'कोट की माई का मेला' के नाम से जाना जाने वाला यह उत्सव मार्कण्डेयपुराण में उल्लिखित भ्रामरीदेवी तथा नन्दादेवी के सम्मान में चैत्र मास के नवरात्रों की पंचमी से लेकर अष्टमी तक वैजनाथ से 3 कि.मी. आगे ग्वालदम वाले मार्ग पर एक ऊंची चोटी पर मनाया जाता है। पहले कत्यूरी शासनकाल में इस स्थान को 'रणचूलाकोट' कहा जाता था तथा यहां पर उनका किला भी होता था। कहा जाता है कि अपनी उत्तराखण्ड यात्रा के समय आदि शंकराचार्य जी भी यहां आये थे और उन्होंने वैजनाथ के भ्रामरीदेवी मंदिर की शिला का पूजन एवं देवी की प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा यहीं पर की थी। कालान्तर में इसकी 'कोट की माई' के नाम से पूजा-अर्चना की जाने लगी थी।
कहा जाता है कि चंदों के समय में नंदादेवी का मंदिर भ्रामरीदेवी के मंदिर के नीचे स्थित झालीमाली नाम के गांव में था तथा इसकी पूजा अर्चना का कार्य मेला डुंगरी के भंडारी ठाकुर किया करते थे। देवी को दी जाने वाले बकरों व भैंसों की बलि भी कोट से नीचे हो दी जाती थी। उस काल में भ्रामरी का उत्सव तो प्रतिवर्ष चैत्राष्टमी मनाया जाता था, किन्तु नन्दोत्सव प्रति तीसरे वर्ष हुआ करता था। कालान्तर में नंदा की स्थापना भी ऊपर भ्रामरी के साथ ही कर दिये जाने से दोनों के उत्सव का आयोजन भी संयुक्त रूप से किया जाने लगा।
नंदा की पूजा की सामग्री को चांदपुर में स्थित नंदा के मायके की ग्राम नौटी से मंगाया जाता है। तीन दिन (अष्टमी से दशमी) तक चलने वाले इस उत्सव में परम्परानुसार सर्वप्रथम भेटी ग्राम से नंदा का जागर लगाने वाले जगरियों को न्योता जाता है। वे लोग पंचमी से सप्तमी तक नंदा का जागरगान करते हैं। सप्तमी को नंदा-सुनन्दा के डिकर बनाने के लिए चयित कदली स्तम्भों का पूजन करके उनसे इनकी मुखाकृतियों (डिकरों) की रचना की जाती है तथा साथ ही द्योनाई के बोरा लोगों के द्वारा देवी के न्यासभूत ऋंगार समग्री को गाजे-बाजों से युक्त जुलूस के साथ वहां लाया जाता है।
अपराह्न 3-4 बजे तक देवी की प्रतिमा को पूरी तरह से श्रृंगारित कर दिया जाता है। इसी समय जगरियों के जागरगान व ढोल-नगाड़ों की ध्वनि के साथ मंदिर के पुजारी पर देवी का अवतरण होता है। फिर रात्रि में देवी का पूजन करने के उपरान्त मेला डुंगरी के लोगों के द्वारा आनीत महिष की प्रथम बलि चढाई जाती है। लोग रात्रिभर देवी जागरों, लोकगीतों, लोकनृत्यों के साथ उत्सव मनाते हैं। इसके बार अगले दिन मध्याह्न में देवी का पूजन करने के उपरान्त द्वितीय महिषबलि का आयोजन होता है (वर्तमान में मंदिरों में बलि पुर्णतः प्रतिबंधित है) और इसके उपरान्त शोभायात्रा के लिए देवी के डोले को सजाने की तैयारियां प्रारम्भ की जाती हैं तथा साथ ही देवा का भोग लगाने के लिए 36 प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं जिन्हें बनाने का कार्यभार गांव के नियत रसोइयों पर होता है और वही देवी का डोला उठने से पर्व उसे भोग भी लगाते हैं। तदनन्तर हर्षोल्लास से नाचते-गाते श्रद्धालुओं के साथ डोले के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है। पुजारी में अवतरित देवी को स्थान-स्थान पर रुक कर नचाया जाता है। लोग उसे अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं तथा अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए तथा संकटों का निवारण करने के लिए आराधना करते हैं। देवी का डोला झालीमाली गांव से होता हुआ अन्त में उन जलधाराओं के पास पहुंचता है जिन्हें 'देवीधारा' कहा जाता है तथा जहां पर देवी की प्रतिमा का विधि-विधान सहित विसर्जन कर दिया जाता है।
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