मेरठ के प्रसिद्ध नौचन्दी मेले के समान ही नवरात्रियों में कुमाऊं मंडल के जिले ऊधमसिंह नगर के काशीपुर नामक कस्बे में चैत्र प्रतिपदा से पौर्णमासी तक आयोजित किया जाने वाला 15 दिवसीय चैती का मेला इस क्षेत्र का एक प्रसिद्ध व्यावसायिक लोकोत्सव माना जाता था। इसमें किसी बड़े मेले में आयोजित की जाने वाली सभी प्रकार की कौतुकीय व्यवस्थाओं- सर्कस, झूले, बाजार की जनोपयोगी वस्तुओं के अतिरिक्त बड़े व्यापक स्तर पर पशुओं का क्रय-विक्रय भी हुआ करता था। जब भारवाही वाहनों के रूप में घोड़ों की महती आवश्यकता होती थी तब विशेष रूप से यहां पर उनका व्यापार हुआ करता था। लोग दूर-दूर से इन्हें खरीदने के लिए यहां आते थे। घोड़ो के खरीदारों को साल भर इस मेले का इन्तजार रहता था। अन्य सामानों का बाजार भी कॉफी बड़े विस्तृत रूप में आयोजित किया जाता था। दिल्ली-मेरठ तक के व्यवसायी इसमें अपनी दूकानें लगाते थे और काफी माल बेचकर अच्छा लाभ प्राप्त करते थे। हल्द्वानी, रामनगर, नैनीताल, रामपुर, बरेली, मुरादाबाद आदि नगरों के लोग भी भारी संख्या में यहां पर सामान व घोड़े खरीदने के लिए आया करते थे। अब स्थान-स्थान पर नये कस्बों व नगरों का विकास हो जाने, वहीं पर सभी आवश्यक वस्तुओं के सुलभ हो जाने, आवागमन की एवं भारवहन की यांत्रिकी पवाआ के सर्वसामान्य हो जाने, घोड़ों की आवश्यकता न रहने से इस का व्यावसायिक महत्व समाप्त हो जाने से यह मेला अतीत की स्मृति बनता जा रहा है।
इस मेले के संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि व्यावसायिक पक्ष के अतिरिक्त इसका अपना धार्मिक महत्व भी था जो अभी भी कायम है। काशीपर नगर से कुंडेश्वरी की ओर जाने वाले मार्ग पर जहां पर, कि इस मेले का आयोजन होता था, वहां पर शाक्त सम्प्रदाय से सम्बद्ध बालासुन्दरी देवी का बहुमान्य प्राचीन मंदिर है। इसके सम्बन्ध में जनविश्वास है कि नवरात्रों में, विशेषकर अष्टमी-नवमी को, यहां पर जो मनौती मांगी जाती है। वह अवश्य पूरी होती है। इसीलिए अन्यथा पूरे नवरात्रों की पूजा का महत्त्व होते हुए भी, अष्टमी से दशमी तक वहां पर पूजा करने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। वैसे देवी का स्थायी आसन यहां से 4 कि.मी. पर काशीपुर नगर के पक्काकोट नामक मुहल्ले में है जहां पर कि इसके परम्परागत पंडे/पुजारी रहते हैं। वहीं पर इसकी सुवर्ण प्रतिमा को स्थायी रूप में रखा जाता है तथा चैती का मेला प्रारम्भ होने पर पहले दिन इसे एक डोले में रखकर शोभायात्रा के रूप में यहां देवालय में लाया जाता है। डोले में प्रतिमा को स्थापित करने से पूर्व अर्धरात्रि में उसका पूजन करके उसे अजबलि चढ़ाई जाती है। यहां की जनजाति बोक्सा लोगों को इस देवी पर अटूट गहन आस्था पायी जाती है। अत: इनके नव-विवाहित जोड़े निरपवाद रूप में मां बालासुन्दरी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए इस अवसर पर अवश्य यहां पर पहुंचकर इसकी पूजा अर्चना करके सुखी एवं चिरदाम्पत्य जीवन के लिए उसका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। अतः यद्यपि इसका व्यवसायिक महत्त्व तो अब समाप्त प्राय: है, किन्तु धार्मिक महत्त्व अभी भी यथावत् बना हुआ है। पहले देवी का यह प्रवास केवल अष्टमी से दशमी तक का होता था। किन्तु अब पांच दिन तक का कर दिया है।
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