हे जी चला अपुणु पहाड़ घूमी ओला..
बणों मा घुघुती अर ,हिलांस देखी ओला..
लाल फूलों का, सजिला डाळा, बुराशं देखी ओला
हे जी चला! अपुणु पहाड़ घूमी ओला..
काकी-बड्डी कि,छवीं- बथ का दगड़ मा..
अपणा घौरे कि पुराणी खोला तिबार देखी ओला..
जिकुड़ी की वर्षों बटि खुदांई याद मिटै ओला..
हे जी, द्वी-चार दिन चला,तख बितै ओला..
झ्यालो की ककड़ी,अर
पुंगड्यो की मुंगरी चाखी ओला..
काफल घिघारू अर हिंसार भी खाई ओला..
इख परद्योश मा त बीती ग्ये उमर,
सदानी सुपन्यों सजाण मा..
हे जी छोड़ी कि शहरों कु
यु जंजाल..
अपणु पहाड़ देखी औला.....
गौं की सार्यों मा नौ-नाजे बार, देखी ओला.....
छोया पंदेरों की मिठ्ठी पाणी धार देखी ओला..
हे जी चला एसू का बगत, हम भी अपणु रौतेलु मुल्क,
अर पहाड़ देखी ओला ..
बनि - बनि का,अपणा रंगिला त्योहारो मा झूमी औला
हरी-भरी घाटी अर मखमली बुग्यालो मा घूमी ल्यौला
अपणा उदासिला मन मा, उलार भरी द्योला....
अपणी माटी मा सौ-सिंगार करी ओला..
हे जी चला अपणु पहाड़ देखी ओला .....
@ लिख्वार - अशोक जोशी नारायणबगड़ चमोली बटि