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    खड़ग सिंह वल्दिया

    prakashpant 

     डाॅ. खड़ग सिंह वल्दिया

     जन्म:  मार्च 20, 1937 
     जन्म स्थान:  कलो, वर्मा वर्तमान म्यामांर
     पिता:  श्री देव सिंह वल्दिया
     माता:  श्रीमती नंदा वल्दिया 
     पत्नी:  श्रीमती इंदिरा वल्दिया 
     बच्चे:  समीर
     व्यवसाय:  वैज्ञानिक 
     शिक्षा:  पी.एच.डी.

    उत्तराखण्ड की धरती को प्यार करने वाला अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त एक अलबेला भू-विज्ञानी। धरती के रहस्यों को खोलने के लिए कृत संकल्प। मध्य हिमालयी क्षेत्र की भूवैज्ञानिक परिस्थिति, परिवेश से विश्व समुदाय को नवीनतम जानकारी देने वाले भू-विज्ञानी।


    परिवार


    विराट व्यक्तित्व के धनी अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डॉ. खड़ग सिंह वल्दिया का जन्म 20 मार्च, 1937, जन्म स्थान 'कलो' वर्मा वर्तमान 'म्यामांर', पिता का नाम श्री देव सिंह वल्दिया, दादा का नाम श्री लछमन सिंह वल्दिया है। उनका विवाह अल्मोड़ा में रहने वाली मेजर किशनसिंह खड़का की पुत्री इन्दिरा से 10 मई, 1967 को हुआ। डॉ. वल्दिया की चार बहनें है - हंसा, चंद्रकला, हेमा, सरोज।


    शिक्षा


    डॉ. वल्दिया का जन्म वर्मा के कलों नगर में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा वर्मा के कलों नगर में ही हुई थी। परिस्थितिवश वह सन् 1947 में अपने गृह नगर सोर पिथौरागढ़ में आ गये। वर्मा में तीसरे दर्जे की पढ़ाई और सीधे 6 बी क्लास की पढ़ाई 'मिशन स्कूल' पिथौरागढ़ से प्रारम्भ की। संभवतः 11 वर्ष के रहे होंगे कान में तकलीफ होने से लखनऊ मेडिकल कालेज में इलाज करवाया। कक्षा 8 तक की पढ़ाई मिशन स्कूल पिथौरागढ़ में की। हाईस्कूल की शिक्षा सरस्वती देवसिंह हाईस्कूल से प्राप्त की। सरस्वती के साधक की साधना सरस्वती देव सिंह हाईस्कूल से आगे बढ़ने लगी, जहां माधवानंद उप्रेती जी ने अंग्रेजी के उच्चारण को सुधारा। इण्टरमीडिएट की शिक्षा प्राप्त करने लखनऊ गये किन्तु उसी वर्ष सन् 1951 में स्थानीय इंटर कालेज में इंटरमीडिएट की कक्षाएं चलनी प्रारंभ हो गयी। जिससे लखनऊ से वापस आकर पिथौरागढ़ के राजकीय इंटर कालेज से ही कक्षा-11 (विज्ञान वर्ग में) पास किया और 12वीं तक आते-आते सभी विषयों के अध्यापक विद्यालय में आ गये। इस तरह यह भू-वैज्ञानिक जो सेवा भाव के लिए तो डाक्टरी की पढ़ाई करना चाहता था लेकिन अंदर छिपी शक्ति ने इसे धरती का डाक्टर, एक विशाल डाक्टर बना दिया, जो अपने कम सुनने वाले कानों से धरती की धड़कनों को सुनने का कार्य करने लगा। उस समय के अभावों में पला बढ़ा यह बालक बचपन से ही कुशाग्र, चिन्तनशील, पुस्तक प्रेमी, कवि और लगनशील, थपेड़ों व कठिनाइयों को पार करता एक भू-वैज्ञानिक की राह पर चल पड़ा। पिथौरागढ़ में रहते हुए एक पुस्तकालय भी खोला जिसका नाम 'गाँधी बाल मंदिर' जो बाद में 'गाँधी वाचन मंदिर' बना। किन्तु सन् 1953 में वल्दिया के जाते यह पुस्तकालय बंद हो गया।


    एसे मिली भू वैज्ञानिक बन्ने की प्रेरणा


    डॉ. वल्दिया के जीवन से जुड़ी एक घटना का यहां उल्लेख करना समीचीन होगा। पिथौरागढ़ में पढ़ाई के आखिरी दिनों एक दिन विद्यालय के समीप एक पहाड़ी पर पिकनिक पार्टी में शरीक हुए। इनकी श्रवण शक्ति काफी कमजोर है। जिज्ञासावश इन्होंने अपने परम आदरणीय अध्यापक से पूछा "मुझे क्या-क्या पढ़ना चाहिए?" अध्यापक महोदय ने सलाह दी "तुम्हारे लिए भू-विज्ञानी बनना श्रेयस्कर होगा; पहाड़ों और चट्टानों से बातें करते रहना; न तुम्हें बात करनी होगी न सुननी होगी।" बालक के लिये भू-विज्ञान शब्द अनोखा और नवीन था। अपनी जिज्ञासा मिटाने के लिए बालक ने भू-विज्ञान से सम्बन्धित कुछ पुस्तकों का पता लगाया और एक-दो पूरी तरह पढ़ डाली। आज उसी बालक की गणना भू-विज्ञान के क्षेत्र में देश के श्रेष्ठ विज्ञानियों में की जाती है। कहते हैं- 'होनहार बिरवान के होते हैं। चिकने पात।' विश्वविद्यालयी छात्र जीवन में ही डॉ. वल्दिया को प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए राज्यपाल का कांस्य पदक प्राप्त करने का गौरव प्राप्त हुआ।


    पिथौरागढ़ में पढ़ने के दौरान उनके पथरीली राहों के राही बने शिव बल्लभ बहुगुणा जिनका जिक्र वह हमेशा हर जगह पर किया करते हैं कि उस विराट व्यक्ति ने मुझे भू-वैज्ञानिक बनने की प्रेरणा दी। लखनऊ विश्वविद्यालय में भू विज्ञान में पीएच०डी० की शिक्षा प्राप्त की। लखनऊ विश्वविद्यालय से ही भू-विज्ञान में एमएससी एवं स्नातक की पढ़ाई पूरी की। पढ़ने पढ़ाने का शौक ऐसा था कि विश्वविद्यालय में कार्यरत सफाई कर्मचारियों, चौकीदारों, मालियों व उनके बच्चों को सांयकाल में साक्षरता का बोध भी कराते थे।


    करियर


    कर्मक्षेत्र का शुभारम्भ इन्होंने लखनऊ वि.वि. में प्रवक्ता के रूप में किया। जहां आप 1957 से 1969 तक रहे। तत्पश्चात राजस्थान वि.वि., उदयपुर में 1969-70 में रीडर और 1970-73 में वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलौजी में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी रहे। 1973-76 की अवधि में उप-निदेशक और 1980 में अतिरिक्त निदेशक कार्यरत रहे। कुमाऊँ वि.वि. से डा. वल्दिया का 20 वर्षों (1976 से 1995 तक) का नाता है। इस अवधि में आप विज्ञान संकाय के अधिष्ठाता (1977-80); कुलपति (1981) और कार्यवाहक कुलपति 1984 व 1992 में रहे। 1995 से ज.ला. नेहरू सैन्टर फॉर एडवान्स्ड साइंटिफिक रिसर्च केन्द्र, बेंगलूर में प्रोफेसर हैं। सम्प्रति- वहीं रिसर्च प्रोफेसर हैं।


    शोध कार्य


    1963 में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की और उनके शोध कार्य का विषय पूर्वी कुमाऊँ के उस वृहद अंचल का था जहां कभी किसी ने भू-विज्ञान में सर्वेक्षण कार्य नहीं किया था। 1964 में इंटरनेशनल क्रान्फ्रेन्स में उन्होंने तीन आलेख भी प्रस्तुत किये थे। 'हिमालय की संरचना उसका इतिहास और उदभव। त्रिपदगाथा, विज्ञान जगत, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और नवनीत जैसी स्तरीय पत्रिकाओं में उनके लेख छपे। हिंदी के प्रति अटूट प्रेम से उन्हें भारत सरकार ने सन् 2008 में 'आत्माराम पुरस्कार' (हिंदी देवी पुरस्कार) दिया। शोधकार्य का उनका क्षेत्र विस्तृत था। उत्तर में धरचुला, चौकोड़ी से लेकर दक्षिण में भाबर के टनकपुर दोगाड़ी तक। तीन वर्ष के कठोर परिश्रम से उन्होंने पीएचडी का काम किया। लोहाघाट का सुनकुड़ी गांव हो या रीठासाहिब से लेकर लध्याघाटी, दोगाड़ी हो या टनकपुर, टनकपुर से चलकर काली के किनारे पंचेश्वर होते हुए जौलजीबी या ध्वज क्षेत्र का इलाका हो, थल हो, चौकोड़ी या गंगोलीहाट से लेकर घाट पनार या चहज, रामेश्वर घाट सभी जगहों पर इस एक भू-वैज्ञानिक ने हिमालय के इस दूरस्थ प्रदेश को पैदल ही नापा। चण्डाक, छाना, धारी क्षेत्र में निकले मैग्नासाइट की खोज में डॉ० वल्दिया का अभूतपूर्व योगदान तो है ही साथ ही हिमालयी खनिजों के बारे में जो जानकारियां सरकार तक पहुंचायी वह अभूतपूर्व र्थी। हिमाचल प्रदेश में पैलियो करेंट व स्ट्रोमेटोलाइट के अध्ययन के लिए उन्होंने फील्ड वर्क किया था। उनके द्वारा लिखे इन तीन आलेखों से उनका जीवन बदल गया और भारत सरकार ने उन्हें शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से नवाजा। यही नहीं डॉ० वल्दिया ने विदेशों में जैसे-अमेरिका, जापान, चीन, पाकिस्तान, नेपाल, इंग्लैंड, जर्जिया आदि अनेक देशों में लगभग पचीस सालों तक, बीस से बाईस बार उन्होंने शोध यात्राएं और सेमीनार, संगोष्ठियों में भाग लेकर सारे देश का मान बढ़ाया। वाडिया, संस्थान देहरादून की स्थापना हो या कुमाऊँ विश्वविद्यालय का भू-विज्ञान विभाग। वाडिया संस्थान के निदेशक बनने के साथ-साथ उन्होंने शोध कार्य की यात्राएँ अनवरत जारी रखी हिमालय प्रदेश हो या उत्तराखंड प्रदेश के सुदूर हिस्से कुमाऊँ और गढ़वाल में उन्होंने अपने शोध कार्य की धमक हर जगह पहुंचायी। पैदल चलते-चलते उन्होंने पत्थरों व चट्टानों के इतिहास की एक ऐसी इबारत लिख दी, जिसे अब तक कोई पहचान नहीं पाया था। तराई के नंघोर इलाके हों या डालकांडे में मिला स्ट्रोमटोलाइट या दुगपीपल के वन हो या पुतलोट का डाक बंगला, सब जगह के पत्थर व चट्टानें बोलती हैं कि यहां डॉ० वल्दिया साहब आये थे।


    पुंगरघाटी का वह वाकिया भी उन्हें याद है कि कैसे उन्होंने झुनझुनवाला को बताया कि चंडाक धारी गांव में मैग्नसाइट के अतुल्य भंडार पिथौरागढ़ में हैं। वल्दिया की पूरी रिपोर्ट पर झुनझुनवाला ने अध्ययन किया और चंडाक में मैग्नासाइट फैक्ट्री लगी। साथ ही खेतान नेतड़ीगांव में हिमालयन मैग्नासाइट फैक्ट्री लगी और चली भी, साथ ही देवलथल में भारत रिफैक्ट्री कारखाना भी लगता था लेकिन बन्द हो गया। पिथौरागढ़ में फैक्ट्रीयाँ लगी भी, लोगों को रोजगार भी मिला, ट्रंसपोर्टरों और मजदूरों को काम मिला लेकिन बाद में यह अव्यवस्थाओं की भेंट चढ़कर बंद हो गयी। जो इस इलाके के लिए दुर्भाग्यपूर्ण रहा। उन्हें जियोलाज़ी विभाग की स्थापना करने में तो उन्हें स्वयं फर्नीचर तक को हटाकर अपने विभाग की स्थापना करनी पड़ी। काम कोई हो, छेटा या बड़ा नहीं होता, इसी सिद्धान्त को उन्होंने अपनाया। उत्तराखंड के भौगोलिक इतिहास पर भी वल्दिया जी ने लिखा है। कुमाऊँ विश्वविद्यालय हो या वाडिया इंस्टीट्यूट आपने बखूबी सब जगह काम को काम की तरह लिया। खुलगाड़ जलागम की भौतिकी संरचना को पुनः चक्रीय करने में भी इनका योगदान रहा है। साथ ही गोविन्द बल्लभ पर्यावरण संस्थान कोसी, कटारमल की स्थापना में इनका सहयोग अभूतपूर्व रहा।


    110 शोध और 20 मौलिक ग्रंथो का प्रणयन कार चुके हैं। बोधगम्य भाषा शौली में अपने लगभग 40 लेख हिंदी में लिखे हैं।


    सम्मान


    पुरस्कार, सम्मान और प्रशस्तियाँ खूब मिलीं कुमाऊँ के इस पुत्र को। मध्य हिमालय के भूवैज्ञानिक अध्ययन, अन्वेषण और प्रस्तुति में इन्होंने जो मील के पत्थर स्थापित किये वे राष्ट्र की धरोहर हैं। डॉ. वल्दिया को प्रदत्त कतिपय शीर्ष सम्मान हैं- लखनऊ वि.वि. का 'चांसलर मैडल'– 1954; वैज्ञानिक एवं औद्योगिक गवेषणा परिषद द्वारा 'शान्ति स्वरूप भटनागर पुरस्कार'- 1976; जिओलोजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया द्वारा 'रामाराव गोल्ड मैडल'; विश्व विद्यालय अनुदान आयोग द्वारा 'राष्ट्रीय प्रवक्ता' सम्मान- 1977-78; पर्यावरण विभाग, भारत सरकार द्वारा पं.पन्त राष्ट्रीय 'फैलोशिप'-1982-84; राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी द्वारा 'ऐस.के. मित्रा अवार्ड'- 1991; खान मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 'राष्ट्रीय खनन अवार्ड'- 1993 और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी द्वारा 'डी.एन. वाडिया मैडल'- 1995; तथा इस्पात एवं खान मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 'नेशनल मिनरल अवार्ड एक्सीलेन्स' 1997; प्रिंस मुकर्रम गोल्ड मैडल 2000; हिंदी सेवी सम्मान (आत्माराम अवार्ड) 2007; श्री एपीजे अबुल कलाम के हाथों पद्मा श्री 2007; एल. एन. कैलासम गोल्ड मैडल 2009; जी.एम. मोदी पुरस्कार विज्ञान और पर्यावरण 2012; पद्मा भूषण 2015


    देश की शीर्ष विज्ञान संस्थाओं- इण्डियन नेशनल साइंस अकादमी, इण्डियन अकादमी आफ साइंसेज, नेशनल साइंस अकादमी और जियोलोजिकल सोसायटी आफ इण्डिया की डा. वल्दिया को फेलोशिप प्राप्त है। Third World Academy of Science के भी फेलो हैं आप। दो दर्जन से अधिक विशेषज्ञों की राष्ट्रीय समितियों, परिषदों, प्रशासकीय कमेटियों की इन्हें सदस्यता प्राप्त है। 1983-85 में आप प्र.म. की मत्रिमण्डलीय वैज्ञानिक सलाहकार समिति के सदस्य और योजना आयोग की अनेक उपसमितियों के सदस्य रहे हैं।


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