जब कभी भी किसी ग्राम में किसी व्यक्ति के घर में कोई बड़ा 'काज' हुआ करता है तो पूरा गाँव उसमें सहयोग दिया करता है। शादी-ब्याह, जनेऊ या नामकरण संस्कार हो अथवा किसी व्यक्ति का वार्षिक श्राद्ध- भोज, सभी अवसरों पर आस-पास के ग्रामीणों को भोज में आमन्त्रित करने की परम्परा हमारे ग्रामीण समाज में पूर्वकाल से ही रही है। हमारे ग्रामों में जब कभी भी इस प्रकार के सामूहिक भोजों का आयोजन किया जाता है तो आमंत्रित भोजनार्थियों के लिए आजकल तो स्टील की थालियों का प्रचलन होने लग गया है लेकिन कुछ वर्षों पहले तक थालियों के स्थान पर 'पत्यालों' (पत्तलों) का प्रयोग किया जाता था। मजबूत पत्तियों वाले च्यूरा, तिमला और मालू आदि के वृक्षों की चौड़ी पत्तियों को बाँस की पतली सींकों या घास की सीकों से पत्तियों को आपस में जोड़कर गोल 'पत्याले' बनाये जाते थे। गाँव के लोग मिलकर इनका निर्माण किया करते थे। इनमें भोजन करने के बाद इन्हें पशुओं को खिला दिया जाता था। आज भी किसी-किसी गाँव में 'पत्यालों' में भोजन परोसने की प्रथा देखने में आती ही है। इन 'पत्यालों' के उपयोग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि थालियों के समान इन्ह धोने की आवश्यकता नहीं होती जिससे श्रम तथा पानी की बचत क साथ-साथ दूसरों को किसी का जूठा भी नहीं खाना पड़ता है, जो अधधुली थालियों में अनजाने ही खाना पड़ता है। सहभोज के अतिरिक्त 'पत्यालों' का प्रयोग पितरों के श्रद्धादि कर्मों में भी आवश्यक होता है।
पत्यालों के अतिरिक्त पत्तियों का प्रयोग जिस विशेष प्रकार के बरतन को बनाने में किया जाता है उसे 'पुड़ा' कहा जाता है। दो चौड़ी पत्तियों के पृष्ठतलों को सटाकर रखने के बाद उन्हें विशेष प्रकार से मोड़कर, पतली सिंखों से इस प्रकार जोड़ा जाता है कि दो चौड़ी चोंचनुमा आकृतियों वाला एक आयताकार कटोरा सा बन जाता है। यही 'पुड़ा' कहलाता है। इसका उपयोग विभिन्न संस्कारों में देव-पूजन तथा पितरों के श्राद्धादि कर्मों में किया जाता है।
मालू की पत्तियों से एक बरतन भी बनाया जाता है जो 'ख्वाका' कहलाता है। मालू की पत्तियों को उन्हीं के डण्ठलों से आपस में इस प्रकार से जोड़ा जाता है कि उनसे एक घड़े के समान रचना बन जाती है। आवश्यकता के अनुसार इनको छोटा-बड़ा बनाया जाता है।'ख्वाका' का उपयोग दालों के भण्डारण में अधिक होता है। इनमें रखी गई दालें और उनके बीज कीड़ों से बचे रहते हैं। दालों के भण्डारण के अतिरिक्त इनका प्रयोग आम केला आदि फलों का पकाने के लिए भी किया जाता है।
मालू की पत्तियों से ग्रामीण एक ऐसा उपकरण भी बनाते हैं जिसे 'मौना' कहा जाता है। बाँस या निंगाले की लम्बी खपच्चियों के बीच मालू की पत्तियों को इस प्रकार से बिछाया जाता है कि लगभग चार फीट की वर्गाकार चटाई सी बन जाती है। इस रचना के दो संलग्न कोनों को जोड़कर आपस में बाँध दिया जाता है। इस सिरे के भीतर सिर डाल देने से यह पूरे शरीर को ढक देता है। इसका प्रयोग वर्षा ऋतु में खेतों में काम करते समय किया जाता है। खपच्चियों से बधा होने से यह लचकता नहीं है और कार्य करने वाले का शरीर मूसलाधार वर्षा में भी भीगने से बचा रहता है। मालू की पत्तियों से बने 'ख्वाका' तथा 'मौना' बहुत मजबूत होते हैं और सावधानी से रखे जाने पर कई वर्षों तक उपयोग में लाये जा सकते हैं।
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