Folk Songs


    कैसे कह दूँ, इन सालों में

    कैसे कह दूँ, इन सालों में,

    कुछ भी नहीं घटा कुछ नहीं हुआ,

    दो बार नाम बदला-अदला,

    दो-दो सरकारें बदल गई

    और चार मुख्यमंत्री झेले ।


    "राजधानी" अब तक लटकी है,

    कुछ पता नहीं "दीक्षित" का पर,

    मानसिक सुई थी जहाँ रुकी,

    गढ़-कुमूँ-पहाड़ी-मैदानी, इत्यादि-आदि,

    वो सुई वहीं पर अटकी है ।


    वो बाहर से जो हैं सो पर,

    भीतरी घाव गहराते हैं,

    आँखों से लहू रुलाते हैं ।

    वह गन्ने के खेतों वाली,

    आँखें जब उठाती हैं,

    भीतर तक दहला जातीं हैं ।


    सच पूछो- उन भोली-भाली,

    आँखों का सपना बिखर गया ।

    यह राज्य बेचारा "दिल्ली-देहरा एक्सप्रेस"

    बनकर ठहर गया है ।

    जिसमें बैठे अधिकांश माफ़िया,

    हैं या उनके प्यादे हैं,

    बाहर से सब चिकने-चुपड़े,

    भीतर नापाक इरादे हैं,

    जो कल तक आँखें चुराते थे,

    वो बने फिरे शहजादे हैं ।


    थोड़ी भी गैरत होती तो,

    शर्म से उनको गढ़ जाना था,

    बेशर्म वही इतराते हैं ।

    सच पूछो तो उत्तराखण्ड का,

    सपना चकनाचूर हुआ,

    यह लेन-देन, बिक्री-खरीद का,

    गहराता नासूर हुआ ।

    दिल-धमनी, मन-मस्तिष्क बिके,

    जंगल-जल कत्लेआम हुआ,

    जो पहले छिट-पुट होता था,

    वो सब अब खुलेआम हुआ ।


    पर बेशर्मों से कहना क्या?

    लेकिन "चुप्पी" भी ठीक नहीं,

    कोई तो तोड़ेगा यह 'चुप्पी'

    इसलिये तुम्हारे माध्यम से,

    धर दिये सामने सही हाल,

    उत्तराखण्ड के आठ साल.....!

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