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अतिविषा | |
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पहाड़ी नाम | अतीस |
लैटिन | Aconitum heterophyllum Wall |
कुल | वत्सनाभादिवर्ग (Ranunculaceae) |
पुष्पकाल | जुलाई-अगस्त |
फलकाल | सितम्बर-अक्टूबर |
प्रयोज्य अंग | मूलकन्द |
गुण | लघु, रूक्ष |
स्वरूप
यह दो चार फुट ऊँचा क्षुप (Herb) है। काण्ड सरल और शाखाएं चपटी होती हैं पत्र 2-4 इंच लम्बे अण्डाकार या हृदयाकार होते हैं। पुष्प पीले कुछ नीलिमा युक्त होते हैं। फल पंचकोषीय पकने पर चपटे काले बीज 30 से 24 की संख्या में एक कोष से निकलते हैं। मूल कन्द युक्त से 2-4 सेमी० लम्बा और द्विवर्षायु दो कन्द वाला होता है। पुराने कन्द की अपेक्षा नया कन्द गुणकारी और महंगा बिकता है। तोड़ने पर कन्द श्वेत वर्ण का दिखता है और चखने पर कटु रस प्रधान होता है।
प्राप्ति स्थान
उत्तराखंड में पंवाली, अलकनन्दा रेंज हिलसी, कूशकल्याणी, खंडारी, गंगी, खतलिंग, तड़ीउडुयार आदि स्थानों में 2,700 मीटर की ऊँचाई से लेकर 3,800 मीटर की ऊँचाई तक उपलब्ध होता है।
स्थानिक प्रयोग
1. किंवदन्ती-यजुर्वेद में अतिविषा शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से की। गई हैं' अतिविश्वां परिष्ठास्तेन" य० अ० 12-48 या विषमतिक्रान्तमिति अतिविषा' अर्थात् विष वर्ग की होने पर भी यह मूलिका निर्विष है। यजुर्वेद के टीकाकार का कहना है कि प्रलाप की अवस्था में इस औषध का प्रयोग करने से विशेष लाभ होता है।
2. ग्रामीण लोग इसकी मूल गांठ को बालकों के पेट की बीमारियों के लिए एक रामबाण औषध मानते हैं।
3. अतीस, काकड़ासिंगी, वचा, मुस्तक (मोथा)- इन सभी का चूर्ण बनाकर बच्चों को चार रत्ती की मात्रा में मधु के साथ अनुपान देने से वमन, अतिसार खाँसी और पाचन नलिका के विकारों में लाभ होता है।
4. बालकों की उदरकृमि में कमीला और अतीस को गर्म जल के साथ देने से लाभ होता है।
5. बिच्छू के दंश पर चूने के पानी के साथ इसका लेप करने से लाभ होता है।
6. क्षयजन्य कास में अतीस के मूलचूर्ण का प्रयोग विशेष लाभदायक है।