चौमू देवता मार्गदर्शक व पशुचारकों के देवता होते है। मान जाता है कि जंगल गयी गायों के रास्ता भटकने पर यह देवता पशुओं को सकुशल गावों तक पहुंचाता है। इनके चार मुख होते हैं इसलिये इन्हें चौमू कहा जाता है। माना जाता है कि यह शिव का ही प्रतीक है। इनको घंटियां चढ़ाई जाती है। असोज और चैत की नवरात्रियों में बड़े स्तर पर पूजा होती हैं। इन्हें दूध चढ़ाया जाता है। इनका आदि स्थान रयूनी तथा द्वारसौं के मध्य है।
इनकी स्थापना के बारे में कहा जाता है कि 15वीं शताब्दी के मध्य के आस पास रणवीरसिंह राणा नाम का एक व्यक्ति एक बार नर्मदेश्वर का शिवलिंग अपनी पगड़ी में लेकर रानीखेत के पास अपने गांव को चंपावत से आ रहे थे। घारीघाट (रयूनी) के पास जब वे पहुंचे ता थोड़ा सुस्ताने बैठे। उन्हाने पगड़ी सम्भाल कर नीचे रखी। पानी पीने के बाद जोंही वे पगड़ी जिसमें शिवलिंग थी उठाने लगे तो वे उनसे उठ नहीं पाई। उन्हे आश्चर्य हुआ, उन्होने तीर चार बार और प्रयास किया। फिर भी उसे उठाने में असफल रहे। उन्होने आस पास के गांवों से लोग बुलाकर घटना के बारे में बताया। लोगों ने मिलकर उठाया। बहुत भारी होने के कारण शिवलिंग को पास में ही एक बांज के पेड़ के नीचे रख दिया। रणवीर सिंह ने कहा कल वह आकर यहीं पर शिवलिंग की स्थापना करके मंदिर बनवा देगा। लोगों ने भी हामी भरी। दूसरे दिन जब सब उस स्थान पर आये तो देखा कि शिवलिंग पास में ही रयूनी और द्वारसौं की सीमा पर एक बांज वृक्ष के नीचे स्थांतरित हो गया। लोग आश्चर्यचकित हुये। और उस स्थान पर ही फिर मंदिर बनाया गया।
यह भी कहा जाता है कि इनका नाम सुनकर एक बार अल्मोड़ा का राजा रत्नचंद इनके दर्शन को जाना चाहता था परन्तु उसे कोई भी शुभ मुर्हुत नहीं मिला। तब चौमू देवता राजा के सपने में आये और राजा से कहा -"मैं राजा हूं, तू नहीं । तू क्या मेरी पूजा करेगा।"
चौमू देवता के मंदिर चंपावत के चमलदेव, पिथौरागढ़ के चैपाता में भी है
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