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    हिरन चित्तल - लोकोत्‍सव

    भाद्रपद दूर्वाष्टमी को गमरा (गौरा) के आगमन के के अवसर पर कुमाऊं की अस्कोट पट्टी में हिरन-चित्तल का आयोजन होता है। क्योंकि इसका आयोजन गमरा महोत्सव के अवसर पर किया जाता है। अत: इसका प्रमुख आयोजन भी उसी स्थान पर होता है जहां पर कि गमरा महोत्सव का आयोजन किया गया होता है। इसमें पांच या इससे अधिक व्यक्ति भाग लेते हैं। सबसे आगे का व्यक्ति रंगबिरंगे कपड़ों से मढ़ा हुआ लम्बी सींगों वाले हिरन का मुखौटा पहनता है। बांस की दो खपच्चियों पर कपड़ा लगा कर हिरन का मुंह बनाया जाता है। दोखमियां लकड़ी से हिरन की सींगे बनाई जाती है। हिरन के गले में घंटियां बांधी जाती हैं। हिरन के पश्चभाग का निर्माण अपनी कमर को समकोण तक झुकाए चार-पांच व्यक्तियों द्वारा होता है। ये एक-दूसरे की कमर हाथों से पकड़े पहले की कमर पर टिकाए धड़ का निर्माण करते हैं। पूंछ पर भी एक घंटी बांधी जाती है। धड़ के ऊपर एक चित्तीदार या रंग-बिरंगी चादर डाल कर उसे चित्तल का स्वरूप प्रदान किया जाता है।


    नगाड़े और दमामों के साथ एक विशिष्ट पदगति से उठते, बैठते, गिरते, ढलते सारे लोग अपने मुखौटे वाले व्यक्ति के पैरों का अनुकरण करते हुए हिरन चित्तल का अभिनय करते हैं। इसमें हिरन की अनेक चालों का अभिनय किया जाता है। चौकड़ी भरना, मंथर गति से चलना, ठिठकना, केलि करना, खुरों से भूमि खोदना, सींग खुजाना, सिर हिलाना, मुंह टपटपाना, घुटने टेकना, लेटना, मारने की मुद्रा बनाना आदि नाना भावों की अभिव्यक्ति इसमें की जाती है। कोई लोक देवता ग्वाला बन कर चंवर गाय की पूंछ से हिरन-चित्तल को झाड़ने-फूकने, चराने, पानी पिलाने आदि का अभिनय करता है।


    इस नृत्य का रूप जहां एक ओर विशुद्ध रूप से लोकनाट्यात्‍मक है वहीं दूसरी ओर देवनृत्य के रूप में इसका धार्मिक पक्ष भी है जिसकें विषय में प्रयाग जोशी अपनी पुस्‍तक "कुमाऊं गढ़वाली की लोकगाथाएँ : एक सांस्कृतिक अध्ययन" में लिखते है, इसमें 'वाद्यवादक' 'ग्यूलड़िया' ध्वनि से चलता हुआ अन्त में 'धूनी नमना' ताल में पहुंचता है। इस तोड़ की 22 ड्योड़ियां कही जाती हैं। एक आवृत्ति ड्योड़ी हो जाने पर वाद्य ध्वनि मंद-मंथर हो जाती है और अगली आवृत्ति में द्रुत। यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक कि हरिण-चित्तल का मुख्य नर्तक देवावेश से आवेष्टित नहीं हो जाता है। डंगरिया व्यक्ति चीतल के ऊपर चंवर डुलाता है तथा 'झुमकलो' टेक के साथ गाथा के बोल गाता जाता है। इस टेक के साथ ही गाथा का छंद बदल जाता है। डंगरिया हिरन के आगे नाचता हुआ उसे नाचकी रंगत में लाने का यत्न करता रहता है।


    लोकानुरंजकपरक इस नृत्य परम्परा के संदर्भ में ऐसा प्रतीत होता है। कि यह हिमालयी क्षेत्रों के निवासियों के लोकानुरंजन की एक लोकप्रिय परम्परा रही है, क्योंकि उत्तराखण्ड के समान ही इसका यह रूप हिमाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में भी देखा जा सकता है, यद्यपि वहां पर इसके मनाये जाने के रूपों एवं अवसरों में किचित् स्थानीय अन्तर पाये जाते हैं।


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