हे मेरे प्रदेश के वासी
छा जाती वसन्त जाने से जब सर्वत्र उदासी
झरते झर-झर कुसुम तभी, धरती बनती विधवा सी
गंध-अंध अलि होकर म्लान, गाते प्रिय समाधि पर गान
एक अंधेरी रात, बरसते थे जब मेघ गरजते
जाग उठा था मैं शय्या पर दुःख से रोते-रोते
करता निज जननी का चिन्तन,
निज मातृभूमि का प्रेम-स्मरण
उसी समय तम के भीतर से मेरे उर के भीतर
आकर लगा गूंजने धीरे एक मधुर परिचित स्वर
काफल पाक्कू, काफल पाक्कू
काफल पाक्कू, काफल पाक्कू