गढवाल में होलिकोत्सव : माना जाता है कि पहले गढ़वाल में होलिकोत्सव की परम्परा नहीं थी। अतः वहां पर कुमाऊं के समान इसका आयोजन नहीं किया जाता था। यद्यपि अब कहीं-कहीं नागरिक क्षेत्रों में इसे मनाया जाने लगा है, किन्तु इसका रूप वैसा नहीं होता है जैसा कि कुमाऊं में। एतदर्थ एकादशी को चीर स्तम्भ के रूप में जंगल से पैय्यां (पदम) वृक्ष की एक लम्बी शाखा/तने को लाकर गांव के पंचायती आंगन में गाड़ दिया जाता है। इसके बाद पौर्णमासी के दिन वहां पर एकत्र किये गये लकड़ी, झाड़-झंकाड़ के ढेर को अग्नि को समर्पित करके छलड़ी/छरड़ी के दिन रंग खेलते हैं। होलिका दहन की राख को माथे पर लगाते हैं। ढोल, दमामा व शंख बजाते हुए गांव की टोलियां घर-घर घूमती हैं और दूसरे गांवों में भी जाती हैं। यहां पर गाये जाने वाला एक प्रसिद्ध होली गीत के बोल हैं-
दसरथ को लछीमन बाल जाती।
चौदा बरस तपोवन रहियो, ताप नि लाग्यो एक रती।
चौदा बरस हिमाचल रेहियो, जाड़ों नि लाग्यो एक रती।
चौदा बरस सीता संग रहियो, पाप न लाग्यो एक रती। आदि