क्योकि ज्ञानचंद का प्रथम तामपत्र-अभिलेख 1698 ई. का प्राप्त हुआ है। अतः वह 1698 में गद्दी पर बैठा था। उसने 1698 से 1708 ई. तक शासन किया। पूर्ववर्ती राजाओं की भांति उसने भी गद्दी पर बैठते ही गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया। अपने पूरे राज्यकाल में वह गढ़वाल व डोटी से युद्ध लड़ने में लगा रहा। उसका पहला आक्रमण गढ़वाल की पिंडर घाटी में हुआ, जहां से उसने थराली तक के उपजाऊ प्रदेश को रौंद डाला। 1699 ई. में बधानगढ़ को लूटा व विजित किया।
यहां से वह नंदा देवी की स्वर्ण-प्रतिमा भी अपने साथ ले गया, जिसे उसने अल्मोड़े में स्थित नंदादेवी के मंदिर में स्थापित किया। अगले वर्ष 1700 ई. में उसने रामगंगा को पार करके मल्ला सलाण स्थित साबली, खाटली व सैंजधार नामक गांवों की लूट-खसोट की। तीलू रौतेली की मृत्यु के उपरान्त गढ़ नरेश ने इन गांवों में पुनः अधिकार कर लिया था। 1701 ई. में गढ़नरेश फतेशाह ने चंद राज्य में स्थित पाली परगने के गिंवाड़ व चैकोट को लूटकर इन्हें बिल्कुल वीरान कर दिया। फलतः पीड़ित क्षेत्रों की जनता में भगदड़ मच गई।
डोटी अभियान
1704 ई. में पिता की करारी हार का बदला लेने के लिये उसने डोटी पर आक्रमण कर दिया। इस बार यह युद्ध कुमाऊँ की सीमा में ही स्थित मलेरियाग्रस्त भाबर में लड़ना पड़ा। इसमें डोटी नरेश तो हारकर भाग गया, किंतु कुमाऊँनी सेना मलेरिया की शिकार हो गई। फलतः ज्ञानचंद राजधानी वापस चला आया। ज्ञात होता हे कि ज्ञानचंद का आगमन मात्र सुनकर डोटी नरेश ने उसे सीमांत क्षेत्र में ही रोक लिया था, और चंद-सेना डोटी में प्रवेश नहीं कर सकी थी।
ज्ञानचंद भी देवी-देवताओं की पूजा-पाठ में पर्याप्त रूचि लेता था। पिता की भांति उसने भी मंदिर व बावड़ियां बनवाई थीं। डोटी-अभियानों के दर्मियान उद्योत चंद व ज्ञानचंद ने सोर व सीरा में भी अनेक मंदिर बनवाये थे। उनके बनवाये मंदिरों को देवल अथवा द्यौल कहा जाता था। देवस्थल (पिथौरागढ़) के चैपाता, नकुलेश्वर, कासनी, मर्सोली आदि स्थानों के मंदिर चंदशैली पर इन्हीं राजाओं के बनवाये हुए हैं। इस प्रकार लगभग 10 वर्षों तक राज्य करने के बाद सन् 1708 ई. में ज्ञानचंद की मृत्यु हो गई, और इसी वर्ष उसका प्रतापी पुत्र जगत चंद गद्दी पर बैठा था।
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