कुछ कुछ गांव सा बाकी है अभी मेरे शहर में,
कुछ कुछ पहाड़’ सा बाकी है अभी मेरे शहर में।
थोड़े थोड़े त्यौहारों का रंग बाकी है,
थोड़ा रस्म और रिवाजों का रंग बाकी है।
कहीं घास के लूटे बने दिखते हैं,
कहीं खेत सीढ़ीनुमा सजे दिखते हैं।
पटाले अभी छतों पर नजर आती हैं।
गुड़ के साथ चाय पेश की जाती है।
देहली पर ऐपण अब भी दिए जाते है घर में
कुछ कुछ पहाड़’ सा बाकी है अभी मेरे शहर में।
(पहाड़ शब्द का तात्पर्य ऊँचे पर्वत शिखरों से नहीं, अपितु पहाड़ की जीवन शैली से है।)
- वैभव जोशी