स्व. पं. गोविन्द बल्लभ पंत उन व्यक्तियों में से थे जिन्होंने हिंदी साहित्य जगत को अपनी कृतियों द्वारा एक ऊंचा मंच प्रदान किया। विशेषकर नाटकों में उनका खास योगदान रहा। उनके नाटकों में समाज का सही चित्रण होता था। आजकल निजी प्रशंसा तथा प्रचार तंत्र का जमाना है, लेकिन पंत जी प्रशंसा तथा प्रचार से दूर रहते थे और शायद यही कारण रहा कि हिन्दी साहित्य जगत ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। पंत जी ने कभी कोई साहित्य समूह नहीं बनाया। वे अपने जीवन के अंतिम दिनों में कहा करते थे, ‘मैं अकेला ही हूं, यद्यपि हिंदी वालों ने मुझे भुला दिया है, पर मेरा रचना कार्य जारी रहेगा।' एक ही नाम राशि होने से जनता कांग्रेस नेता तथा भूतपूर्व मंत्री (केंद्रीय सरकार) स्व. गोविंद बल्लभ पंत को अधिक जानती थी।
साहित्य सृजन पंत जी का विशेष ध्येय रहा, इसलिए वह पूर्णत: इसी उद्देश्य को समर्पित हो गए। अपने साहित्यिक जीवन की शुरूआत उन्होंने नाटक लेखन से की। उनकी 65 कृतियां प्रकाशित हुई हैं। प्रारम्भ में उनके व्याकुल भारत, राज विजय, न्यू अलफ्रेड, कंजूस की खोपड़ी तथा कई अन्य नाटक बहुत प्रसिद्ध रहे। मंच तथा सिने कलाकार प्रसिद्ध पृथ्वी राज कपूर के पृथ्वी थियेटर के लिए उन्होंने अनेक नाटक लिखे। नाटकों के संवाद लेखन के लिए, नाटकों के हिंदी अनुवाद के लिए तथा नाटकों के निर्देशन के लिए वे आकाशवाणी दिल्ली केन्द्र के नाटक विभाग ड्रामा डिवीजन में निर्देशक के पद पर पांच वर्ष तक रहे। पं. पंत जी का नाटक 'कोहिनूर का लुटेरा' बहुत प्रसिद्ध रहा और सारे भारत में सौ से अधिक बार मंचित किया गया। सौवे मंचन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू स्वयं जयपुर पहुंचे और उन्होंने पंत जी के इस नाटक की व्यक्तिगत रूप से प्रशंसा की।
उत्तरांचल के साप्ताहिक समाचार पत्र 'पिघलता हिमालय' का विमोचन करते हुए उन्होंने कहा था 'सही पत्रकारिता हमारी नागरिक और ग्रामीण चेतना के विकास में सहायक होती है। ऐसे ही ठीक नाटक भी इस काम को कर लेता है। नाटक तमाम ललित कलाओं का संयोग करता ही नहीं करके भी दिखाता है। यह हमारी संस्कृति की सूचना है, समाज का दर्पण है। कभी-कभी जहां उपदेश, प्रवचन, दण्ड विधान कारगर नहीं होते यह बाजी मार लेता है।
नाटककार के साथ-साथ पं. पंत ने उपन्यास लेखन में भी विशेष ख्याति प्राप्त की। उनके 39 उपन्यास प्रकाशित हुए। उन्होंने कई लघु कथाएं भी लिखीं जिनमें 'बलि का बकरा' विशेष चर्चित रही। पंत जी मूर्ति कलाचित्र कला तथा संगीत में गहरी रुचि रखते थे। उनके पास स्व निर्मित टैगोर, महात्मा गांधी, पं. नेहरू तथा अनेक प्रसिद्ध व्यक्तियों की मूर्तियों का सुदर संकलन था।
पंत जी 'नवीनतम' पत्रिका के उप संपादक भी रहे और अपने समय में अनेक पत्रिकाओं से जुड़े थे। सन् 1994 में कुमाऊं विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टरेट की उपाधि से अलंकृत किया। पं. पंत जी कवि इला चंद्र जोशी, कवियत्री तारा पांडे, कवि सुमित्रानंदन पंत तथा संगीतज्ञ पं. विष्णु दत्त तिवारी के समकालीन थे। वे सदा प्रसन्न चित्त रहते थे। उन्होंने जीवन में सदा एक ऊंचा मनोबल तथा आत्मविश्वास रखा और यही कारण रहा कि 98 वर्ष की लम्बी आयु सफलता से जी गए।
हमसे वाट्सएप के माध्यम से जुड़े, लिंक पे क्लिक करें: वाट्सएप उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि
हमारे YouTube Channel को Subscribe करें: Youtube Channel उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि