देवदार अब उतने कहाँ मिलते है
सहसा कभी आता था पहाड़ , जाड़ो में
बर्फ की शॉल लपेटे , बाहो में
देवदार,
दिखते थे सड़क किनारे, कतारों में।
कपकपाने वाली सर्द हवाओं में
सीना ताने खड़े रहते थे।
देवदार पतझड़ में भी
यूँ ही, हरे भरे रहते थे।
धीरे-धीरे, चलाई आरी
चीर दिये गये बारी-बारी
एक विकास की आंधी में
देखते देखते जंगल खाली।
अब तो चारों तरफ यहीं मंजर दिखते हैं,
जब आता हूँ पहाड़ तो बंजर दिखते है।
हाँ, कहीं कहीं छींटें भर निशाँ मिलते हैं
लेकिन
देवदार अब उतने कहाँ मिलते है।
- वैभव जोशी