अमावस्या के गहन अंधकार के विरुद्ध नन्हे दीपकों का प्रकाश संघर्ष रूपी संदेश देने वाला दीपावली का त्योहार भारतीय सभ्यता, संस्कृति का एक सर्व प्रमुख त्योहार है। 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के वेदवाक्य का संदेश देने वाली दीपावली प्रतिवर्ष कार्तिक कृष्ण अमावस्या को हर्षोल्लास के साथ लक्ष्मी पूजन करके हमारे देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी मनाई जाती है। इस दिन भगवान राम चौदह वर्षों का वनवास पूरा करके और रावण का वध कर लंका पर विजय प्राप्त करके अयोध्या लौटे थे। फिर अयोध्या के राजा पद पर उनका राज्याभिषेक कार्तिक की अमावस्या को महर्षि वशिष्ठ द्वारा किया गया था। इस खुशी में राज्य की प्रजा ने घर-घर दीपकों की रोशनी की और स्वादिष्ट व्यंजन बनाए। तभी से यह परम्परा आज तक चली आ रही है।
भारतवर्ष में कार्तिक माह में दीपावली मनाई जाती है। वहीं दूसरी ओर उत्तराखण्ड के पर्वतीय अंचलों में दीवाली मनाने के तौरतरीके देश के अन्य इलाकों से काफी अलग हैं। गढ़वाल में एक नहीं बल्कि चार-चार दीपावली मनाने की परम्परा है। स्थानीय भाषा में इन्हें अलग-अलग नाम दिया गया है। गढ़वाल में कार्तिक दीपावली के अतिरिक्त विभिन्न क्षेत्रों में इगास, राज और मार्गशीर्ष दीपावली भी धूमधाम से मनाई जाती हैं। इन्हें भी लोग कार्तिक दीपावली की तरह मनाते हैं।
राज दीपावली
टिहरी जनपद में इस दीपावली से एक दिन पूर्व 'राज' दीपावली को मनाने की अनोखी परम्परा है। इस दीपावली को केवल डोभाल जाति के लोग मनाते हैं। इन्हें इस दीपावली को मनाने का अधिकार रियासत के समय से मिला था इसलिए यह प्रथा डोभाल जाति में आज भी प्रचलित है। इसके बाद कार्तिक दीपावली जो कि पूरे भारत में एक तय तिथि के अनुसार मनाई जाती है।
इगास दीपावली
कार्तिक दीपावली के ठीक ग्यारह दिन बाद आकाश दीवाली मनाई जाती है जिसे स्थानीय भाषा में 'इगास' कहते हैं। इसके अनन्तर एक मान्यता है कि वनवास के बाद पांडवों में से चार भाई घर वापस लौट गए लेकिन भीम कहीं युद्ध में फंस गए। ग्यारह दिन बाद वे घर लौटे और इस तरह तब से आज तक यह आकाश दीपावली मनाई जाती है। दूसरी मान्यता है कि महाराजा के सेनापति माधो सिंह भंडारी एक बार तिब्बत के युद्ध में तिब्बतियों को खदेड़ते हुए दूर निकल गए। वह दीपावली के समय अपने घर नहीं लौट पाए थे। तब अनहोनी की आशंका में पूरी रियासत में दीपावली नहीं मनाई गई थी। बाद में रियासत का यह सेनापति युद्ध में विजयी बनकर लौटा। यह खबर रियासत में दीपावली के ग्यारह दिन बाद पहुंची। जिसके पश्चात् टिहरी के समीपवर्ती इलाकों में इगास का त्योहार मनाया जाता है।
मार्गशीर्ष दीपावली
कार्तिक दीपावली के ठीक एक माह पश्चात् मार्गशीर्ष की दीपावली मनाई जाती है जिसे स्थानीय भाषा में 'रिख' बग्वाल कहते हैं। कार्तिक माह के एक महीने पश्चात् मार्गशीर्ष में इस दीपावली को मनाने की परम्परा है इसलिए इसको मार्गशीर्ष दीपावली कहा जाता है। इस दीपावली के बारे में कहा जाता है कि दूरस्थ इलाकों में सेनापति के विजयी होकर लौट आने की खबर करीब एक माह बाद कुछ क्षेत्रों में पहुंची थी, जिसके कारण वहां दीपावली एक माह बाद मनाते हैं। ऐसा क्यों, इसके पीछे ऐतिहासिक कहानी है। जनश्रुति है कि 1800 की शुरूआत में गोरखाओं ने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया था। उनके अत्याचारों से गढ़वाली जनता भयंकर रूप से त्रस्त हो चुकी थी। जनता का दर्द देख गढ़वाल नरेश महाराज प्रद्युम्न शाह ने 1803 में गोरखाओं से लोहा लिया। बताया जाता है कि महाराज कार्तिक अमावस्या यानी दीपावली के दिन रणक्षेत्र में गए थे। इसलिए टिहरी रियासत (अब टिहरी और उत्तरकाशी) की जनता दीपावली नहीं मना सकी। एक माह बाद महाराज गोरखाओं को गढ़वाल की सीमाओं से बाहर खदेड़कर वापस लौटे। इस कारण मार्गशीर्ष की अमावस्या को दीए जलाकर खुशियां मनाई। तब से इस दिन दीपावली मनाने की परंपरा चल पड़ी। आज भी इस दिन रवांई जौनपुर, जौनसार व बावर क्षेत्र में सीड़े, अरसे, पूरी-पकोड़े आदि पकवानों सहित चूड़ा कूटने की भी परम्परा है। वहीं बनाल पट्टी के गैर गांव में मंगसीर दीपावली के दिन देवलांग का पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। देवलांग में पट्टी के साठी पासांई तोकों के द्वारा ढोल नगाड़ों सहित सम्पूर्ण पेड़ उखाड़कर गांव में स्थित रघुनाथ मंदिर प्रांगण में लाया जाता है। पुजारी पेड़ का तिलक कर उसे वहां स्थापित कर देते हैं। अमावस्या की रात क्षेत्र के 66 गांव के हजारों लोग देवदार की टहनियां लेकर और मंदिर में पहुंच कर देव स्वरूप वृक्ष देवलांग की परिक्रमा कर पूजा अर्चना करते हैं। इसके बाद ग्रामीण रात भर तांदी, गीत, राधे व पांडव नृत्य करते हुए उत्सव मनाते हैं। सुबह सवेरे वृक्ष को अग्नि दी जाती है। इसे बुराई पर अच्छाई के प्रतीक के तौर पर जलाया जाता है।
मंगसीर की दीपावली पर आतिशबाजी का शोर नहीं होता और ना ही बारूद के प्रदूषण का खतरा। इसे मनाने के लिए देवदार के एक पेड़ को चोटी सहित गांव में लाया जाता है, जिसका ढोल नगाड़ों के साथ स्वागत किया जाता है। इसके साथ हरिबेल के छल्ले बनाए जाते हैं और पेड़ में चढ़कर उसमें देवदार के ही सूखे छिलके भरे जाते हैं। इस देवस्वरूप वृक्ष को पूजा करने के बाद सुबह चार बजे खुले मैदान में खड़ा किया जाता है। लगभग एक घंटे की मशक्कत के बाद यह कार्य होता है। इसके पश्चात् रात्रि में पेड़ पर स्थानीय जड़ी बूटियों से बनी धूप व घी का छिड़काव कर मणेश्वर मंदिर से लाई गई अग्नि से प्रज्ज्वलित किया जाता है। इसके साथ ही हजारों लोग मशालें हाथ में लेकर ढोल की थाप पर मदमस्त होकर रासों व तांदी नृत्य करते हैं। जिससे देवलांग के लिए की गई मशक्कत रोमांच और खुशी में बदल जाती है।
इस पर्व पर एक और परम्परा है। उत्तरकाशी के डुण्डा ब्लॉक के धनारी पट्टी के पुजार गांव में स्थित सिद्धेश्वर मंदिर के प्रांगण में दिलंग मेले का हर्षोउल्लास के साथ शुभारंभ होता है। पुजारगांव, दड़माली व गवाणा के लोग मंगसीर की दीपावली के अगले दिन दिलंग मेले का भव्य आयोजन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि राजशाही दौर में दड़माली निवासी कब्बू जैतवाण को राजा ने यह सजा दी कि उसे बांज की लकड़ी के अन्दर फंसा दिया गया। तदंतर कब्बू जैतवाण ने भगवान शंकर की आराधना की और प्रार्थना की कि इस संकट से मुक्ति दिलाने पर मैं तेरी दीपावली मनाऊंगा। तभी से इस मेले का आयोजन किया जा रहा है। मेले में बड़ी दीपावली के दिन जंगल से एक पेड़ काट कर लाया जाता है और उसे गांव के नजदीक रखकर उसकी निगरानी करते हुए रातभर ग्रामीण कीर्तन भजन करते हैं। अगली सुबह देवताओं की डोली के साथ इस पेड़ पर छिलके बांध कर तीन गांवों की रस्सी को बांधकर छिलकों को जलाकर पेड़ को खड़ा कर दिया जाता है। बाद में रस्सी को जलने से बचाने के लिए गांव का एक व्यक्ति पेड़ पर चढ़ता है कि यदि रस्सी जल गई या पेड़ गांव की तरफ झुक गया तो उस गांव में नुकसान होता है। इसलिए इस दिलंग मेले को बड़ी सावधानी से मनाया जाता है।
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