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रोनाल्ड रास | |
जन्म: | मई 13, 1857 |
जन्म स्थान: | अल्मोड़ा, उत्तराखंड |
राष्ट्रीयता: | संयुक्त राजशाही (ब्रिटेन) |
जातियता: | ब्रिटिश |
क्षेत्र: | मलेरिया के परजीवी प्लास्मोडियम |
उल्लेखनीय सम्मान: | मलेरिया के परजीवी प्लास्मोडियम में नोबेल पुरस्कार, 1902 |
रोनाल्ड रास- सर (13 मई, 1857 - 16 सितम्बर 1932): अल्मोड़ा छावनी। उत्तराखण्ड में जन्मा भारत का प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता। मलेरिया रोगाणु की खोज करने वाला विश्व का पहला व्यक्ति।
1857 के फौजी विप्लव का समय था। 19 मार्च, 1857 को मेरठ छावनी में सिपाही मंगल पाण्डे द्वारा एक अंग्रेज अधिकारी को गोली का निशाना बना देने के बाद सारे देश में अंग्रेज अधिकारियों में भय और असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। मेजर जनरल हियरसी की सलाह पर कई अंग्रेज अधिकारी अपने पारिवारिक सदस्यों को लेकर गढ़वाल-कुमाऊँ की पहाड़ियों की ओर चल पड़े थे। रोनाल्ड रास का पिता मेजर रास अप्रैल, 1857 को नाव से बनारस पहुंचा। वहां से वेश बदलता अपनी पत्नी को साथ लिए मुरादाबाद, चिलकिया, रामनगर, भुजान होता हुआ अल्मोड़ा पहुंचा। अल्मोड़ा छावनी में 13 मई, 1857 को रोनाल्ड रास का जन्म हुआ। देशभर में धधकती ब्रिटिश विरोधी आग और उत्तर भारत की गर्मी के मौसम की लू की लपटों से बचा वह एक भाग्यशाली पिता और पुत्र था। रोनाल्ड रास का जन्म विषम परिस्थितियों का एक विचित्र संयोग है, उसी भांति की विचित्र जीवन लीला और उसके आविष्कार की भी कहानी है।
इस सदी के पहले दशक तक शीतोष्ण और उष्ण कटिबन्ध का सबसे घातक रोग जूड़ी बुखार था। अकेले भारत की कुल जनसंख्या के एक तिहाई लोग इस रोग से पीड़ित रहते थे और प्रतिवर्ष 15 से 20 लाख लोग इसी एकमात्र रोग के कारण मौत के शिकार हो जाते थे। एक बार रोग की चपेट में आ जाने पर स्वस्थ होने के बाद वे ऐसे दुर्बल और अपंग हो जाते थे कि अपने भरण-पोषण के लिए श्रम नहीं कर पाते थे।
रानाल्ड रास का बचपन अल्मोड़ा में बीता था। दस वर्ष की अवस्था में पढ़ाई के लिए उसे लन्दन भेज दिया गया। मडिकल डिग्री प्राप्त हो जाने पर उसने भारतीय चिकित्सा सेवा में नौकरा कर ली। मलेरिया के मच्छरों की पड़ताल में रास को कई वर्ष लग गए। सिकन्दराबाद (हैदराबाद) छावनी में अपनी नियुक्ति के दौरान उसने अपने नौकर अब्दुल बहाव और लक्ष्मण से लाखों की संख्या में मच्छर एकत्र करवाए और माइक्रोस्कोप पर उनके रक्त का परीक्षण किया। अपने प्रयोग की सफलता के लिए दो वर्ष तक लगातार उसने मलेरिया मच्छरों का शोरबा अपने साथियों, दोस्तों और नौकरों को पिलाया। किन्तु किसी को मलेरिया होता ही नहीं था। उसने हिम्मत नहीं हारी। 25 मार्च, 1998 को परीक्षण करते-करते रास सहसा चिल्ला उठा- यूरेका, यूरेका (मैंने पा लिया) और इस प्रकार उसने भूरे मादा मच्छर को ढूंढ लिया। इसी से पूरे विश्व में मलेरिया फैलता था। मेडिकल काँग्रेस ने इस सफलता पर रास को एक महान युगान्तकारी आविष्कार क लिए बधाई भजी। भारतीय सेना की नौकरी से पेन्शन पाकर रास इंग्लैण्ड पहुँच गया, जहां औषधि विज्ञान में नोबेल पुरस्कार देकर उसे सम्मानित किया गया। लिवरपूल में उसे चिकित्सा संस्थान का प्रमुख बनाया गया। आज इंग्लैण्ड का उष्ण कटिबन्धीय रोगों के उपचार का संस्थान "रास संस्थान" कहलाता है।
अल्मोड़ा नगर द्वारा उसकी माँ को दी गई शरण, इस प्रकार स्वयं उसको दिया गया जीवनदान और भारत के साधनों और भारतीयों की उसके शोधकार्य में दी गई सहायता की बातें भुला दी गई हैं। इनका उल्लेख विश्व कोशों में मिलता है या उसके अपने संस्मरणों में।
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