याद है, वो नन्ही नन्ही गौरेया?
कैसे सुबह सुबह
चीं चीं करके आंगन में उतर आती थी।
ईजा जब डालती चावल के दाने
आवाज लगाकर अपने साथी संगीयों को भी
बुला लाती थी।
दिन भर बस आस पास ही उड़ती फुदकती
उछलती रहती थी।
छत के नीचे लगी बल्लियों के बीच
घर हुआ करता था,
बच्चे पुकारते तो मुंह में भरकर दाने
उड़ जाती उनके पास खिलाने
घर के पीछे नींबू का एक पेड़ हुआ करता था
वहां बैठे अक्सर जाने क्या बतियाते रहती
दोस्तों के साथ
गौरेया जो जीवन का हिस्सा हुआ करती थी।
कुछ सालों से मगर खफा सी है शहर से
गुस्सा होकर चली गई है कहीं
अब नहीं दिखती
आमा कहती है गांव में लेकिन
आती है रोज उसी तरह
उछलते फुदकते हुए मिलने
वो नन्ही नन्ही गौरेया।
- वैभव जोशी