्मृति में यह स्मारक बधान गढ़ी के नाम से जाना जाता है। स्थानिय निवासी श्री चन्द्रेश पाण्डे बताते हैं कि यहाँ पर पहले कत्यूरी राजाओं का आधिपत्य था। स्व. नित्यानंद मिश्रा इतिहासविद् के कथानानुसार बधान गढ़ के सम्बन्ध में एक रोचक कहानी सम्वत 1621 शाके 1600 के समय फाल्गुन माह की, वीर सेनापति कल्याण चौधरी के जीवन काल से जुड़ी है। कहा जाता है कि कल्याण चौधरी की अवस्था केवल इक्कीस वर्ष की थी। गौर वर्ण, लम्बा कद, बलिष्ठ भुजाएं। कल्याण की शरीर इतना सुडौल और आकर्षक था कि जो उसे एक बार देख लेता बार-बार उसे ही देखने का मन करता। राज घरानों के बच्चों को बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र तथा घुड़सवारी की शिक्षा दी जाती थी। कल्याण भी इनमें अद्वितीय घुड़सवारी का शौकीन होने के साथ-साथ अच्छा योद्धा व तलवार चलाने में निपुण थां वह अपने सैनिकों का सर्वप्रिय नेता था।
पूर्व में रैका राजा हमारे देश की सीमा की ओर बढ़ रहा था। पश्चिम में परमारों का जमावड़ा बधान गढ़ में हो रहा था। पवारों और मल्लों की संधि हो चूकी थी। यदि दोनों की सेनाएं आपस में मिल जाएं तो हमारे देश की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती। ऐसे में कल्याण की पत्नि ने उससे कहा, “मैं भी तलवार चलाना जानती हूँ। यही नहीं पिताजी ने मुझे घुड़सवारी करना भी सिखाया है। आप मुझे आज्ञा दीजिए मैं रण क्षेत्र में आपकी छाया बनकर ही आपके साथ रहूँगी।” कल्याण ने कहा नहीं, नहीं। रण क्षेत्र में संकटों को यह सुकुमार शरीर नहीं झेल सकेगा। तुम यहीं घर पर ही रहकर सास-ससुर की सेवा करो। मैं शीघ्र ही विजय प्राप्त कर वापस आ जाऊँगा।
वृषतापेश्वर में सैनिकों का जमाव हो रहा था। महर, कैड़ा, बिष्ट, राणा, कठायत, रजवार, मनराल, ढेक, चौधरी सभी क्षेत्रीय वीर एकत्रित हो रहे थे। अवस्था में छोटे किन्तु वीरता में वरिष्ठ कल्याण इस सेना के नायक थे। गुप्तचरों से समाचार मिला कि परमारों का जमाव बधानगढ़ में हो रहा है। यु़द्ध समिति ने निश्चय किया कि परमारों के आक्रमण से पूर्व ही बधानगढ़ पर अधिकार कर लिया जाय। आज पूरे इक्कीस दिन हो गये हैं। युद्ध अविराम गति से चल रहा है। ग्वालदम के रास्ते महाराज उद्योत चन्द की दूसरी सेना (कटक) स्वयं महाराज ज्ञान चन्द की अधीनता में आ गई है, पर दुर्ग हाथ न आया। परमारों ने चन्द सेना की गति अवरूद्ध कर दी। वीर कल्याण के लिए बड़ी चुनौती थी। उसने निश्चय कर लिया कि वह अपनु चुने हएु पचास वीरों के साथ अर्धरात्रि में दुर्ग की और प्रस्थान करेगा।
अमावस की अर्धरात्रि। सारे वन प्रान्तर में घोर अन्धकार। अपना पराया नहीं सूझ रहा है। सर में कफन बाँधे पचास सैनिक खड्ग लिए सधे पैरों से दुर्ग की ओर अग्रसर हो रहे हैं। सर्वत्र पूर्ण निस्तब्धता। पैरों के दबाव से सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट भी नहीं हो रही है। दुर्ग के पास पहुँचकर सैनिक निश्चित योजना के अनुसार रस्सियों और कीलों के सहारे मूँह में खड्ग दबाये धीरे-धीरे दीवार पर चढ़ने लगे। थोड़ी देर में सबसे पहले कल्याण दुर्ग के भीरत मुख द्वार में कूदे। ऊंघते दुर्ग रक्षक सतर्क हों इससे पहले ही कल्याण ने मुख्य द्वार के भीतर की लौह श्रृंखला खोल दी। द्वार के खुलने पर भयंकर युद्ध हुआ। कल्याण ने अपूर्व शौर्य दिखलाया। अनेक दुर्ग रक्षक हताहत हुए। कल्याण का शरीर क्षत-विक्षित हो गया। वह मूर्छित होकर द्वार के पास ही गिर पड़े। तलहटी में एकत्रित कल्याण के सैनिकों ने प्रचण्ड वेग से आक्रमण किया और दुर्ग पर अधिकार कर लिया। पौ-फटने से पूर्व ही बधानगढ़ हाथ आ गया। मुख्य द्वार पर मूर्धित कल्याण्या को दुर्ग विजय की सूचना दी गयी। आँखें खुलीं। चेहरे पर क्षीण मुस्कराहट की झलक आयी और संतोष की एक चमक थी और फिर आँखे सदा के लिए बंद हो गयीं। ‘गढ़ आया पर सिंह चला गया’। इक्कीस वर्ष की भरी जवानी में दुर्ग विजेता कल्याण सदा के लिए चला गया।
ह्दय विदारक समाचार द्वार में पहुँचा कल्याण के कमर की कटार पहुँची और पहुँचा वीर कल्याण के निधन का संदेश। एक माह पहले जिस घर में आनन्द, उल्लास, उमंग, रास-रंग था, वहाँ उदासी छा गयी। द्वार के घर-घर में मात्म। लोग बड़ी संख्या में रत्नपति के आँगन में संवेदना प्रकट करने आये। घर में करुण क्रन्दन। पर नवोढ़ा वधू, जिसने जीवन में केवल सोलह बसंत देखे थे, वह शांत और संयत थी। प्रियतम से शीघ्र मिलने की उत्कंठा उसे स्फूर्ति दे रही थी। आज उसने अपना पूर्ण श्रृंगार किया। विवाह के वस्त्र पहने, अलंकारों से सजी दुल्हन पति की कटार को लिए पालकी पर बैठ कर द्वार से तीन मील दूर विभाण्डेश्वर की ओर चली। हजारों लोग उसे पहुँचाने आये।
लेखक - डॉं. हरीश नयाल - सीनियर प्रवक्ता, रा.स्ना.म.वि. रानीखेत, अल्मोड़ा
सर्वाधिकार - पुरवासी - 2011, श्री लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब), अल्मोड़ा, अंक : 32
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