देवदार पहाड़ों में पाया जाने वाला हरे रंग की चौड़ी पत्ती का एक सदाबहार शंकुधारी वृक्ष है, जिसकी ऊँचाई लगभग 40 से 50 मीटर होती है। यह हिमालय पर्वत क्षेत्र में 1500 से 3200 मीटर तक की ऊँचाई में पाया जाता है। उत्तराखण्ड सहित सभी हिमालयी पहाड़ी क्षेत्रों में यह वृक्ष देखा जा सकता है। कश्मीर में इसे दिआर के नाम से जाता है, हिमाचल में कैलोन व उत्तराखण्ड में द्यार या देवदार नाम ही प्रख्यात है।
देवदार नाम देवदारू (संस्कृत शब्द) से लिया गया है। देवदारू का मतलब देवताओं की लकड़ी वाला पेड़ होता है। प्राचीन ग्रंथों में भी देवदार वृक्ष का अभिलेख मिलता है। जैसे अल्मोड़ा में स्थित जागेश्वर मंदिर के लिये कहा गया है -
हिमाद्रेरूत्तरे पार्श्वे देवदारू वनं परम्
पावनं शंकरस्थानं तत्र्सर्वे शिवार्चिताः।
श्लोक अर्थ- "बर्फ से ढके पहाड़ियो के उत्तर में, देवदारों के घने जंगलो से घिरा ये स्थान शिव की पवित्र भूमि है। जहां उन्हें हर जगह पूजा जाता है।"
गणेश चतुर्थी पूजा (जो इक्किस पात्र पूजा के नाम से भी जानी जाती है) में भी जो 21 प्रकार के पत्ते चढ़ाये जाते हैं उनमें देवदार का पत्ता भी होता है। पहाड़ों में देवदार की लकड़ी अक्सर शुभ कामों में होने वाले होम आदि में उपयोग में लाई जाती है।
पहाड़ों में कहावत के तौर में भी देवदार पेड़ का जिक्र किया जाता है। ऐसी कहावत भी है "ठुल आदिम द्यार ज न्यूड़ि रौंछ" अर्थात बड़ा आदमी देवदार पेड़ की शाखा की तरह झुका रहता है। क्योंकि इस पेड़ की नयी शाखा थोड़ी झुकी सी रहती है। यह पहाड़ों का एक अभिन्न हिस्सा है। कई कवियों ने देवदारों पर कवितायें भी लिखी है।
देवदार की लकड़ी से फर्नीचर (लकड़ी के फ्रेम, दरवाजे, आदि) बनाने के काम में लाई जाती है। देवदार की लकड़ी में तेल भी होता है। यह तेल एंटीफंगल गुण से परिपूर्ण होता है। इस तेल को त्वचा के रोगों के इलाज हेतु प्रयोग में लाया जाता है। देवदार की छाल से काढ़ा भी बनाया जाता हैं। जो कि अन्दरूनी बिमारियों के इलाज में प्रयोग में लाया जाता है। इसके अलावा औषधिय रूप में और जगहों पर भी इसका प्रयोग किया जाता है। जो कि गठिया, मधुमेह, सूजन आदि रोगों के उपचार के काम में लाया जाता है। देवदार की लकड़ी धूप बनाने के काम में भी लायी जाती है।
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